लोकतंत्र या फिर भ्रष्टतंत्र ?
भाग १.
फरवरी एवं मार्च में पंजाब, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर एवं गोवा, इन ५ राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं । इन चुनावों की पार्श्वभूमिपर विविध राजकीय पक्षों द्वारा सदैव की भांति जनता को प्रलोभन देना, सहुलियतों की घोषणा करना, हमने ही विकासकार्य किया’, ऐसी ढींगें मारना, एकदूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करना, स्वयं ही जनता के तारनहार हैं, ऐसा दिखाना आदि हो रहा है । वर्तमान में भारत की स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव चल रहा है । गत ७४ वर्षों में अनेक चुनाव हुए, जनता को विविध आश्वासन दिए गए; परंतु वास्तव में वैसा कुछ नहीं हुआ । जनता का भ्रम ही टूटा है । इस पार्श्वभूमि पर राज्यकर्ता एवं मतदार के कर्तव्य, लोकतंत्र की त्रुटियां, प्राचीन भारतीय आदर्श राज्यव्यवस्था आदि के विषय में जनजागृति करने की दृष्टि से यह स्तंभ प्रस्तुत कर रहे हैं ।
१. स्वतंत्रता से पूर्व काल के भारत की आदर्श पितृतुल्य शासनव्यवस्था !
भारत की राज्यव्यवस्था यह सदैव जनहितार्थ चलाई जानेवाली राज्यव्यवस्था के रूप में पहचानी जाती थी । यद्यपि आज की भाषा में राजसी व्यवस्था के रूप में उस राज्यव्यवस्था का उेख किया जाता है, तब भी भारत के प्राचीन ग्रंथों में एवं विदेशी यात्रियों द्वारा किए गए प्रवासवर्णनों में उन राज्यों का गणतंत्र (गण+तंत्र = लोगों का राज्य) ऐसा ही उेख पाया जाता है । त्रेतायुग में प्रभु श्रीरामचंद्र ने प्रस्थापित की हुई राज्यव्यवस्था, अर्थात रामराज्य सदासर्वकाल आदर्शवत् मानी जाती है । हरिहर एवं बुक्कराय द्वारा प्रस्थापित विजयनगर का साम्राज्य, इसके साथ ही छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा निर्मित हिंदवी स्वराज्य, ये उस आदर्श रामराज्य के प्रतिरूप हैं । ये उदाहरण प्रातिनिधिक हैं । ऐसी अनेक आदर्श राज्यव्यवस्था भारत में हो चुकी है । संक्षेप में, राजशाही अस्तित्व में थी और वह जनहितकारी एवं जनता का पितृवत् पालन करनेवाली थी । उस समय की राज्यव्यवस्था इतनी वैभवसंपन्न थी कि भारत को सोने की चिडिया कहा जाता था ।
(क्रमश:)
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति.