सीधे ईश्वर से चैतन्य और मार्गदर्शन ग्रहण करने की क्षमता होने से आगामी ईश्वरीय राज्य का संचालन करनेवाले सनातन संस्था के दैवी बालक !

लेखमाला : ‘सनातन के दैवी बालकों की अलौकिक गुणविशेषताएं’

ईश्वरीय मार्गदर्शन ग्रहण कर ईश्वरीय राज्य आगे चलानेवाले दैवी बालक !

     परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के संकल्प के अनुसार कुछ वर्षाें में ही ईश्वरीय राज्य की स्थापना होगी । अनेक लोगों के मन में ‘यह राष्ट्र चलाएगा कौन ?’, ऐसा प्रश्न है । इसलिए ईश्वर ने उच्च लोक से दैवी बालकों को पृथ्वी पर भेजा है । इस लेख में उनके प्रगल्भ विचार एवं अलौकिक विशेषताएं दे रहे हैं ।

जिज्ञासु, आत्मीय एवं भावावस्था में रहने का प्रयास करनेवाली, रामनाथी आश्रम निवासी ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त कु. अपाला अमित औंधकर (आयु १४ वर्ष) !

कु. अपाला औंधकर

     ‘कु. अपाला अमित औंधकर (आयु १४ वर्ष) ने ६१ प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर प्राप्त किया, यह समाचार दिनांक १.११.२०२१ को घोषित हुआ । उसकी मौसी, श्रीमती अक्षता रूपेश रेडकर एवं मौसा श्री. रूपेश रेडकर को ध्यान में आई उसकी गुण-विशेषताएं और उसके विषय में हुई अनुभूतियां यहां दे रहे हैं ।

श्रीमती. अक्षता रूपेश रेडकर (कु. अपाला की मौसी), सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा.

श्रीमती अक्षता रेडकर

१. अपाला की लिखावट अत्यंत सुंदर है । उसके लेखन में कहीं भी काट-छांट नहीं होती ।

२. सीखने की वृत्ति

     अपाला जो कुछ सीखती है, उसे परिपूर्ण सीखने का प्रयास करती है । उसने मराठी व अंग्रेजी में टंकण करना सीखा । सीखने के लिए मिले सूत्रों का वह तत्काल टंकण करती है, साथ में भाषाशुद्धि की ओर भी ध्यान देती है ।

३. प्रेमभाव

     ‘अपनों से बडे व्यक्ति हमसे प्रेम करते हैं’, ऐसा हम कहते अथवा सुनते हैं; परंतु अपाला मुझसे बहुत छोटी होते हुए भी बचपन से ही उसने मुझे बहुत प्रेम दिया । मैं उसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकती । बडी होने पर भी उसका प्रेम कभी भी अल्प नहीं हुआ ।

४. तत्त्वनिष्ठ

     वह मुझे मेरे दोष या कुछ सूत्र बताती है, वह मेरे अंतर्मन तक पहुंचता है । मुझे उसकी वाणी सुनना भाता है । उसके कारण ही पारिवारिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर हम दोनों के आत्मीय संबंध प्रस्थापित हुए हैं ।

५. सात्त्विकता की ओर झुकाव

     अब उसके वस्त्र एवं अलंकारों की रुचि भी सात्त्विक हो गई है ।

६. भाव

६ अ. नृत्य का अभ्यास करने से पूर्व भावप्रयोग करना : वह प्रत्येक नृत्य के अभ्यास से पूर्व भावप्रयोग करती है । मुझे लगता है कि नृत्य का अभ्यास आध्यात्मिक स्तर का होकर उसका नृत्य भावपूर्ण होने लगा है ।

     यदि मैं भी प्रत्येक रुग्ण पर उपचार (फीजियोथेरेपी) करने से पूर्व भावप्रयोग अथवा भाव रखकर सेवा करूं, तो मुझे भी सेवा द्वारा आनंद मिलेगा’, यह सूत्र उससे सीख पाई ।

६ आ. अपाला के गाए भक्ति गीत सुनते समय भावजागृति होना : अपाला ने गायन की ३ परीक्षाएं दी हैं; किंतु गायन में उसका कुछ विशेष अभ्यास नहीं है । उसके गाए भावगीत एवं भक्तिगीत सुनते रहने की इच्छा होती है । अन्य गायक का गाया कोई भक्तिगीत सुनते समय कुछ नहीं लगता; किंतु वही गाना यदि अपाला गाए, तो उस गीत का भावार्थ मेरे ध्यान में आने से मेरी भावजागृति होने में सहायता होती है । कभी-कभार भावजागृति के लिए मैं उसके गाए कुछ भक्तिगीत सुनती हूं ।

६ इ. अपाला श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळजी को ‘सगुण माता’ और श्री भवानीदेवी को ‘निर्गुण माता’ कहती है । उसका वैसा भाव है ।

     अपाला में ‘व्यासपीठ पर बोलने का साहस, एक बार में याद करनेवाली सीखने की वृत्ति, नेतृत्वगुण, बौद्धिक प्रगल्भता, तडप, सब के साथ आत्मीयता, गुरुदेवजी के प्रति अपार श्रद्धा, भाव’, आदि गुण हैं ।

श्री. रूपेश लक्ष्मण रेडकर (कु. अपाला के मौसा), सनातन आश्रम, देवद, पनवेल.

श्री. रूपेश रेडकर

१. अन्यों के साथ आत्मीय संबंध होना

     ‘स्वयं के आचरण से वह अन्यों का मन जीत लेती है । ६९ वर्षीय मेरी माताजी (श्रीमती उर्मिला रेडकर, आध्यात्मिक स्तर ६३ प्रतिशत) और कु. अपाला में ३ – ४ बार ही बातचीत हुई होगी; परंतु माताजी ने अनेक बार उसकी प्रशंसा की है एवं उसे याद करती हैं ।

२. जिज्ञासा

     अपाला में तीव्र जिज्ञासा होने से ‘सूक्ष्म स्पंदन ज्ञात होना, देवताओं के तत्त्व अनुभूत होना और सेवा का नया सूत्र सीखना’, इस ओर उसका झुकाव रहता है ।

३. प्रयोगशील

     भाववृद्धि अंतर्गत प्रयोग करना, सूक्ष्म-प्रयोग अथवा नृत्य की विविध मुद्राएं करने पर हुई अनुभूतियों का अध्ययन करते समय वह निरंतर भिन्न-भिन्न प्रयोग करती है ।

(लेखन के सर्व सूत्रों का दिनांक १.११.२०२१)

सनातन संस्था के दैवी बालक केवल ‘पंडित’ नहीं; अपितु ‘प्रगल्भ’ साधक हैं !

परात्पर गुरु डॉ. आठवले

     सनातन संस्था में कुछ दैवी बालक हैं । उनका बोलना आध्यात्मिक स्तर का होता है । आध्यात्मिक विषय पर बोलते हुए उनके बोलने में ‘सगुण-निर्गुण’, ‘आनंद, चैतन्य, शांति’ जैसे शब्द होते हैं । ऐसे शब्द बोलने के पूर्व उन्हें रुककर विचार नहीं करना पडता । वे धाराप्रवाह बोलते हैं । उन्हें सुनते रहने का मन करता है । सामान्य व्यक्ति के दृष्टिकोण से किसी को ऐसे शब्दों का नियमित उपयोग करने हेतु इन विषयों से संबंधित निरंतर अध्ययन आवश्यक होता है । उस विषय का गहन अध्ययन किया, तो वे विषय बुद्धि से समझ में आते हैं और उनका आंकलन होता है । तदुपरांत ‘पांडित्य’ आने पर वे बोलते हैं; परंतु इन बालसाधकों की आयु केवल ८ से १५ वर्ष ही है । ग्रंथों का गहन अध्ययन तो क्या; उन्होंने कभी वाचन भी नहीं किया है । इसलिए उनकी यह परिभाषा उनके विगत जन्म की साधना के कारण उनमें निर्माण हुई प्रगल्भता दर्शाती है ।’ – (परात्पर गुरु) डॉ. आठवले (२८.१०.२०२१)

निरंतर ईश्वरीय सान्निध्य एवं सीखने की स्थिति में रहना और प्रगल्भ बुद्धिमत्ता के रामनाथी स्थित सनातन आश्रम के दैवी बालक !

पू. तनुजा ठाकुरजी

     मुझे ऐसा लगा कि रामनाथी (गोवा) स्थित सनातन आश्रम के दैवी बालकों में सीखने की विशेष वृत्ति है, मुझे उनके संबंध में ज्ञात हुए कुछ विशेष सूत्र इस प्रकार हैं ।

१. सीखने की वृत्ति

१ अ. सजीव एवं निर्जीव दोनों से सीखना : अधिकांश दैवी बालकों की प्रवृत्ति सजीव एवं निर्जीव दोनों से सीखने की रहती है । मेरे ध्यान में आया कि वे निरंतर ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में होते हैं; इसलिए वे प्रत्येक से कुछ न कुछ सीखते ही हैं ।

१ अ १. सूक्ष्म ज्ञानेंद्रियां जागृत होने से निर्जीव वस्तुओं द्वारा भी सहजता से सीखना : गत जन्म की साधना के कारण उनकी सूक्ष्म ज्ञानेंद्रियां जागृत होती हैं । निरंतर आंतरिक सान्निध्य में होने से वे निर्जीव वस्तुओं के साथ सहजता से संवाद साध्य कर सकते हैं । ऐसा केवल एक नहीं, अपितु अधिकांश दैवी बालकों में मैंने अनुभव किया है । उदा. एक ने बताया उसे ‘पंखे से क्या सीखने के लिए मिला’, तो दूसरे ने बताया उसे ‘नल द्वारा क्या सीखने के लिए मिला ?’

१ आ. हिन्दी का ज्ञान न होते हुए भी उस भाषा का प्रयोग करनेवाले एवं केवल एक मास में वह भाषा आत्मसात कर सत्संग में हिन्दी भाषा-प्रयोग करनेवाले दैवी बालक ! : सत्संग में उपस्थित अधिकांश दैवी बालकों की मातृभाषा हिन्दी नहीं है; परंतु उन्हें हिन्दी भाषा में सत्संग में बोलने के लिए कहने पर उन्होंने ‘मुझे हिन्दी नहीं आती’, ऐसा न कहते हुए हिन्दी में बोलने का प्रयास किया और एक मास उपरांत ही उन्होंने हिन्दी भाषा में अत्यंत अच्छी पद्धति से अपने विचार प्रस्तुत करने आरंभ कर दिए । यह एक अत्यंत असाधारण बात है । दो दैवी बालक दक्षिण भारत से हैं; परंतु वे भी शीघ्र हिन्दी में बात करने लगे ।

१ इ. परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का तुरंत आज्ञापालन कर नामजपादि उपाय ढूंढना सीख कर तुरंत कृत्य करनेवाला दैवी बालक ! : दैवी बालक केवल स्थूल नहीं, अपितु सूक्ष्म की बातें भी गति से सीखकर कृत्य करने का प्रयास करते हैं ।

     एक दिन परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी ने दैवी बालकों को संदेश भेजा, ‘‘अब आप सबको नामजपादि उपचार सीखने हैं, इसलिए भिन्न-भिन्न प्रयोग करने होंगे ।’’ उसी रात एक दैवी बालक की माताजी को आध्यात्मिक कष्ट हो रहा था । उसने माताजी के कष्ट का सूक्ष्म परीक्षण कर उचित नामजप एवं न्यास ढूंढकर माताजी पर नामजपादि उपचार किए । इससे ‘माताजी का कष्ट अल्प हुआ’,ऐसा उसने कहा ।

१ ई. दैवी बालकों द्वारा गुरुकृपायोग अंतर्गत अष्टांग साधना के संदर्भ में सहजता से सीखकर कृत्य करना : दैवी बालक ग्रंथवाचन, दैनिक ‘सनातन प्रभात’ का वाचन अथवा ‘परात्पर गुरुदेवजी के तेजस्वी विचार’ केवल पढते नहीं; अपितु तुरंत कृत्य करते हैं । वे केवल ग्रंथ अथवा दैनिक वाचन करते नहीं; अपितु उनका आचरण करते हैं । सही अर्थ में इसी को सीखना’ कहते हैं ।

२. जिनकी पंचज्ञानेंद्रिय एवं पंचकर्मेंद्रिय जागृत हैं, ऐसे दैवी बालक !

     सत्संग सुनते एवं सुने हुए सूत्र लिखते समय भी उनकी सूक्ष्म पंचज्ञानेंद्रिय एवं कर्मेंद्रिय जागृत रहती है । इसलिए वे स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों ही सीख पाते हैं । इससे ‘वे अष्टावधानी बालक हैं’, यह ध्यान में आता है ।

३. दैवी बालकों की प्रगल्भता !

     दैवी बालक केवल ८ – १० वर्ष आयु के होते हुए भी उनमें सीखने की वृत्ति बहुत है । सत्संग में संत अथवा साधक जो कुछ कहते हैं, दैवी बालक तुरंत ही अपनी बही में लिखने का प्रयास करते हैं । इन दैवी बालकों में से एक बालिका कु. प्रार्थना पाठक (आयु १० वर्ष, आध्यात्मिक स्तर ६७ प्रतिशत) की लेखनशैली इतनी परिपूर्ण है कि प्रौढ व्यक्ति भी ऐसा न लिख सके । वह चार स्तंभ करके लिखती है । पहले स्तंभ में साधक का नाम, दूसरे में उनसे सीखने के लिए मिले सूत्र, तीसरे में संतों द्वारा उस साधक को दिए गए दृष्टिकोण और चौथे में यदि कुछ विशेष सूत्र हो, तो वह लिखती है । केवल दस वर्ष की आयु में इस प्रकार लिखना, इससे उसकी प्रगल्भ बौद्धिक क्षमता ध्यान में आती है । कुछ दैवी बालक छोटे होने से वे ठीक से लिख भी नहीं पाते, तब भी वे उन्हें सीखने के लिए मिले सूत्र लिखने का प्रयास करते हैं ।

४. अहं अत्यल्प होना

     उनकी सीखने की वृत्ति यही दर्शाती है कि उनमें अहंकार की मात्रा अत्यल्प है । अहंकारी व्यक्ति को सीखने की अपेक्षा सिखाने में अधिक रुचि रहती है । दैवी बालक उन्हें सीखने मिले सूत्र अत्यंत विनम्रता से एवं कर्तापन त्यागकर बताते हैं । उनके विचार सुनकर परात्पर गुरुदेवजी दैवी बालकों की प्रशंसा करते हैं, तब वे बालक सहजता से उनका कर्तापन परात्पर गुरुदेवजी के चरणों में अर्पित करते हैं ।

५. दैवी बालकों द्वारा केवल बोलने से दैवी वातावरण निर्मित होना

     जब दैवी बालक सीखने मिली कोई भी घटना बताते हैं, तब उनके बोलने-सुनने से भाव जागृत होता है । मन एकाग्र होता है तथा कभी-कभार ध्यान भी लग जाता है । उनसे संवाद करते समय वातावरण चैतन्यमय होकर विविध प्रकार की दिव्य सुगंध आती हैं ।’

– पू. तनुजा ठाकुर, संस्थापक, वैदिक उपासना पीठ (३०.१०.२०२१)