#Ayurved : देह में विद्यमान ‘अग्नि’ ही स्वास्थ्य लाभ का मूल है !

१. स्वास्थ लाभ के लिए देह में विद्यमान अग्नि का (पाचन शक्ति का) महत्त्व !

१ अ. देह में विद्यमान अग्नि भगवान का रूप होना : बाह्य सृष्टि में जैसे अग्नि के कारण अन्न पकता है, साथ ही खाए गए आहार का पाचन अग्नि के कारण ही होता है । देह में विद्यमान अग्नि को ‘वैश्वानर’ कहा गया है । इसी को ‘जठराग्नि’ भी कहते हैं । भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं,

अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ।।
– श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १५, श्लोक १४

अर्थ : हे अर्जुन, मैं ‘वैश्वानर’ अग्नि बनकर प्राणियों की देहों में वास करता हूं । मैं प्राण एवं अपान से युक्त (वैश्वानर अग्नि) ४ प्रकार के अन्न का पाचन करता हूं । (अन्न के ४ प्रकार बताए गए हैं – चबाकर खाने योग्य, चखकर खाने योग्य, निगलने योग्य तथा पीने योग्य ।)

२. जाठरो भगवान् अग्निः ईश्वरोऽन्नस्य पाचकः ।
– सुश्रुतसंहिता, सूत्रस्थान, अध्याय ३५, श्लोक २७
अर्थ : जठराग्नि प्रत्यक्ष भगवान का रूप है तथा उसके रूप में ईश्वर ही देह के अन्न का पाचन करते हैं । शरीर में अग्निरूप से भगवान ही वास करते हैं; इसलिए भोजन केवल ‘उदरभरण’ नहीं, अपितु वह ‘यज्ञकर्म’ है ।

३. आयु एवं स्वास्थ्य का देह में विद्यमान अग्नि पर ही निर्भर होना ! :

आयुर्वर्णाे बलं स्वास्थ्यम् उत्साहोपचयौ प्रभा ।
ओजस्तेजोऽग्नयः प्राणाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः ।।
शान्तेऽग्नौ म्रियते युक्ते चिरं जीवत्यनामयः ।
रोगी स्याद् विकृते मूलम् अग्निस्तस्मात् निरुच्यते ।।
– चरकसंहिता, चिकित्सास्थान, अध्याय १५, श्लोक ३ एवं ४

अर्थ : आयु; शरीर का वर्ण; बल; स्वास्थ्य; उत्साह; उपचय (पुष्टि); कांति; ओज; तेज; शरीर में विद्यमान पंचमहाभूतों की ५ भूताग्नि; रस, रक्त आदि ७ धातुओं में स्थित (शरीर घटकों में से) ७ धात्वग्नि तथा प्राण देह में स्थित अग्नि पर (पाचन शक्ति पर) निर्भर हैं । देह में विद्यमान अग्नि शांत होते ही मृत्यु आ जाती है । अग्नि को यदि संतुलित रखा गया, तो दीर्घायु एवं स्वास्थ्य लाभ होता है । अग्नि विकृत अथवा दूषित हुई, तो उससे विकार उत्पन्न होते हैं । इसलिए ऋषि कहते हैं, ‘अग्नि देह का मूल है ।’

४. देह में विद्यमान अग्नि की रक्षा होकर स्वास्थ लाभ होने के लिए करने आवश्यक ४ मूलभूत कृत्य ! :

अ. शीघ्र सोएं, शीघ्र जाग जाएं तथा दोपहर को सोना टालें !

आ. मल-मूत्रादिकों के आवेग (प्रवृत्ति) न रोकें !

इ. शरीर में विद्यमान रोगकारक त्रिदोष नष्ट करने हेतु व्यायाम करें !

ई. आहार के ४ मूलभूत नियमों का पालन करें ! ये नियम निम्नानुसार हैं –

१. उचित समय पर भोजन करें !
२. उचित मात्रा में भोजन करें !
३. आवश्यक उतना ही पानी पीएं !
४. स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो, तो उस समय दूध और उससे बने पदार्थाें का सेवन करना टालें !

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ – आयुर्वेदानुसार आचरण कर बिना औषधियों के स्वस्थ रहिए !)