मनमाने और बिना सोचे-समझे बंदी बनाना औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाती हैं ! – सर्वोच्च न्यायालय

नई देहली – मनमाने और बिना सोचे-समझे बंदी बनाना औपनिवेशिक मानसिकता को दर्शाती हैं । ऐसा लगता है कि, ‘हम एक पुलिस राज्य में रह रहे हैं’, ऐसे शब्दों में, सर्वोच्च न्यायालय ने अभिरक्षा में आरोपियों की संख्या पर चिंता व्यक्त की (उन आरोपियों पर अभी प्रकरण चलाया जाना शेष है) । आरोपियों को अनावश्यक बंदी बनाने के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को इस संबंध में कानून बनाने का भी निर्देश दिया ।

आरोपियों की प्रतिभूति (जमानत) पत्र पर २ सप्ताह में निर्णय लें !

न्यायालय ने विधान बनवाने की सलाह देते हुए कहा कि, ‘आरोपी के नियमित प्रतिभूती (जमानत) के पत्र पर २ सप्ताह के भीतर तथा अंतरिम आवेदन पर ६ सप्ताह के भीतर निर्णय लिया जाए । राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को किसी को भी बंदी बनाने से पूर्व भारतीय दंड संहिता की धारा ४१ और ४१ ए का पालन करने का निर्देश दिया गया है ।

आरोपी को बंदी बनाते समय कारण लिखे पुलिस !

न्यायालय ने कहा कि, भारत के कारागृह विचाराधीन बंदियों से भरें हैं । हमारे पास होनेवाले आंकडों के अनुसार ऐसे बंदियों की संख्या बहुत अधिक है । इसमें गरीब और अनपढ महिलाएं सम्मिलित हैं । आरोपी को बंदी बनाने का कारण लिखना पुलिस अधिकारी का कर्तव्य है ; हालांकि, जांच तंत्र न्यायालय के आदेशों का पालन नहीं करता है । जो बंदी प्रतिभूति के नियमों को पूर्ण नहीं करते, उनकी सूची बनाएं । सर्वोच्च न्यायालय ने सभी उच्च न्यायालयों को निर्देश दिया है कि ऐसे बंदियों की प्रतिभूति पर रुकी हुई मुक्ति प्रक्रिया को सुलझाने के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएं । केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा एक व्यक्ति की बंदी पर सुनवाई के दौरान न्यायालय ने यह निर्देश जारी किया ।