‘मीडिया ट्रायल’ और उसके समाज, पुलिस और न्यायतंत्र पर होनेवाले दुष्परिणाम !

मीडिया ट्रायल अर्थात न्यायालय के निर्णय से पूर्व ही माध्यमों द्वारा स्वयं ही किसी को दोषी ठहराना !

१. ‘मिडिया ट्रायल’ क्या होता है ?

‘मीडिया ट्रायल’ को समझ लेने से पूर्व A‘ट्रायल’ क्या होता है ?, इसे जान लेना आवश्यक है । ‘ट्रायल’ का अर्थ है संदिग्ध आरोपी व्यक्ति के विरोध के सभी साक्ष और प्रमाणों को न्यायाधीश के सामने प्रस्तुत कर वह व्यक्ति कैसे दोषी है, इसे ‘प्रॉसिक्युशन’ (फरियादी पक्ष द्वारा) प्रमाणित किया जाना और यह करते समय आरोपी को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देना, साथ ही किसी भी निर्णय तक आने से पूर्व संदिग्ध व्यक्ति को निर्दोष मानना ! ‘क्रिमिनल ट्रायल’ में (आपराधिक अभियोगों में) न्यायाधीश उनके सामने प्रस्तुत किए गए साक्षी-प्रमाणों के आधार पर प्रकरण के विषय में निर्णय देते हैं ।

माध्यम (पत्रकारिता) तो लोकतंत्र के ४ मूलभूत स्तंभों में से एक हैं । लोकतंत्र को बनाए रखने में इन माध्यमों का अनन्यसाधारण महत्त्व है । लोगों के मत बनाना, मतों को बदलना, किसी विशिष्ट विषय पर चर्चा करवाना और उस विषय को समाज के सामने लाना; इन में ये माध्यम महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । आज के समय में व्यावसायिक स्तर पर २४ घंटे समाचार देनेवाली अनेक समाचार वाहिनियां हैं । उनके मध्य ‘टी.आर.पी’. के लिए चलनेवाली प्रतियोगिता के कारण उनके द्वारा दिखाया जानेवाला प्रत्येक विषय विश्वसनीय होगा ही ऐसा नहीं है ।

२. अपराधियों को लाभ मिलने की संभावना होना

सर्वसामान्यरूप से जिन अपराधों में कोई बडा वलयांकित व्यक्ति आरोपी होता है अथवा कोई अपराध अत्यंत क्रूरतापूर्ण किया गया हो, तो उनके विषय में माध्यमों में समाचार बार-बार चलाए जाते रहते हैं । दर्शकों को भी ऐसे ही ‘हाई प्रोफाइल’ (उच्चवर्गीय) प्रकरणों के विषय में जान लेने में रुचि होती है । अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत का आत्महत्या का प्रकरण केंद्रीय अन्वेषण विभाग के (सीबीआई के) पास जाने से पूर्व सभी इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने जिस प्र्र्र्र्रखरता से इस विषय को चलाए रखा और समाज में उस विषय में जागृति की, उसे ‘मीडिया ट्रायल’ नहीं कहा जा सकता । इसका कारण यह है कि माध्यमों ने इस प्रकरण की अनेक बारिकियां सामने लाईं और उसमें पुलिस को तुरंत प्राथमिकी (एफ.आई.आर.) पंजीकृत करना आवश्यक था, यह सूत्र सामने आया । इस प्रकरण में माध्यमों ने लोकतंत्र के एक स्तंभ के रूप में अपनी भूमिका निभाई । अनेक बार ये माध्यम ‘सबसे तेज’, ‘सबसे पहले’ ‘एक्स्क्लुजिव’ समाचार देने के चक्कर में ऐसी कुछ चूकें करते हैं कि उसका लाभ अपराधी को मिलता है । हमने समय-समय पर इसके अनेक उदाहरण देखे हैं । उनमें से एक था मुंबई का २६/११ का आतंकी आक्रमण !

३. ‘मीडिया ट्रायल’ का न्यायालय में चलनेवाले ‘ट्रायल’ पर (सुनवाई पर) बडे स्तर पर परिणाम होना

‘मीडिया ट्रायल’ का न्यायालय में चलनेवाले ‘ट्रायल’ पर बडे स्तर पर परिणाम हो सकता है । किसी अपराध के विषय में किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी होने पर माध्यमों में यदि उनके छायाचित्र अथवा वीडियो प्रसारित हुए, तो वह आरोपी न्यायालय में इस प्रकार से अपना बचाव कर सकता है कि ‘माध्यमों में छायाचित्र प्रकाशित होने से साक्षियों ने उसे पहचान लिया है ।’ और ऐसे प्रकरणों में पहचान परेड हुई, तो आरोपी को संदेह का लाभ मिल सकता है ।

४. किसी प्रकरण में अतिउत्साह के आवेश में जानकारी देने से उससे न्यायालयीन प्रक्रिया प्रभावित होने की संभावना होना

अनेक बार महत्त्वपूर्ण प्रकरणों से संबंधित साक्षियों, पुलिस अधिकारी और अन्य व्यक्ति अतिउत्साह में आकर माध्यमों को अनचाही जानकारी दे बैठते हैं । ऐसे समय में विभिन्न समाचार वाहिनियों में दी गई जानकारी और न्यायालय में दी गई साक्ष में अंतर आ गया, तो आरोपी उस बात से न्यायालय को अवगत कराता है और ‘वह व्यक्ति एक तो न्यायालय में अथवा समाचार वाहिनी पर झूठ बोल रहा था’, ऐसा बचाव कर सकता है । अर्थात इसका लाभ आरोपी को मिल सकता है । गुजरात में हुए ‘बेस्ट बेकरी’ प्रकरण में मुख्य साक्षी जहिरा शेख ने माध्यमों के साथ बोलते हुए अलग बोला और न्यायालय में साक्ष देते समय कुछ अलग ही बोला । तब न्यायालय ने समय-समय पर अपनी साक्ष बदलने के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने उसे १ वर्ष का दंड सुनाया था । सामान्य रूप से दोषपत्र प्रविष्ट होने पर ही आरोपी को अन्वेषण के समय पुलिस द्वारा प्राप्त किए गए कागदपत्र देखने को मिलते हैं; परंतु माध्यमों से यदि उससे पहले ही कुछ कागदपत्र दिखाए गए, तो उससे बचने के लिए आरोपी कोई योजना बना सकता है ।

५. माध्यमों की ‘मीडिया ट्रायल’ के कारण सभी स्तरों पर दबाव बनने की संभावना होना

ऐसी ‘मीडिया ट्रायल’ के कारण समाजमानस किसी आरोपी के विरोध में गया और लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए, तो उससे अन्वेषण करनेवाले अधिकारियों, साक्षी, सरकारी अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों पर दबाव आ सकता है । साक्षियों को न्यायालय के कान और आंखे समझा जाता है । ‘मीडिया ट्रायल’ के कारण ऐसे साक्षियों की पहचान उजागर हुई, तो उससे उसकी सुरक्षा का प्रश्न उठ सकता है । उसके कारण वह न्यायालय में सत्य बताने से विन्मुख होने की संभावना होती है । सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार ‘बलात्कार पीडित महिला और यौन शोषण के अपराधों के शिकार हुए बालकों के विषय में उनकी व्यक्तिगत जानकारी उजागर हो सकेगी’, ऐसी किसी भी बात को माध्यमों में प्रसारित न करने का नियम है । ऐसा होते हुए भी अनेक बार माध्यमों ने ऐसी जानकारी खुलेआम उजागर की है । इसके कारण भविष्य में अपराध पंजीकृत करते समय पीडित महिला उससे बचने का मन बना सकती है ।

६. माध्यमों ने संतुलन बनाकर वार्तांकन किया, तो उससे निर्दाेष लोगों और अपराधियों को उचित न्याय मिलेगा !

‘मीडिया ट्रायल’ का इतिहास देखते हुए ऐसा ध्यान में आता है कि अनेक प्रकरणों में ‘मीडिया ट्रायल’ के माध्यम से किसी व्यक्ति को दोषी घोषित किया जाता है; परंतु कालांतर से न्यायालय में चली सुनवाई में वह व्यक्ति निर्दोष प्रमाणित होता है । ऐसे ‘ट्रायल’ के कारण उस निर्दाेष व्यक्ति ने जो गंवाया होता है, उसे वह वापस नहीं ला सकता । अनेक बार ऐसा भी ध्यान में आया है कि ‘मीडिया ट्रायल’ के कारण कुछ आरोपियों को अधिक लाभ मिला है, प्रायः उसके कारण ही वे निर्दाेष मुक्त हुए हैं । इसलिए प्रसारमाध्यमों ने संविधान के द्वारा उन्हें प्राप्त अधिकारों का उपयोग करते समय कर्तव्य का उचित भान रखते हुए संतुलन रखा, तो एक भी निर्दाेष व्यक्ति दंडित नहीं होगा और एक भी दोषी नहीं छूट पाएगा ।’

– अधिवक्ता प्रकाश साळसिंगीकर, विशेष सरकारी अधिवक्ता, मुंबई (२१.४.२०२२)