कार्तिक कृष्ण ११ (१ नवंबर) : गोवत्स द्वादशी के दिन श्रीविष्णु की आपतत्त्वात्मक तरंगें कार्यरत होकर ब्रह्मांड में आती हैं । विष्णुलोक की ‘वासवदत्ता’ नामक कामधेनु इस दिन ब्रह्मांड तक इन तरंगों का वहन करने हेतु अविरत कार्य करती है । इस दिन कृतज्ञतापूर्वक इस कामधेनु का स्मरण कर आंगन में तुलसीवृंदावन के पास धेनु अर्थात गाय खडी कर प्रतीकात्मक रूप में उसका पूजन किया जाता है । इस दिन अपने आंगन की गाय को ‘वासवदत्ता’ का स्वरूप प्राप्त होता है, अर्थात एक प्रकार से उसका नामकरण होकर उसे देवत्व प्राप्त होता है । इसलिए इस दिन को ‘गोवत्स द्वादशी’ कहते हैं ।
धनत्रयोदशी (धनतेरस)
कार्तिक कृष्ण १२ (२ नवंबर) : इस दिन व्यापारी अपनी तिजोरी का पूजन करते हैं । व्यापारी नए वर्ष के लेखा-जोखा की बहियां इसी दिन लाते हैं । जमा एवं खर्च का ब्योरा रखकर लक्ष्मीजी की पूजा करते हैं । धनतेरस के दिन नवीन स्वर्ण खरीदने की प्रथा है । वास्तविक लक्ष्मीपूजन के समय हमें पूरे वर्ष का लेखा-जोखा करना होता है । धनत्रयोदशी तक प्रभुकार्य के लिए शेष संपत्ति का व्यय करने पर, ‘सत्कार्य में धन व्यय होने के कारण वह धनलक्ष्मी अंत तक लक्ष्मीरूप में रहती है ।
धन्वंतरि जयंती
कार्तिक कृष्ण १२ (२ नवंबर) : आयुर्वेद की दृष्टि से इस दिन धन्वंतरि जयंती है । वैद्य वर्ग इस दिन देवताओं के वैद्य धन्वंतरि का पूजन करते हैं । नीम की उत्पत्ति अमृत से हुई है । प्रतिदिन नीम के पांच-छः पत्ते खाना स्वास्थ्य के लिए हितकारी होता है एवं इससे रोग की संभावना घट जाती है । नीम का इतना महत्त्व है कि इस कारण इस दिन यही धन्वंतरि के प्रसाद के रूप में दिया जाता है ।
धन्वंतरि का जन्म : धन्वंतरि का जन्म देव एवं दानव द्वारा किए गए समुद्रमंथन से हुआ था । भगवान धन्वंतरि का जन्म एक हाथ में ‘अमृत कलश’, दूसरे हाथ में ‘जोंक’, तीसरे हाथ में ‘शंख’ एवं चौथे हाथ में ‘चक्र’ लेकर हुआ था ।
नरक चतुर्दशी
कार्तिक अमावस्या (४ नवंबर) : ब्राह्ममुहूर्त पर साभ्यंगस्नान करते हैं । चिचडा नामक वनस्पति की शाखा से सिर से पैर तक तथा पुनः सिर तक जल प्रोक्षण करते हैं । इसके लिए जड से युक्त चिचडा वनस्पति का उपयोग करते हैं ।
यमतर्पण : साभ्यंगस्नान के उपरांत अकाल मृत्यु निवारणार्थ यमतर्पण करने हेतु कहा गया है । इस तर्पण की विधि पंचांग में दी गई होती है । पश्चात मां बच्चों की आरती उतारती है । कुछ लोग साभ्यंगस्नान के पश्चात नरकासुर के वध के प्रतीक स्वरूप कारीट (एक प्रकार का कडवा फल) पैर से कुचलकर उडाते हैं तथा कुछ लोग उसका रस जीभ पर लगाते हैं ।
दोपहर में ब्राह्मणभोजन करवाते हैं और वस्त्रदान करते हैं ।
प्रदोषकाल में दीपदान करते हैं । प्रदोषव्रत लिया हो, तो प्रदोषपूजा एवं शिवपूजा की जाती है ।
लक्ष्मीपूजन
कार्तिक अमावस्या (४ नवंबर) : इस दिन प्रातःकाल मंगलस्नान कर देवतापूजन, दोपहर में पार्वणश्राद्ध एवं ब्राह्मण-भोजन और संध्याकाल में (प्रदोषकाल में) फूल-पत्तों से सुशोभित मंडप में लक्ष्मी, श्रीविष्णु एवं कुबेर की पूजा की जाती है ।
लक्ष्मीपूजन करते समय एक चौकी पर अक्षत से अष्टदल कमल अथवा स्वस्तिक बनाकर उस पर लक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना करते हैं । कहीं-कहीं कलश पर ताम्रपात्र रखकर उसपर लक्ष्मी की मूर्ति की स्थापना करते हैं । लक्ष्मी के समीप ही कलश पर कुबेर की प्रतिमा रखते हैं । उसके पश्चात लक्ष्मी इत्यादि देवताओं को लौंग, इलायची एवं शक्कर डालकर बनाए गए गाय के दूध से बने खोये का भोग चढाते हैं । धनिया, गुड, धान की खीलें, बताशा इत्यादि पदार्थ लक्ष्मी को चढाकर तत्पश्चात इष्ट-मित्रों में बांटते हैं ।
अमावस्या : शरद ऋतु के आश्विन मास की पूर्णिमा तथा यह अमावस्या भी कल्याणकारी है ।
बलि प्रतिपदा
कार्तिक शुक्ल पक्ष १ (५ नवंबर) : इस दिन भूमि पर पंचरंगी रंगोली द्वारा बलि एवं उनकी पत्नी विंध्यावली का चित्र बनाकर उनकी पूजा कर बलिप्रीत्यर्थ दीप एवं वस्त्र का दान करते हैं । स्त्रियां अपने पति की आरती उतारकर दोपहर ब्राह्मण भोजन करवाते हैं ।
धर्मशास्त्र कहता है कि ‘बलि राज्य में शास्त्र द्वारा बताए निषिद्ध कर्म छोडकर, लोगों को अपने मनानुसार आचरण करना चाहिए ।’ अभक्ष्यभक्षण, अपेयपान (निषिद्ध पेय का सेवन) एवं अगम्यागमन; ये निषिद्ध कर्म हैं । इसीलिए इन दिनों लोग बारूद उडाते हैं; परंतु मदिरा नहीं पीते ! शास्त्रों से स्वीकृति प्राप्त होने के कारण परंपरानुसार लोग मौजमस्ती करते हैं ।
इस दिन गोवर्धन पूजा करने हेतु गोबर का पर्वत बनाकर उसपर दूर्वा एवं पुष्प चढाते हैं । इनके समीप कृष्ण, इंद्र, गाय, बछडे के चित्र सजाकर उनकी भी पूजा करते हैं ।
भाईदूज
कार्तिक शुक्ल २ (६ नवंबर) : इस दिन यम अपनी बहन यमुना के घर भोजन करने गए थे; इसलिए इस दिन को ‘यमद्वितीया’ कहते हैं । इस दिन जो बहन अपने भाई के लिए श्री यमाईदेवी से कुछ मांगती है, देवी के प्रति उसके भाव के अनुसार वह बंधु को मिलता है । इस दिन स्त्री जीव में विद्यमान देवीतत्त्व जागृत होता है तथा उसका लाभ भाई को होता है । – (परात्पर गुरु) परशराम पांडे महाराज
इस दिन भाई बहन के पास जाए और बहन उसकी आरती उतारे । यदि यह संभव न हो, तो वह चंद्र को भाई मानकर उसकी आरती करे । इस दिन किसी भी पुरुष को अपने घर पर या अपनी पत्नी के हाथ का अन्न नहीं खाना चाहिए । इस दिन उसे अपनी बहन के घर वस्त्र, आभूषण इत्यादि लेकर जाना चाहिए और उसके घर भोजन करना चाहिए । ऐसा बताया गया है कि यदि सगी बहन न हो, तो अन्य किसी भी स्त्री को बहन मानकर उसके यहां भोजन करना चाहिए ।
तुलसी विवाह
तिथि : यह विधि कार्तिक शुक्ल १२ (१६ नवंबर) से पूर्णिमा तक किसी भी दिन करते हैं ।
पूजन : श्रीविष्णु (बालकृष्ण की मूर्ति) का तुलसी से विवाह करने की यह विधि है । इस हेतु, विवाह के पहले दिन तुलसी-वृंदावन को रंग लगाकर सुशोभित करते हैं । वृंदावन में गन्ना, गेंदे के पुष्प चढाते हैं एवं जड के पास इमली और आंवला रखते हैं ।
विशेषताएं : कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वादशी पर तुलसी विवाह के उपरांत चातुर्मास में रखे गए सर्व व्रतों का उद्यापन करते हैं । जो पदार्थ वर्जित किए हों, वह ब्राह्मण को दान कर, फिर स्वयं सेवन करें ।
यमदीपदान
कार्तिक कृष्ण १२ (२ नवंबर) : कालमृत्यु से कोई नहीं बचता और न ही वह टल सकती है; परंतु ‘किसी को भी अकाल मृत्यु न आए’, इस हेतु धनतेरस पर यमधर्म के उद्देश्य से गेहूं के आटे से बने तेल युक्त तेरह दीप संध्याकाल के समय घर के बाहर दक्षिणाभिमुख लगाएं । सामान्यतः दीपों को कभी भी दक्षिणाभिमुख नहीं रखते, केवल इसी दिन इस प्रकार रखते हैं । आगे दिए गए मंत्र से प्रार्थना करें । मृत्युना पाशदंडाभ्यां कालेन श्यामयासह । त्रयोदश्यांदिपदानात् सूर्यजः प्रीयतां मम ॥ अर्थ : धनतेरस पर यमप्रीत्यर्थ किए गए दीपदान से वे प्रसन्न होकर मृत्यु के पाश से मुझे मुक्त करें एवं मेरा कल्याण करें ।
देवदीपावली
तिथि : कार्तिक पूर्णिमा (१९ नवंबर)
पूजन : इस दिन अपने कुलदेवता तथा इष्टदेवता सहित, स्थानदेवता, वास्तुदेवता, ग्रामदेवता एवं गांव के अन्य मुख्य उपदेवता, महापुरुष, बेताल आदि निम्न स्तरीय देवताओं की पूजा कर उनकी रुचि का प्रसाद पहुंचाने का कर्तव्य पूर्ण किया जाता है । देवदीपावली पर पकवानों का महानैवेद्य (भोग) चढाया जाता है ।