अयोध्या, काशी एवं मथुरा में मंदिरों की मुक्ति के लिए हो रही न्यायालयीन लडाई !

     सरदार वल्लभभाई पटेल की १४६ वीं जयंती के निमित्त ‘उत्तिष्ठ भारतीय संस्था’ की ओर से ३१ अक्टूबर २०२१ को भाग्यनगर (तेलंगाना) की राजधानी हॉटेल में ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ कार्यक्रम का आयोजन किया गया था । इस अवसर पर ‘हिन्दू फ्रंट फॉर जस्टिस’ के प्रवक्ता एवं सर्वाेच्च न्यायालय के धर्माभिमानी अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन ने अयोध्या के श्रीराममंदिर, वक्फ अधिनियम १९९५, प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट १९९१ (इस कानून के अनुसार १५ अगस्त १९४७ से १९९१ तक धार्मिक स्थलों के विषय में न्यायालयों में जो अभियोग चल रहे हैं, वे सीधे-सीधे बंद कर दिए जाएंगे), काशी विश्वनाथ मंदिर मुक्ति संग्राम, मथुरा का श्रीकृष्ण जन्मभूमि मुक्ति संग्राम इस विषय में मार्गदर्शन किया । इस मार्गदर्शन का चुनिंदा भाग आगे दे रहे हैं । (पूर्वार्ध)

अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन

१. पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी के इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट करने पर न्यायालय द्वारा श्रीराम मंदिर भक्तों के लिए खोलने का आदेश देना

     ६ दिसंबर १९९२ को बाबरी मस्जिद उद्ध्वस्त हुई । उसी दिन अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन की दादी (पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैन की माताश्री का) निधन हुआ । सभी क्रियाकर्म करने के पश्चात १३ दिनों में, अर्थात २० दिसंबर १९९२ को पू. (अधिवक्ता) हरि शंकर जैनजी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका प्रविष्ट की । याचिका में मांग की गई कि ‘भगवान श्रीराम के दर्शन करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है । इसलिए बंद हुए दर्शन श्रद्धालुओं के लिए खोले जाएं ।’ इस प्रकरण में १० दिन निरंतर युक्तिवाद हुआ । न्यायालय ने १ जनवरी १९९३ को ‘भगवान श्रीराम संवैधानिक (legalperson) पुरुष होने से उनके भक्तों के लिए तुरंत मंदिर खोला जाए’, ऐसा ऐतिहासिक निर्णय दिया । उस दिन यदि यह याचिका प्रविष्ट नहीं की गई होती और हमें यह निर्णय न मिला होता, तो आज हमारे पक्ष में जो श्रीराम मंदिर का निर्णय हुआ है, उसमें निश्चित ही बाधा निर्माण हुई होती । वर्ष २०१० में श्रीराममंदिर का निर्णय हिन्दुओं के हित में हुआ । उसमें न्यायालय ने १/३ भूभाग मुसलमानों को देने का निर्णय दिया । उसे भी हमने सर्वाेच्च न्यायालय में आवाहन दिया (अपील की है) ।

     सर्वाेच्च न्यायालय का निर्णय काशी, मथुरा, ‘वक्फ कानून’ एवं ‘प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट’ का केंद्रबिंदु है । सर्वाेच्च न्यायालय ने ११६ एवं ११७ इन सूत्रों में कहा है, ‘ऐतिहासिक दृष्टि से मंदिर होगा और उसे तोडा गया हो, तो वह मंदिर बनाने का संकल्प अभेद्य है ।’ इसका अर्थ यदि आपने यह मंदिर बनाया और कुछ कारणवश उसका विध्वंस हो गया, तो आपका मंदिर बनवाने का संकल्प अमर है । आप यह मंदिर पुन: निर्माण कर सकते हैं ।’ यह भाग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । इस आधार पर ही हमने काशी एवं मथुरा के मंदिरों के प्रकरणों की प्रविष्टि की है ।

२. काशी विश्वनाथ मंदिर की पवित्र भूमि साक्षात भगवान शंकर ने निर्माण की है; अत: वह मंदिर को मिलनी चाहिए, इसलिए न्यायालय से मांग की जाना

२ अ. काशी विश्वनाथ मंदिर का अभियोग प्रातिनिधिक है । स्थानीय समाचार पत्रों के माध्यम से ‘सार्वजनिक सूचनाएं’ प्रकाशित की गईं । इससे समाज का कोई भी व्यक्ति इसमें ‘पार्टी’ (पक्षकार) हो सकता है । यह अभियोग अब न्यायालय में प्रविष्ट है ।

२ आ. काशी मंदिर का अनेक बार विध्वंस किया गया : काशी मंदिर का इतिहास अत्यधिक रक्तरंजित है । वर्ष ११९३ से १६६१, इस काल में इस मंदिर का अनेक बार विध्वंस किया गया । प्रत्येक बार बडा संघर्ष हुआ । सबसे अंत में अर्थात वर्ष १६६९ में औरंगजेब ने यह मंदिर तोडा था । उसके मंदिर तोडने के दिए आदेश अब भी हैं । हमने यह अभियोग शृंगार गौरीदेवी एवं आदि विश्वेश्वर की ओर से प्रविष्ट किया है । (श्रीराम मंदिर के अभियोग में सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा था, ‘विश्वस्त उनके कर्तव्य उचित ढंग से नहीं निभा रहे हों, तो भगवान स्वयं न्यायालय में आ सकते हैं ।’ इस कारणवश ही हमने भगवान के माध्यम से काशी और मथुरा में अभियोग प्रविष्ट किया है ।)

२ इ. काशी विश्वनाथ मंदिर की भूमि पवित्र होने से उसे मंदिर को देने की मांग की जाना एवं वहां का पवित्र स्थान देखकर वहां मस्जिद नहीं, अपितु शिवलिंग होने की निश्चिति होना : इसमें ‘काशी विश्वनाथ मंदिर की संपूर्ण ५ कोसों की (३ किलोमीटर की) भूमि भगवान शंकर की है, जिसे साक्षात भगवान शंकर ने ही निर्माण किया है । ‘यह स्थान संपूर्ण विश्व में पहला नगर होने से वह सर्वाधिक पुरातन है । वहां जाने पर मोक्षप्राप्ति होती है’, ऐसा अपने पुराणों में वर्णन किया गया है । यह संपूर्ण ५ कोस की भूमि हमारे लिए पवित्र होने से वह मंदिर को दी जाए । इसके साथ ही यह मंदिर दर्शन और भगवान की पूजा करने के लिए खोल दिया जाए’, ऐसी मांग की गई । इन मांगों के साथ ही ‘शृंगार गौरी की मूर्ति मस्जिद की पश्चिम दिशा में है । वहां पहले प्रतिदिन पूजा होती थी । बाबरी मस्जिद के विध्वंस के उपरांत वहां वर्ष में केवल एक ही दिन पूजा होती है । इसलिए वहां पहले समान पूजा करने का अवसर मिलना चाहिए’, ऐसी मांग भी की गई है । उस ज्ञानव्यापी कूप के (कुएं के) अंदर आज भी मूल ज्योतिर्लिंग है । इसलिए वहां मस्जिद हो ही नहीं सकती । वहां का संपूर्ण निर्माणकार्य एक मंदिर समान ही है । काशी में नंदी का मुंह मस्जिद की ओर है । इसका अर्थ वहां निश्चित ही शिवलिंग है ।

२ ई. प्रसिद्ध इतिहासकार जेम्स प्रिंसेप ने कहा है, ‘‘हिन्दुओं के लिए पहला नगर काशी है । पहली नदी गंगा और पहले भगवान हैं विश्वनाथ ।’’ स्कंद पुराण, शिव महापुराण एवं काशी रहस्य के विविध श्लोकों में भगवान शिव ने स्वयं इस नगरी का महत्त्व बताया है । उसमें ऐसा उल्लेख है कि ‘ईश्वर ने इस ५ कोस भूमि की निर्मिति स्वयं के लिए की थी ।’

३. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रमास्वामी द्वारा निर्णयपत्र में ‘काशी का लिंग स्वयं शिव ने निर्माण किया है’, ऐसा उल्लेख करना

     भारतीय राज्यसंविधान के अनुसार ‘आर्टिकल १३’ के माध्यम से यह हिन्दू कानून का ही भाग होने से हिन्दू कानून का स्रोत है । इसलिए जब हम न्यायालय में अभियोग लडते हैं, तब इस पवित्र भूमि के शास्त्रों के आधार पर महत्त्व विशद करना महत्त्वपूर्ण होता है । ‘काशी विश्वनाथ कानून १९८३’ यह विशेष कानून आया । उसमें उस ओर का मंडप, कुआं और कथित मस्जिद, ये सब मंदिर के हैं’, ऐसा घोषित किया गया । जब इस कानून को सर्वाेच्च न्यायालय में आवाहन दिया गया, तब सर्वाेच्च न्यायालय ने उनके निर्णयपत्र का ‘वर्ष १९९७ – ४ दूसरा पृष्ठ, क्रमांक ६०६ में पहले स्तंभ में सर्वाेच्च न्यायालय के न्यायाधीश रमास्वामी ने काशी के विषय में अत्यंत सुंदर वाक्य लिखे हैं कि ‘काशी का लिंग स्वयं शिव ने निर्माण किया है !’

४. काशी विश्वनाथ मंदिर की संपूर्ण भूमि मंदिर की संपत्ति है, ऐसा वर्ष १९८३ में घोषित किया जाना

     १८ अप्रैल १६६९ को औरंगजेब द्वारा दिया आदेश अर्थात काशी का मंदिर उसी ने तुडवाया, एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है । जॉन बोसम ने ‘हिस्टरी ऑफ इंडिया’ नामक एक पुस्तक लिखी है । उसमें इस आदेश का समावेश है । २ सितंबर १६६९ को औरंगजेब ने मंदिर तोडने का आदेश दिया था । यह आदेश ‘मंजिरी से आलमगिरी’ में भी पाया जाता है ।

     काशी विश्वनाथ मंदिर तोडने के उपरांत भी हिन्दुओं ने पूजा करना नहीं छोडा । हिन्दू मस्जिद के द्वार से अदृश्य रूप में (सूक्ष्म से) ईश्वर के दर्शन लेते थे । इतिहास कहता है कि ३० दिसंबर १८१० को हिन्दुओं ने इस मंदिर को पुन: अपने नियंत्रण में लिया । तब ब्रिटिश सरकार के जिला दंडाधिकारी वॉॅट्सन ने ‘प्रेसिडेंट काउंसिल’ को एक पत्र लिखा । उसमें उसने कहा था, ‘ज्ञानव्यापी का मंदिर हिन्दुओं को दे दिया जाए ।’

     तदुपरांत ‘यह स्थल मस्जिद है, ऐसा घोषित कर उसे मुसलमानों को दे दिया जाए’, इस हेतु वर्ष १९३६ में दीन मुहम्मद साहब ने अभियोग प्रविष्ट किया । उसमें हिन्दू समाज को ‘पार्टी’ (पक्षकार) बनाया गया था । मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार के विरोध में यह अभियोग चलाया था । ब्रिटिश सरकार ने हिन्दुओं के पक्ष में १५ साक्षीदारों की छानबीन की । सभी साक्षीदार हिन्दुओं की ओर से थे । इतना ही नहीं, अपितु ब्रिटिश सरकार भी हिन्दुओं के पक्ष में थी । ‘यह भूमि मंदिरों की है और उसे हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए ।’ परतंत्रता के काल में भी १५ हिन्दुओं ने मुसलमानों के विरोध में साक्ष दी थी । इसे दीन मुहम्मद ने आवाहन दिया; परंतु वर्ष १९४२ में उसकी याचिका खारिज कर दी गई । वर्ष १९८३ में घोषित किया गया कि यह संपूर्ण भूमि मंदिर की संपत्ति है ।

– अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन, सर्वाेच्च न्यायालय                                                                                                                  (क्रमशः)