कृतज्ञताभाव में रहने से निराशा न आकर मन आनंदित होकर साधना और अधिक अच्छे ढंग से की जा सकेगी !

साधक स्वभावदोषों की सारणी लिखते हैं । ये स्वभावदोष दूर हों; इसके लिए वे स्वसूचनाएं देते हैं । साधकों ने केवल इतना ही किया होता, तो वह उचित हो जाता; परंतु अनेक साधक दिनभर इन स्वभावदोषों का स्मरण करते हैं और दुखी हो जाते हैं । कुछ साधक अन्य साधकों के गुणों के साथ अथवा उनकी प्रगति के साथ अपनी तुलना कर यह विचार कर दुख करते रहते हैं कि ‘हम उनसे पिछड गए हैं ।’ उनके ध्यान में यह नहीं आता कि ‘प्रतिमाह १० सहस्र, ५० सहस्र अथवा १ लाख रुपए कमानेवाले अपनी अपेक्षा में अधिक कमाई करनेवालों से स्वयं की तुलना करने लगे, तो वे सदैव ही दुखी रहेंगे । उसके स्थान पर १० सहस्र रुपए कमानेवाले ने ‘मैं किसी बेरोजगार व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सुखी हूं’, ‘५० सहस्र रुपए कमानेवाले ने ‘मैं १० सहस्र रुपए कमानेवाले की अपेक्षा अधिक सुखी हूं’ और १ लाख कमानेवाले ने ‘मैं ५० सहस्र रुपए कमानेवाले की अपेक्षा अधिक सुखी हूं’, इस प्रकार से विचार किया, तो वे दुखी न होकर आनंदित रहेंगे ।

साधकों के यह ध्यान में नहीं आता कि भगवान ने उन्हें मनुष्य जन्म प्रदान किया है, उनमें साधना की रुचि उत्पन्न की है, उन्हें साधना में मार्गदर्शन मिल रहा है और साधना में उनकी प्रगति भी हो रही है । इसका स्मरण किया, तो ‘पृथ्वी के अधिकांश मनुष्यों की तुलना में हम कितने सौभाग्यशाली हैं’, यह ध्यान में आकर उनके मन में भगवान के प्रति निरंतर कृतज्ञभाव उत्पन्न होगा । स्वसूचना सत्रों के समय दोषों का स्मरण करना और उन्हें दूर करना उचित है । अन्य समय में दिनभर भावपूर्ण नामजप करना चाहिए अथवा कृतज्ञभाव में रहना चाहिए । ‘जहां भाव, वहां भगवान’ होने के कारण उस समय मन को आनंद भी मिलता है ।

मेरे इस उदाहरण से कृतज्ञभाव में रहने से समझ में आएगा कि ‘सेवा करना कैसे संभव होता है ? और मन को कैसे आनंद मिलता है ?’ पहले मैं सर्वत्र सत्संग, अभ्यासवर्ग, सार्वजनिक सभाएं इत्यादि के लिए बाहर जाता था । अब मैं बाहर कहीं नहीं जा सकता; परंतु तब भी भगवान ने मुझसे जो विभिन्न कार्य करवा लिए हैं, उनके स्मरणमात्र से ही मुझे आनंद के साथ कृतज्ञभाव में रहना संभव होता है, साथ ही कक्ष में बैठकर दिन-रात ग्रंथलेखन की सेवा आनंद के साथ करना संभव होता है ।’

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

साधकों, साधना में प्रगति होने के लिए कृतज्ञभाव में रहें !

साधकों को साधना में भले ही प्रगति करना संभव न होता हो और स्वभावदोषों और अहं पर विजय प्राप्त करना संभव न होता हो; तब भी उन्हें बताया जाता है, ‘आप भावजागृति के लिए प्रयास कीजिए । भाव जागृत हुआ, तो साधना में उत्पन्न अनेक बाधाएं दूर होंगी और आपकी प्रगति होगी ।’ उसके लिए उन्हें ‘भावजागृतिके लिए साधना’ ग्रंथ के अनुसार प्रयास करने के लिए कहा जाता है । वह भी अनेक साधकों को संभव नहीं होता । ऐसे साधकों ने निम्नांकित पद्धति से प्रयास किए, तब भी उनका भाव जागृत होने में सहायता मिलेगी ।

‘हम अकेले नहीं रह सकते’, इसे ध्यान में लेकर परिजन हमारा जो ध्यान रखते हैं, वे हम पर जो प्रेम करते हैं, अन्य लोग जो हमारी सहायता करते हैं, साथ ही भगवान द्वारा हमें जो जीवन प्रदान किया गया हैै इत्यादि बातों का हमने कदम-कदम पर स्मरण किया, तो केवल ५-६ सप्ताह में ही हममें कृतज्ञभाव उत्पन्न होना आरंभ होता है । आगे जाकर वह बढता जाता है । उसके कारण साधना में प्रगति होने लगती है ।

– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘भावके प्रकार एवं जागृति’)

गुरुदेवजी का असीम त्याग साधकों की आध्यात्मिक यात्रा की नींव होना

‘गुरुदेवजी, आपने इतना त्याग नहीं किया होता, तो हम साधक देवत्व की दिशा में छोटे-छोटे कदम कैसे उठा सकते थे ? केवल आपके कारण और आपके असीम त्याग के कारण ही हम साधना में प्रगति का स्तर प्राप्त करना हमें संभव हो रहा है । ‘आप अपनी प्रत्येक सांस और आपके शरीर की प्रत्येक कोशिका का अखिल मनुष्यजाति के लिए किस प्रकार खर्च कर रहे हैं, यह साधक विगत अनेक वर्षाें से देख रहे हैं ।’ हे गुरुवर, हम सभी साधक आदरपूर्वक आपके चरणों में वंदन करते हैं । हमने हमारा घर-बार छोडा और त्याग किया; इसलिए आप हमारी प्रशंसा करते हैं; परंतु हमारा संपूर्ण भार किसके कंधे पर है ? हमारे साधना के प्रयासों को किसका साथ है ? केवल आपका और आप ही का है ! आपने साधकों के लिए विभिन्न स्थानों पर आश्रमों का निर्माण किया और उन आश्रमों से हमारे लिए आवास, अन्न और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराई । उसके कारण संपूर्ण विश्व के साधक आत्मविश्वास के साथ पूर्णकालिन साधना करने का निर्णय ले सकते हैं । आपका त्याग ही हमारी आध्यात्मिक यात्रा की नींव है ।’ – श्रीमती श्वेता क्लार्क, फार्मागुडी, फोंडा, गोवा. (१७.५.२०१७)