पिछले लेख में हमने तृतीय विश्वयुद्ध के विषय में की गई भविष्यवाणी और सूक्ष्म स्तरीय युद्ध से संबंधित सूत्र देखे थे । अब हम उसका अगला भाग देखेंगे । (उत्तरार्ध)
५. तृतीय विश्वयुद्ध के संभावित दुष्परिणाम
अ. ‘तृतीय विश्वयुद्ध के उपरांत संभावित प्रचंड हानि का सामना करने हेतु आवश्यक आपातकालीन सहायतातंत्र और सरकारी सहायता उपलब्ध नहीं होंगे अथवा उनमें इस हानि का सामना करने की क्षमता नहीं होगी ।
आ. विश्व के अधिकांश शहर ध्वस्त हो जाएंगे और विश्व का ७० प्रतिशत संपर्कतंत्र नष्ट हो जाएगा ।
इ. डॉक्टर और चिकित्सालय अल्प संख्या में उपलब्ध होंगे और बडी मात्रा में औषधियों के अभाव का सामना करना होगा ।
ई. किरणोत्सर्गी अवपात के कारण मनुष्य, पशु-पक्षी, जलचर और भूमि दूषित हो जाएंगे । किरणोत्सर्गी अवपात का अर्थ है परमाणु बम के विस्फोट के उपरांत किरणोत्सर्गी कणों अथवा किरणों को बाहर फेंकनेवाली धूल की वर्षा और फैलाव
उ. किरणोत्सर्गी अवपात के कारण लगभग एक वर्ष तक पानी दूषित रहेगा ।
ऊ. इस युद्ध के उपरांत अगले १० वर्ष तक खाद्यान्न का अभाव रहेगा और इंधन का भी बहुत अभाव होगा । उसके कारण ईंधन पर आधारित सभी प्रकार के परिवहन बंद पड जाएंगे । उस अवधि में बिजली की आपूर्ति अत्यल्प मात्रा में होगी ।
ए. लोगों को निराशा, अतिचिंता और दुख जैसी मानसिक बीमारियों का सामना करना पडेगा ।
ऐ. युद्ध के उपरांत कानून-व्यवस्था पूर्ण रूप से विफल हो जाएगी । उसके कारण मनुष्य में विद्यमान दुष्प्रवृत्तियां अपना सिर उठाएंगी, जिसके फलस्वरूप लूटमार और अपराध बढेंगे । मनुष्य को जीवित रहने हेतु प्रतिदिन संघर्ष करना पडेगा । इस कठिन काल में मनुष्य के वास्तविक स्वभाव का परिचय होगा ।
ओ. इस युद्ध का परिणाम ३० वर्ष तक बना रहेगा और पुनर्निर्माण का कार्य करने में १०० वर्ष का समय लगेगा । भले ही यह अवधि अल्प है, परंतु पर्याप्त है; क्योंकि इस युद्ध में विश्व की लगभग ५० प्रतिशत जनसंख्या नष्ट हो जाएगी । इसके कारण शेष लोगों को जीवित रहने के लिए खाद्यान्न और अन्य सुविधाएं उपलब्ध की जा सकेंगी ।
युद्ध के उपरांत का यह काल संपूर्ण विश्व की जीवनशैली को बदलकर रख देगा । तृतीय विश्वयुद्ध के उपरांत जो लोग बचेंगे, उन्हें अत्यंत प्रतिकूल और विकट स्थिति का सामना करना पडेगा । इस युद्ध में बचे लोगों के लिए ‘आत्मनिर्भर बनना’, यह मूलमंत्र होगा । उसके कारण ही पतन की स्थिति तक पहुंच जानेवाली सामाजिक व्यवस्थाओं पर निर्भर न रहकर, जीवित रहने के लिए आवश्यक कौशल सीखना महत्त्वपूर्ण है । ‘आवश्यक साधन-सामग्री का संग्रह करना, इस काल में आनेवाले विविध संकटों का सामना करने के लिए स्वयं में शारीरिक एवं मानसिक क्षमता बढाना, साथ ही किरणोत्सर्गी अवपात के दूरगामी परिणामों का सामना करने की तैयारी करना’, ये आरंभ करने से युद्धोत्तर काल का भली-भांति सामना किया जा सकेगा । आपातकाल में जीवित रहने हेतु आवश्यक प्रत्येक साधन और ज्ञान का उचित पद्धति से संग्रह करना, जीवनदायी और आपातकाल में बने रहने की तैयारी बढानेवाला सिद्ध होगा ।
६. तृतीय विश्वयुद्ध में भारत की भूमिका
प्राचीन काल से भारत ने संपूर्ण विश्व का आध्यात्मिक नेतृत्व किया है । आध्यात्मिक शोधकार्य से यह दिखाई दिया है कि इस विश्वयुद्ध में भारत आध्यात्मिक दृष्टि से केंद्रस्थान में रहेगा । ‘संपूर्ण विश्व की सात्त्विकता बढे तथा तृतीय विश्वयुद्ध की भीषणता घट जाए’, इस दृष्टि से भारत के उच्च आध्यात्मिक स्तर के संत सर्वाेपरि प्रयास कर रहे हैं । इस विश्वयुद्ध में भारत का स्थान ध्यान में लिया जाए, तो भारत को अस्थिर करने का प्रयास करने की दृष्टि से अनिष्ट शक्तियां पडोसी देशों को भारत पर आक्रमण करने के लिए बाध्य करेंगी । उसके कारण इस युद्ध में भारत की लगभग ५० प्रतिशत जनसंख्या नष्ट हो जाएगी ।
७. क्या इस युद्ध को टाला जा सकता है ?
संक्षेप में इस प्रश्न का उत्तर है, ‘नहीं’ ‘युद्ध की तीव्रता और अवधि, साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की तीव्रता’ में कुछ बदलाव हो सकते हैं । यह विनाशकारी घटना अटल है । क्यों, इसके कारण अब समझ लेते हैं ।
विगत कुछ दशकों से पृथ्वी पर रज-तम की प्रबलता बढ गई है, जिससे पृथ्वी की सात्त्विकता तीव्रगति से घट रही है । इसका मूल कारण ‘लोगों में बढे स्वभावदोष, समाज का माया की ओर प्रचंड झुकाव, साधना का अभाव, साथ ही सप्तपाताल में बसी अनिष्ट शक्तियों के प्रभाववश लोगों में अपने मन के अनुसार आचरण करने का बढा हुआ अनुपात’ इत्यादि । जब पृथ्वी पर रज-तम की प्रबलता बढने के कारण सात्त्विकता घटकर समाज और वातारवरण में अस्थिरता उत्पन्न होती है; तब प्राकृतिक आपदाएं, आतंकी गतिविधियां और युद्ध जैसी विनाशकारी घटनाएं होती हैं । ये घटनाएं रज-तमप्रबल लोगों को नष्ट करने हेतु हो रही स्वचालित स्वच्छता प्रक्रिया है ।
इन घटनाओं को रोकने के लिए पृथ्वी पर स्थित रज-तम की तीव्रता न्यून कर पृथ्वी की सात्त्विकता को बढाना आवश्यक है । यह होने हेतु अखिल मानवजाति को आज के समय की उसकी जीवनशैली में आमूलाग्र परिवर्तन करना, साथ ही साधना के ६ मौलिक तत्त्वों के अनुसार (टिप्पणी) साधना करना अति आवश्यक है । ६ मौलिक तत्त्वों के अनुसार साधना करने से ही आध्यात्मिक प्रगति हो सकती है ।
(टिप्पणी – अनेक से एक में जाना, स्थूल से सूक्ष्म में जाना, आध्यात्मिक स्तर के अनुसार साधना, आश्रम के अनुसार साधना और काल के अनुसार साधना)
जो पंथ और संप्रदाय ‘स्वयं का साधनामार्ग ही ईश्वरप्राप्ति का एकमात्र मार्ग है’, ऐसा प्रचार करते हैं, साथ ही समाज के लोगों का बलपूर्वक अथवा प्रलोभन देकर धर्मांतरण करते हैं, वे सब लोग साधना के मूलभत तत्त्वों का पालन नहीं करते । इसलिए ऐसे पंथों के लोगों के साधना के प्रयत्न सीमित रहते हैं । कुछ पंथ खुलकर सामाजिक हिंसाचार की शिक्षा देते हैं तथा जो लोग इस शिक्षा का पालन करते हैं, उनकी आध्यात्मिक अधोगति होती है तथा वे अपने लिए तीव्र प्रारब्ध निर्माण करते हैं । समाज की जीवनशैली में आमूलाग्र परिवर्तन होने की संभावना शून्य होने के कारण, यह विनाश अपरिहार्य है ।
८. साधना करने के कारण ५० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त अथवा साधना कर आध्यात्मिक प्रगति करने की क्षमता रखनेवाले जीव ही इस विश्वयुद्ध में बचेंगे !
९. सूक्ष्म से युद्ध करनेवाली अच्छी शक्तियां कौनसी हैं ?
सूक्ष्म का यह युद्ध वर्ष १९९९ से वर्ष २०२४ के बीच होगा । अच्छी एवं अनिष्ट शक्तियों के इस युद्ध में अच्छी शक्तियों का नेतृत्व पृथ्वी पर वास करनेवाले ९० प्रतिशत और उससे अधिक आध्यात्मिक स्तर प्राप्त (परात्पर गुरु) कर रहे हैं । आरंभ में केवल परात्पर गुरु एवं कुछ साधक यह सूक्ष्म आयाम का युद्ध कर रहे थे; परंतु अब काल के अनुसार अधिकाधिक संत और साधक इस सूक्ष्म युद्ध में सम्मिलित हो रहे हैं । इस युद्ध में सप्तलोकों में विद्यमान आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत जीव भी सम्मिलित हो रहे हैं ।
१०. तात्पर्य
आज के समय में हम युगपरिवर्तन की अवधि से गुजर रहे हैं । यह लेख समाज में भय उत्पन्न करने हेतु नहीं, अपितु समाज को जागरूक और सतर्क करने के लिए प्रकाशित कर रहे हैं । साधना में रुचि रखनेवाले जीव और साधक इस लेख का अध्ययन कर स्वयं की साधना सशक्त होने की दृष्टि से प्रयास करें । वर्तमान काल आध्यात्मिक प्रगति के लिए अत्यंत पूरक है । कठोर साधना करने से साधकों को इस विश्वयुद्ध की तीव्रता न्यून करने का और स्वयं की रक्षा करने का बल प्राप्त होगा । जैसे एक देश से दूसरे देश जाने के लिए ‘वीजा’ (प्रवेश अनुमतिपत्र पर अनुमति की अंकित मुद्रा) आवश्यक होता है, उसी प्रकार ‘कठोर साधना कर आध्यात्मिक प्रगति करना’, ईश्वरीय राज्य में रहने का ‘वीजा’ है । जो जीव लगन से साधना कर साधक बनने का प्रयास करेगा, उसकी रक्षा ईश्वर निश्चित रूप से करेंगे ।
इस युद्ध का स्वरूप केवल ‘एक देश ने युद्ध में दूसरे देश को हराया और स्वयं की रक्षा की’, ऐसा नहीं है, साथ ही यह युद्ध ‘स्वतंत्रता, लोकतंत्र अथवा किसी विशिष्ट शासनतंत्र’ के लिए भी नहीं है । यह युद्ध तो ‘अच्छी शक्तियों और अनिष्ट शक्तियों’, साथ ही ‘सात्त्विकता एवं असात्त्विकता’ के मध्य का है । इस युद्ध का स्वरूप आध्यात्मिक है और वह विश्व की आध्यात्मिक शुद्धि करने के उद्देश्य से किया जा रहा है । इस युद्ध में जिनमें सात्त्विकता अधिक है, ऐसे सभी जीवों की रक्षा अवश्य ही होगी ।’
– श्री. शॉन क्लार्क (आध्यात्मिक स्तर ६४ प्रतिशत), संपादक, एस.एस.आर.एफ. एवं शोधकार्य विभाग, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (वर्ष २०१६) (समाप्त)
(यह लेख http://ssrf.org/ww3 इस लिंक पर उपलब्ध है ।)
‘जब कुछ बुरा घटित होता है अथवा मृत्यु निकट आती है, तब हमें भगवान का स्मरण होता है । ऐसे समय में लोग सामान्यतः ‘हे भगवान’, ऐसा बोलते हैं । इसके विपरीत आपने विश्वयुद्ध से पूर्व ही भगवान का स्मरण किया और साधना आरंभ की, तो युद्ध आरंभ होने पर भगवान आपका ध्यान रखेंगे और आपकी रक्षा करेंगे । उस समय ‘हे भगवान’, ऐसा बोलने की स्थिति नहीं आएगी । युद्धकाल में जब भगवान आपकी रक्षा करते हैं, तब केवल उनके प्रति आभार न मानें; अपितु उनके चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करें ।’
– (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले |
अधिकाधिक लोगों ने साधना आरंभ की, तो विनाशकारी काल की तीव्रता न्यून होने में सहायता मिलेगीभले ही ऐसा हो; परंतु इस युद्ध की समयावधि और तीव्रता में परिवर्तन हो सकता है । विश्व बहुत ही तीव्रगति से विनाशकारी युद्ध की ओर अग्रसर हो रहा है; किंतु उसी समय पृथ्वी पर विद्यमान उच्च आध्यात्मिक स्तर के संत ‘मनुष्यजाति की रक्षा हो और विश्वयुद्ध की तीव्रता न्यून हो’, इसके लिए अखंड प्रयासरत हैं । जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग साधना का आरंभ कर रहे हैं, वैसे-वैसे ‘उन्हें साधना करने के लिए पर्याप्त समय उपलब्ध हो और उनकी साधना की नींव पक्की हो’; इसके लिए ये उन्नत संत स्वयं के संकल्प से इस युद्ध की अवधि को आगे ले जा रहे हैं । ‘इस युद्ध की अवधि और तीव्रता किन शक्तियों के प्रयास अधिक हैं ?’, इस पर निर्भर है । यदि अनिष्ट शक्तियां अधिक प्रयासशील हों, तो युद्ध की तीव्रता अधिक होगी; इसके विपरीत अधिकाधिक लोगों ने साधना करना आरंभ किया, तो इस विनाशकारी काल की तीव्रता न्यून होगी । ‘तृतीय विश्वयुद्ध की अवधि साधकों की ईश्वरभक्ति पर निर्भर होगी । यह युद्ध भक्तों (धर्माचरण करनेवाले जीवों) और अनिष्ट शक्तियों (अधर्माचरण करनेवाली जीवों) के मध्य होनेवाला है; इसलिए इस युद्ध की अवधि बदल सकती है । साधना के कारण अखिल मनुष्यजाति के प्रारब्ध में सकारात्मक परिवर्तन आ सकते हैं ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले |