लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
भाग २.
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फरवरी एवं मार्च में पंजाब, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, मणीपुर एवं गोवा, इ या ५ राज्यांच्या निवडणुका होऊ घातल्या आहेत. या निवडणुकांच्या पार्श्वभूमीवर विविध राजकीय पक्षांकडून नेहमीप्रमाणे जनतेला आमिषे दाखवणे, सवलतींच्या घोषणा करणे, आम्हीच विकासकामे केली’, असा गवगवा करणे, एकमेकांवर आरोप-प्रत्यारोप करणे, स्वतःच जनतेचे तारणहार असल्याचे भासवणे आदी प्रकार केले जात आहेत. सध्याचे भारताच्या स्वातंत्र्याचे अमृत महोत्सवी वर्ष चालू आहे. गेल्या ७४ वर्षांत अशा अनेक निवडणुका झाल्या, जनतेला विविध आश्वासने दिली गेली; परंतु प्रत्यक्षात जनतेचा भ्रमनिरासच झाला. या पार्श्वभूमीवर राज्यकर्ते आणि मतदार यांची कर्तव्ये, लोकशाहीतील त्रुटी, प्राचीन भारतीय आदर्श राज्यव्यवस्था आदींविषयी जनजागृती करण्याच्या दृष्टीने हे सदर चालू करत आहोत.
२. लोकतंत्र की व्याख्या कागदपत्रों तक ही सीमित है !
राज्यव्यवस्था देश का मेरूदंड होता है, तो धर्म राष्ट्र के प्राण ! धर्माधिष्ठित राज्यव्यवस्था के कारण राष्ट्र की खरे अर्थ में प्रगति होती है । इसके साथ ही राष्ट्र के नागरिकों की ऐहिक एवं पारमार्थिक उन्नति साधी जाती है । भारत के सर्व प्राचीन राज्य इसके उत्तम उदाहरण हैं । मुगल एवं यूरोप के ईसाई आक्रमक की सीधी सत्तावाले राज्यों को छोड भारत को स्वतंत्रता मिलने तक बहुतांश राज्यों में एवं संस्थानों में यही राज्यव्यवस्था शुरु थी । तथापि वर्ष १९४७ में तत्कालीन राज्यकर्ताआें ने भारत के संस्थानों एवं राज्यों का विलीनीकरण कर भारत में ‘एक देश एक राज्यव्यवस्था’ लागू करने का अभियान आरंभ किया । तत्कालीन प्रधानमंत्री पर ब्रिटिशों की राज्यव्यवस्था के साथ ही सोवियत अभियान के साम्यवादी विचारों का प्रभाव होने से भारत में इन मिले-जुले विचारों से ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था एवं ‘निधर्मी’ लोकतंत्र अस्तित्व में आया । इस लोकतंत्र की व्याख्या करते समय कहा गया है कि लोकतंत्र अर्थात लोगों द्वारा लोगों के लिए चलाया जानेवाला राज्य’; परंतु प्रत्यक्ष में आज का चित्र इसके विरुद्ध दिखाई दे रहा है । मुठ्ठी भर राजनेता व्यक्तिगत स्वार्थ लिए सभी यंत्रणाआें का उपयोग कर रहे हैं, जबकि लोकतंत्र में केंद्रबिंदु मानी जानेवाली जनता के ५ वर्षो में एक बार मतदान करने तक महत्त्व रह गया है । प्रत्यक्ष में मात्र जनता के हाथ कुछ नहीं लगता, उन्हें छोटी-छोटी मांगों के लिए आंदोलन करने पडते हैं । इसलिए लोकतंत्र की व्याख्या, केवल पुस्तकी व्याख्या होकर रह गई है । पूर्व में न्यायदक्ष राजा एवं तुरंत दंड देनेवाली न्यायव्यवस्था होने से राज्यव्यवस्था के नियमों का पालन किया जाता था । इसके साथ ही राघोबा पेशवा को देहांत प्रायश्चित, अर्थात् मृत्युदंड सुनाने की क्षमतावाले न्यायशास्त्री प्रभुणे समान निस्वार्थ न्यायाधीश हुआ करते थे । इसलिए अपने आप ही राजा एवं प्रजा कानून का पालन करती थी । आज राजनीतिज्ञों पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हो रहे हैं; परंतु सत्ता एवं धनशक्ति के बल पर सर्व आरोप दबा दिए जाते हैं । इतना ही नहीं, अपितु बंदी बनाए जाने पर भी कारागृह में बैठकर चुनाव लडते हैं और चुनकर भी आते हैं । ऐसे भ्रष्ट एवं नीतिहीन राजनीतिज्ञों में पूर्व की राज्यव्यवस्था के राजाआें समान पारदर्शकता एवं देश-धर्मनिष्ठा ढूंढे नहीं मिलेगी । यही खरे अर्थ में विद्यमान लोकतंत्र की पराजय है ।
(क्रमश:)
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– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता हिन्दू जनजागृति समिति.