विवाहसंस्कार शास्त्र एवं वर्तमान अनुचित प्रथाएं

१. विवाह का अर्थ

     वधू को पिता के घर से अपने घर ले जाना अर्थात ‘विवाह’ अथवा ‘उद्वाह’ है । विवाह अर्थात पाणिग्रहण, अर्थात वर द्वारा स्त्री को अपनी पत्नी बनाने के लिए उसका हाथ पकडना । पुरुष स्त्री का हाथ पकडता है; इसलिए विवाह उपरांत स्त्री पुरुष के घर जाए । पुरुष का स्त्री के घर जाना अनुचित है ।

२. विवाहसंस्कार का महत्त्व

अ. हिन्दू धर्म में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थों का उल्लेख किया गया है । इनमें ‘काम’ नाम का पुरुषार्थ साध्य कर क्रमशः ‘मोक्ष’ पुरुषार्थ की ओर जाना संभव हो, इस हेतु विवाहसंस्कार की व्यवस्था की गई है ।

आ. स्त्री-पुरुष के जीवन की अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाएं विवाह से संबंधित होती हैं; उदा. स्त्री-पुरुष का प्रेम, शारीरिक संबंध, संतान, जीवन के अन्य सुख, समाज में स्थान तथा जीवन में प्रगति ।

इ. विवाहित स्त्री के विषय में समाज में आदर का स्थान बनना और समाजव्यवस्था उत्तम रहने में सहायता होना : ‘विवाहित स्त्री को माथे पर टीका, गले में मंगलसूत्र, हाथों में हरी कांच की चूडियां, पैरों में बिछिया और छः या नौ गज की साडी पहने हुए देखकर व्यक्ति के मन में अपनेआप उसके प्रति आदर की भावना उत्पन्न होती है ।

     विवाहित स्त्री को पत्नी, बहू, चाची, देवरानी आदि नातों के कारण समाज में आदर का स्थान अपनेआप ही प्राप्त होता है । परस्त्री की ओर माता की दृष्टि से आदरपूर्वक देखने पर समाजव्यवस्था को उत्तम बनाए रखने में सहायता मिलती है । अविवाहित युवतियां ऐसी स्त्री को अपना आदर्श मान सकती हैं ।’ – कु. मधुरा भोसले, १८.११.२००५, दोपहर ३.३०

विवाह निश्चित करते समय जन्मकुंडलियां देखना

     विवाह निश्चित करने से पूर्व भावी वर-वधू की जन्मकुंडलियों का मिलान करना उचित होता है । इसके लिए दोनों की जन्मपत्रिकाएं उचित होनी चाहिए तथा उन्हें बनानेवाला व्यक्ति भी उस कार्य में ज्ञानी होना चाहिए ।

सीमा

     जन्मकुंडलियों के अनुसार ३६ गुण मिलने पर भी सामान्यतः पति-पत्नी में तथा सामान्य व्यक्तियों में परस्पर मेल १० प्रतिशत ही होता है । यहां यह ध्यान रखना चाहिए कि वर्तमान युग में जन्मकुंडली पर आधारित राशिफल साधारणतः ३५ प्रतिशत ही सत्य होते हैं ।

विवाहदिन और विवाह मुहूर्त निश्चित करना

     पुरोहित से पूछकर विवाह हेतु योग्य शुभदिन निश्चित करें । शास्त्रानुसार इस दिन प्रातः ४ से सायंकाल ५ बजे तक की कालावधि में विवाह समारोह आयोजित कर दिनभर में संबंधित सर्व विधियां पूर्ण करना उचित है ।

मुहूर्त का महत्त्व

     मुहूर्त पर विवाह होना महत्त्वपूर्ण होता है । इसलिए कि मुहूर्त के समय वर-वधू को देवताओं से शुभाशीर्वाद मिलने की मात्रा अधिक होती है । वर-वधू का वैवाहिक जीवन सुखी होने के लिए मुहूर्त का पालन करना आवश्यक होता है ।

मंगलसूत्रबंधन

     मंगलसूत्र का ‘मंगल’ शब्द शुभ काम्यवाचक (शुभकामना सूचक) और ‘सूत्र’ शब्द बंधनात्मक है ।

मंगलसूत्र का भावार्थ

     मंगलसूत्र को संस्कृत में ‘मांगल्यतंतु’ भी कहते हैं । इसमें दो-सूत्री धागे में काले मणि पिरोए जाते हैं । मध्यभाग में ४ छोटे मणि एवं २ छोटी कटोरियां होती हैं । मंगलसूत्र के दो धागे अर्थात पति-पत्नी का बंधन, ४ मणि अर्थात पुरुषार्थ चतुष्टय अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष और २ कटोरियां अर्थात शिव-शक्ति के प्रतीक । कर्म को शिव एवं शक्ति की जोड मिलने पर ही वह फलदायी होती है ।

     २ कटोरियों को पिरोनेवाली तार, धर्म द्वारा नववधू को ससुराल की कुलदेवी की उपासना करने के लिए दी गई अनुमति का द्योतक है ।

मंगलसूत्र का महत्त्व

अ. ईश्वरीय तत्त्व सर्वाधिक मात्रा में आकृष्ट करनेवाला अलंकार है, मंगलसूत्र ।

आ. मंगलसूत्रादि सौभाग्य अलंकार अर्थात स्त्री को उसकी पतिव्रता का बोध करानेवाला तथा उसकी अनिष्ट शक्तियों से रक्षा करनेवाला साधन है ।

सप्तपदी

     इस विधि का अर्थ है, ‘वधू एवं वर द्वारा गत सात जन्मों के सर्व संस्कार पीछे छोडकर एक-दूसरे के लिए पूरक वैवाहिक जीवन प्रारंभ करना ।’ शास्त्रवचन है कि ‘सात कदम साथ चलने पर मित्रता होती है ।’ इसीलिए विवाह संस्कार में सप्तपदी का विशेष महत्त्व है । वर को वधू का हाथ पकडकर होमकुंड के उत्तर में रखी चावल की सातों राशियों पर चलाते हुए ले जाने के कृत्य को ‘सप्तपदी’ कहते हैं । वर-वधू एक-एक पग आगे बढाते हैं, तब पुरोहित उनके प्रत्येक बढते पग के साथ मंत्र पढते हैं । ‘सप्तपदी’ सप्तलोकों से एवं सप्तकोषों से एक साथ छूटने हेतु उठाए जानेवाले पग हैं । निर्बंध की (कानून की) दृष्टि से सप्तपदी पूर्ण होने पर ही विवाह पूर्ण हुआ माना जाता है ।