रासायनिक अथवा जैविक कृषि नहीं, अपितु प्राकृतिक कृषि अपनाइए ! (भाग २)

सनातन का ‘घर-घर रोपण’ अभियान

लेखांक ११

आचार्य देवव्रत

६.१२.२०२१ को आणंद, गुजरात में प्राकृतिक कृषि के विषय पर राष्ट्रीय परिषद संपन्न हुई । इस परिषद में गुजरात के मा. राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने प्राकृतिक कृषि पर अपने अनुभवकथन किए । लेख के पहले भाग में आचार्य देवव्रत रासायनिक एवं जैविक कृषि पद्धतियों से प्राकृतिक कृषि की ओर कैसे मुडे, इसके साथ ही रासायनिक कृषि करने से उनकी बटाई पर दी हुई १०० एकड भूमि कैसे बंजर हो गई, यह देखा । अब इसका अगला भाग इस लेख में देखेंगे ! (भाग २)

१०. आचार्य देवव्रत द्वारा कृषि शास्त्रज्ञों का खर्चीला एवं समय खानेवाले पर्याय अस्वीकार कर, प्राकृतिक पद्धति से भूमि पुन: उपजाऊ करने का निश्चय

मैंने (आचार्य देवव्रत) डॉ. हरी ओम से पूछा, ‘‘अब मैं क्या करूं ?’’ इस पर उन्होंने आगे दिया उपाय सुझाया । ‘अमुक मात्रा में यूरिया, डीएपी, फॉस्फरस, जिंक, पोटैश जैसे रासायनिक द्रव्यों के साथ ही हरी खाद मिट्टी में मिलाएं । इस प्रकार नियमित करें । फिर अगले २० से ३० वर्षाें में तुम्हारी भूमि धीरे-धीरे उपजाऊ होती जाएगी ।’ इतने दीर्घ काल का प्रकल्प ! मेरी १०० एकड भूमि बंजर (अनुपजाऊ) हो गई थी । मैंने कहा, ‘‘डॉक्टर, आपने जो सूची बनाई है, वही सब डालने से ही तो भूमि बंजर हो गई है । अब आप वही सब मुझे करने के लिए बता रहे हैं !’’ वे बोले, ‘‘आप और क्या करेंगे ?’’ मैंने कहा, ‘‘शेष भूमि पर मैं जो ‘प्राकृतिक खेती’ करता हूं, वही करूंगा ।’’ तब तक उन्हें इस प्राकृतिक खेती के विषय में जानकारी नहीं थी । वे बोले, ‘‘गोबर और गोमूत्र से क्या होगा ?’’ मैंने कहा, ‘‘मैं करके देखता हूं । कुछ भी नहीं हुआ, तो पुन: आपके पास आऊंगा ।’’

११. बंजर भूमि पर भी जीवामृत के उपयोग से पहले वर्ष से ही काफी अच्छी उपज होना

१५.४.२०१७ को किसानों ने मेरी १०० एकड भूमि छोड दी थी । उसमें कुछ भी उर्वरता शेष नहीं थी । १५.६.२०१७ को मैंने एक एकड भूमि में ५ क्विंटल घनजीवामृत डालकर धान लगाया (चावल की खेती की) । हर बार पानी के साथ जीवामृत दिया और उसपर छिडकाव भी किया । २ माह में धान की खेती बढने लगी और जब उसकी कटाई हुई, तब धान के एक एकड में २६ से २८ क्विंटल उपज हुई । इसे मैंने डॉ. हरि ओम को दिखाया । वे चकित हो गए और बोले, ‘‘यह कैसे संभव है ? जैविक कर्ब अत्यल्पवाली भूमि, अर्थात अनुपजाऊ बंजर भूमि में इतनी उत्पन्न ?’’ वे चले गए । मैंने अगले वर्ष भी यही किया । इस बार भी जीवामृत एवं घनजीवामृत का उपयोग जारी रखा । इस बार इसी खेत में लगभग ३२ क्विंटल धान (चावल) की उत्पन्न हुई ।

१२. जीवामृत के उपयोग से भूमि की जैविक कर्ब की मात्रा काफी बढी देख कृषि वैज्ञानिक भी आश्चर्यचकित होना

जब ३२ कुंटल धान की उत्पन्न हुई, तब डॉ. हरी ओम को विश्वास ही नहीं हो रहा था ! वे बोले, ‘‘यह तो चमत्कार है ! यह अनाकलनीय है । मैंने अब तक कृषिशास्त्र का जो अध्ययन किया है, उसके अनुसार ऐसा हो ही नहीं सकता । अब मैं अपने शास्त्रज्ञों को बुलाकर तुम्हारी भूमि की पुन: जांच करवाकर देखूंगा ।’’ उन्होंने पुन: उस भूमि के सैकडों नमूने लिए और विद्यापीठ को भेजे । रिपोर्ट आई । एक ही वर्ष के उपरांत मेरी भूमि की जैविक कर्ब की (कार्बन की) मात्रा ०.३ से ०.८ तक बढ गई थी । जब यह ब्योरा सामने आया, तब वे पहले से भी अधिक आश्चर्यचकित हो गए । वे बोले, ‘‘रासायनिक खेती में जैविक कर्ब एक वर्ष में इतनी बढ ही नहीं सकती ! विश्व का कोई भी शास्त्रज्ञ यह मान्य ही नहीं करेगा कि ‘एक वर्ष में जैविक कर्ब की (कार्बन की) मात्रा ०.३ से ०.८ तक बढ गई है ।’ यह वास्तव में आश्चर्य है !’’

१३. मित्र कीटकों को नष्ट करनेवाली रासायनिक खेती

रसायनशास्त्र के शास्त्रज्ञ यह सत्य मान्य ही नहीं करेंगे । जैविक कर्ब बढाने का काम खेत के जीवाणु, केंचुए एवं मित्र कीटक करते हैं । रासायनिक खेती के कारण ये जीवाणु मारे जाते हैं । फिर जैविक कर्ब कैसे बढेगा ?

१४. एक ग्राम में ३०० करोड से भी अधिक खेती के लिए उपयुक्त सूक्ष्म जीवाणु युक्त देशी गाय का गोबर किसानों के लिए वरदान !

डॉ. हरी ओम ने डॉ. बलजीत सारंग को इस पर अध्ययन में साथ लिया । वर्तमान में डॉ. बलजीत सारंग हिस्सार कृषि विद्यापीठ, हरियाणा में सूक्ष्म जीव विज्ञान के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं । उन्होंने अनेक वर्ष अमेरिका, इंग्लैंड एवं जर्मनी में सूक्ष्म जीव विज्ञान के शास्त्रों के साथ काम किया है । वे उनके सहयोगियों के साथ मेरे गुरुकुल में आए और उन्होंने जीवामृत पर शोधकार्य किया । उन्होंने देशी गाय, भैंस के साथ-साथ ‘जर्सी’ एवं ‘होल्स्टीन फ्रीजियन’ इन विदेशी गायों के गोबर के भी नमूने लिए । सभी पर अनेक महीने अलग-अलग शोध किया, जिसमें उन्होंने पाया कि देशी गाय के १ ग्राम गोबर में खेती के लिए उपयुक्त ऐसे ३०० करोड से भी अधिक सूक्ष्म जीवाणु होते हैं । साहिवाल, थारपारकर, राठी, गीर, हरियाणवी, लाल सिंधी, कांकरेज, ओंगल आदि सभी भारतीय वंश के गायों के गोबर की गुणवत्ता लगभग एक समान ही होती है; परंतु विदेशी वंश की गाय और भैंस के गोबर में इतनी बडी मात्रा में खेती के लिए उपयुक्त जीवाणु नहीं होते । ‘देशी गाय का मूत्र तो खनिजों का भंडार है’, ऐसा भी उन्होंने शोध में पाया । पाळेकर गुरुजी ने ऐसा शोध अनेक बार किया है । इसलिए एक संपूर्ण सत्य जगत के सामने उजागर हुआ है ।

१५. जीवामृत बनाने की पद्धति एवं उसका अध्यात्मशास्त्र

एक एकड खेती के लिए लगनेवाला जीवामृत बनाने के लिए २०० लीटर का ड्रम लें । ड्रम छाया में रखकर उसमें लगभग १८० लीटर पानी भरें । उसमें डेढ से २ किलो गुड, किसी भी दाल का डेढ से २ किलो आटा, १ मुट्ठी मिट्टी, देसी गाय का १० किलो गोबर, इसके साथ ही देसी गाय का १० लीटर मूत्र, यह सब मिलाकर उस पानी में डाल दें । विचार करें, १ ग्राम गोबर में ३०० करोड जीवाणु होते हैं, तो १० किलो गोबर में कितने जीवाणु होंगे ! इन जीवाणुओं को दाल के आटे के रूप में प्रथिन (protein) मिलती है । इससे वे बलवान होते हैं । गुड के कारण उन्हें ऊर्जा मिलती है और उनकी संख्या बढती जाती है । मिट्टी में विद्यमान जीवाणुओं से संपर्क में आने पर वे इतने बढ जाते हैं कि प्रति २० मिनट में उनकी संख्या दुगुनी हो जाती है । ७२ घंटों में उनकी मात्रा असंख्य हो जाती है और १ एकड भूमि के लिए खाद तैयार हो जाती है ।

साधकों को सूचना और पाठकों से अनुरोध !

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‘रोपण’ एक प्रायोगिक विषय है । इसमें छोटे-छोटे अनुभवों का भी बहुत महत्त्व होता है । जो साधक अब तक बागवानी करते आए हैं, वे बागवानी के अपने अनुभव, उनसे हुई चूकें, उन चूकों से सीखने के लिए मिले सूत्र, बागवानी संबंधी किए विशिष्ट प्रयोगों के विषय में लेखन अपने छायाचित्र सहित भेजें । यह लेखन दैनिक द्वारा प्रकाशित किया जाएगा । इससे औरों को भी सीखने के लिए मिलेगा ।

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