न्यायालय में निर्दाेष; परंतु न्यायालय के जालस्थल (वेबसाइट) पर आरोपी ही !

पू. (अधिवक्ता) सुरेश कुलकर्णीजी

     फौजदारी अपराधों में निर्दोष छूटने पर भी न्यायालय की प्रविष्टि और ‘गूगल’ जैसे ‘सर्च इंजिन’ पर उस व्यक्ति के सभी आरोपों की जानकारी प्राप्त होती है । वहां उसका नाम एक आरोपी के रूप में प्रविष्ट किया जाता है । इसलिए वह निर्दाेष होते हुए भी उसकी मानहानि होती है । इसलिए यह प्रविष्टियां निकाल दी जाएं, ऐसी मांग करनेवाली याचिकाए न्यायालयों में आती रहती हैं ।

१. न्यायालय द्वारा निर्दाेष छोडे जाने पर भी न्यायालय के जालस्थल (वेबसाइट) संबंधितों की आरोपी के रूप में प्रविष्टि की जाना !

     ‘हाल ही में मद्रास उच्च न्यायालय ने एक अलग-थलग याचिका पर निर्णय दिया । याचिकाकर्ता के विरुद्ध एक महिला ने बलात्कार और धोखाधडी का आरोप लगाया । उस पर कनिष्ठ न्यायालय में अभियोग चला और न्यायालय ने उसे आरोपी समझकर दंड दिया । इस निर्णय को उसने मद्रास उच्च न्यायालय में चुनौती दी । उच्च न्यायालय ने उसे बलात्कार और धोखाधडी के आरोपों से निर्दोष मुक्त किया । इसके उपरांत भी ‘गूगल’ पर न्यायालय की प्रविष्टि में उस व्यक्ति के नाम से फौजदारी अपराधों की प्रविष्टि दिखाई दे रही थी, साथ ही उनके विरोध में किए गए गंभीर आरोपों का उल्लेख भी प्राप्त हो रहा था । यह प्रविष्टियां निकाल दी जानी चाहिए । अन्यथा ऐसे निर्दोष छूटने का कुछ भी लाभ नहीं ।

२. मडगांव विस्फोट में फंसाए गए हिन्दुत्वनिष्ठ निर्दाेष छूटने पर भी अनेक माध्यमों में उनकी अपराधी के रूप में प्रविष्टि होना !

     इस प्रकरण का विचार करते हुए एक बात प्रकर्षता से अनुभव हुई कि कांग्रेस सरकार ने धर्मांधों को प्रसन्न करने के लिए ‘हिन्दू आतंकवाद’ सिद्ध करने का प्रयास किया । इसलिए वर्ष १९९३ से आज तक अनेक निष्पाप हिन्दुओं को आतंकवादी अभियोगों में उलझाया गया । ‘हिन्दू ही बमविस्फोट करते हैं’, ऐसा दिखाने के लिए कांग्रेस ने मडगांव बमविस्फोट प्रकरण में ऐन दीपावली के दिन सनातन के निष्पाप साधकों को जानबूझकर फंसाया । उनमें उच्चशिक्षित २ अभियंता भी थे । ये सभी लोग ४ वर्ष कारागृह में थे । इन सभी सनातन के साधकों को निर्दोष मुक्त किया गया, इतना ही नहीं, तो राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (एनआइए) न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि ‘जानबूझकर सनातन संस्था का आरोप पत्र में उल्लेख किया गया है ।’ तदुपरांत भी ‘एनआइए’ ने मुंबई उच्च न्यायालय की गोवा खंडपीठ में चुनौती देकर ३ वर्ष यह अभियोग चलाया । उनकी निर्दोषिता उच्च न्यायालय ने भी स्वीकार की । ऐसा होते हुए भी आज तक उन पर हुए अन्याय, प्रताडना के विषय में किसी भी समाचारपत्र अथवा इलेक्ट्रॉनिक माध्यम ने आंसू नहीं बहाए । इतना ही नहीं अपितु उनके निर्दोष छूटने के समाचार को भी प्रकाशित नहीं किया गया । आज भी न्यायालयीन प्रविष्टि, साथ ही अनेक सामाजिक जालस्थलों (वेबसाइट) पर वे सभी लोगें पर बमविस्फोट के अपराधी होने का उल्लेख पाया जाता है । अन्वेषण अभिकरण अनेक बार खरे अपराधियों को बचाने के लिए निष्पाप लोगों को अपराधों में फंसाती है, जिस कारण उनकी समाज में अत्यधिक मानहानि होती है । कुछ वर्षाें के उपरांत वे निर्दोष छूटते हैं; परंतु ऐसे आरोपों को आधार बनाकर चुनाव लडने के लिए वे कोई नेता तो हैं नहीं । इसलिए ऐसे अनेक लोगों का जीवन नष्ट होता है ।

३. मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा इस अभियोग के विषय में सभी सरकारी और उच्च न्यायालय के अधिवक्ताओं को अपना मत प्रस्तुत करने के लिए कहना !

     ‘आरोपी निर्दोष छूटने पर उसकी मानहानि करनेवाला उल्लेख कहीं भी न हो’, यह सूचना मद्रास उच्च न्यायालय ने स्वीकार की । इस संदर्भ में न्यायालय ने राज्य और केंद्र सरकार के अधिवक्ता, साथ ही उच्च न्यायालय के सभी बार एसोसिएशन के सदस्यों को उनके विचार और तर्क प्रस्तुत करने की विनती की । न्यायालय ने कहा, ‘यह एक दुर्लभ याचिका है और इस विषय में मुझे आप सभी के मत जानना है ।’

     इस विषय में विविध पुराने अभियोगों पर चर्चा हुई और अनेक निर्णयों का विवेचन किया गया । इस समय याचिकाकर्ता ने भी याचिका प्रविष्ट करते हुए जिन निर्णयों का आधार लिया था, उन निम्न निर्णयों पर भी चर्चा हुई । जिनमें प्रमुखता से –

३ अ. सर्वोच्च न्यायालय का ‘नरेश श्रीधर मिरजकर विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य १९६७’ अभियोग,

३ आ. वर्ष १९९४ में सर्वोच्च न्यायालय का ‘तमिल विकली’ के संपादक, राज गोपाला विरुद्ध तमिलनाडु राज्य,

३ इ. वर्ष २०१८ में सर्वोच्च न्यायालय में त्रिपाठी द्वारा प्रविष्ट की गई याचिका में इन तीनों अभियोगों के निर्णयों पर चर्चा की गई । इनके विषय में संक्षेप में समझ लेंगे ।

     वर्तमान भारत में जो कानून अस्तित्व में है उनमें कहीं भी यह प्रावधान नहीं है कि आरोपी के निर्दाेष छूटने पर उसका नाम कामकाज से निकाल दिया जाए अथवा उसका आरोपी के रूप में उल्लेख न किया जाए । न्यायालय के समक्ष याचिका स्वीकार करने के लिए आवश्यक कानून अथवा अन्य मार्गदर्शक तत्त्व वर्तमान में उपलब्ध नहीं है । ऐसे कुछ अभियोगों का निर्णय करते समय न्यायालय को पहले दिए गए न्यायपत्रों का संदर्भ लेना आवश्यक है । इसलिए न्यायालय ने इस याचिका पर निर्णय देते हुए निम्न अभियोगों के ऐसे उदाहरण दिए जिनमें ‘आरोपी का नाम निकाल दिया जाए’, इस प्रकार का निर्णय नहीं था ।

३ अ १. ‘नरेश श्रीधर मिरजकर विरुद्ध महाराष्ट्र राज्य १९६७’ अभियोग नरेश मिरजकर ‘ब्लिट्ज’ नियतकालिक की मुंबई शाखा में पत्रकार था । न्यायालय में ‘ठाकर कृष्णराज विरुद्ध आर.के. करंजिया’ में ३ लाख की मानहानि का अभियोग आरंभ था । इस अभियोग में भाईचंद गौडा का कथन (गवाही) लिया गया । इस अभियोग का पूर्ण वृत्तांकन ‘ब्लिट्ज’ में प्रकाशित होता था । नरेश मिरजकर ने २४.९.१९६० के दैनिक में ‘स्कैंडल बिगर थियान मूनरा’ शीर्षक के अंतर्गत ‘बहुत बडी मात्रा में घोटाला हुआ है’, ऐसा लेख प्रकाशित किया । इस लेख में कहा गया कि ‘३ बनावटी हैंडलूम प्रतिष्ठान दिखाकर उनके लिए सिल्क की आयात की गई और सरकार से बडी मात्रा में कर चोरी की गई; इसलिए इसमें बडा भ्रष्टाचार हुआ है ।’ टाइम्स ऑफ इंडिया ने छोटा समाचार प्रकाशित किया था । करंजिया की विनती पर पुन: जांच हेतु भाईचंद गौडा को बुलाया गया । गौडा ने न्यायमूर्ति तारकुंडे से विनती की, ‘मेरा कथन (गवाही) और उसका ध्वनिचित्रण दैनिक में प्रकाशित न होने दें । मैंने प्रथम दिन जो कथन दिया था, उसके समाचार के कारण मेरे व्यवसाय पर परिणाम हुआ है तथा मेरी अत्यधिक आर्थिक हानि हुई है ।’ इसका कारण यह था कि भाईचंद गौडा ने न्यायालय में दिए कथन और आयकर विभाग के पास उपलब्ध जानकारी में अंतर पाया गया ।

     इस अंतर को आधार बनाकर ही ‘ब्लिट्ज’ दैनिक में समाचार प्रकाशित किया गया था । गौडा की विनती न्यायालय ने स्वीकार की । तदुपरांत न्यायालय ने सभी दैनिकों को मौखिक आदेश दिया, ‘गौडा का कथन किसी भी दैनिक में प्रकाशित न किया जाए ।’ न्यायालय द्वारा आदेश देने के उपरांत पत्रकार नरेश मिरजकर ने न्यायालय को यह आदेश लिखित में देने की विनती की । तब न्यायालय ने कहा कि ‘हमारा आदेश मौखिक हो अथवा लिखित, उसका पालन करना अनिवार्य है ।’ इस प्रकार न्यायालय ने केवल मौखिक आदेश दिया ।

     इस एकमात्र सूत्र के आधार पर नरेश मिरजकर ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की, जिसमें उसने तर्क किया कि ‘पत्रकारों के अधिकार छीने जा रहे हैं ।’ उसने ऐसा भी कहा कि ‘‘न्यायालय का पूरा कामकाज सभी के लिए खुला है । इस कामकाज में पक्षकार सहित किसी भी व्यक्ति को आने की स्वतंत्रता होती है और निर्णय भी पक्षकार के समक्ष ही दिया जाता है । ये सभी धाराएं भारतीय संविधान में होते हुए भी न्यायालय द्वारा इस प्रकार का प्रतिबंध लगाना अवैध है ।’’

     सर्वोच्च न्यायालय ने एक भिन्न कारण से नरेश मिरजकर की याचिका निरस्त की । न्यायालय ने कहा कि ‘‘जब किसी अभियोग में न्यायमूर्ति आदेश देते हैं, तब पक्षकार अथवा तटस्थ अपील कर सकते हैं और आप उसी आदेश के विरुद्ध अपील करें ।’’ ‘रिट याचिका पर सुनवाई नहीं होगी’, ऐसा कहकर याचिका का निर्णय किया गया । मद्रास उच्च न्यायालय में भी निर्णय लेते समय इस निर्णय के आधार पर तर्क-वितर्क हुआ ।

३ आ १. के.आर. राजगोपाला विरुद्ध तमिलनाडु राज्य अभियोग : मद्रास उच्च न्यायालय में के.आर. राजगोपाला के अभियोग का आधार लिया गया । के.आर. राजगोपाला ‘तमिल वीकली’ के संपादक थे । इस नियतकालिक में जिस आरोपी की आत्मकथा प्रकाशित हो रही थी, उस पर ६ लोगों की हत्या का आरोप था और वह कारागृह में दंड भोग रहा था । अपनी आत्मकथा में उसने कारागृह में रहते हुए बताया, ‘‘मैंने जो अपराध किए हैं, उसके लिए पुलिस अधीक्षक, पुलिस आयुक्त, जिलाधिकारी जैसे बडे लोग उत्तरदायी है अथवा उसमें सहभागी है ।’’ तदुपरांत ‘इस आरोपी का आत्मचरित्र प्रकाशित न करें’, ऐसा आदेश तमिलनाडु राज्य के पुलिस महासंचालक ने दिया । अर्थात उनके आदेश को न्यायालय में चुनौती दी गई ।

     इस याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने पुन: एक बार सीपीसी, सीआरपी की कुछ धाराएं उद्धृत कीं और कहा, ‘‘ऑफिशियल सिक्रेट्स एक्ट १९२३’ के अनुसार समाचारपत्रों के लिए कुछ प्रतिबंध होते हैं; परंतु ये प्रतिबंध पब्लिक रिकॉर्ड अथवा न्यायालय रिकॉर्ड हेतु हैं । इसलिए वार्तांकन के समय पत्रकारों पर ऐसे बंधन लगाना अनुचित है । यदि आपको वार्तांकन पूरा ही अवैध अथवा अनुचित लगता हो, तो आप पत्रकार अथवा ‘तमिल वीकली’ साप्ताहिक के विरुद्ध दावा प्रविष्ट कर सकते हैं । न्यायालय अवश्य ही उस पर विचार करेगा; परंतु महासंचालक ‘कुछ भी जानकारी न छापें’, ऐसा कहने का अधिकार नहीं है’’, ऐसा तर्क केंद्र और राज्य सरकार की ओर से मद्रास उच्च न्यायालय में किया गया और उसे स्वीकारा गया । जिस कारण दैनिक में वह समाचार प्रकाशित होने में आनेवाली बाधाएं दूर हुईं ।

३ इ १. न्यायालय के कामकाज का सीधा प्रसारण करने के विषय में सचिन त्रिपाठी की सर्वोच्च न्यायालय में याचिका : न्यायालय के कामकाज का सीधा प्रसारण करने के संदर्भ में सचिन त्रिपाठी सीधे सर्वाेच्च न्यायालय में गए । उसका भी विवेचन मद्रास उच्च न्यायालय में किया गया । आज तकनीक में अत्यधिक प्रगति हुई है । ‘जिस प्रकार जनता दूरदर्शन के माध्यम से संसद के अधिवेशन देख सकती है, उसी प्रकार जनता को न्यायालय के कामकाज का भी सीधा प्रसारण दिखाया जाए’, इस मांग हेतु सचिन त्रिपाठी ने याचिका प्रविष्ट की थी । त्रिपाठी का तर्क था कि यदि ऐसा हुआ, तो ‘न्यायालय में किस प्रकार कामकाज होता है ?’, यह लोगों को ज्ञात होगा और उनके मन में न्यायालय के विषय में विश्वास निर्माण होगा ।’

     इस याचिका पर निर्णय सुनाते हुए सर्वाेच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने कहा, ‘‘आज तकनीक समृद्ध हुई है । हम न्यायालय के कामकाज का सीधा प्रसारण करने के पहले अधिकृत जालस्थल (वेबसाइट) चालू करेंगे । जिस पर आप अभियोग का नाम, क्रमांक, उसमें सहभागी पक्षकार, निर्णय और उस अभियोग की स्थिति देख सकेंगे । साथ ही हम ‘लाइव स्ट्रिमिंग’ आरंभ करने का विचार कर रहे हैं । याचिकाकर्ता के सुझावानुसार हमारे प्रयास जारी हैं; परंतु उसकी निश्चित समयसीमा हम नहीं बता सकते ।’’

     इस समय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने दो सूत्र प्रविष्ट किए । भारतीय विवाहविच्छेद कानून, यौन शोषण के अभियोग, पति-पत्नी के वैवाहिक अभियोग के समय दिए गए कथन (गवाही) इत्यादि प्रकाशित नहीं किए जाएंगे । इसकी ओर ध्यान देना होगा, ऐसा आदेश दिया गया ।

४. मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा जालस्थल (वेबसाइट) पर निर्दाेष आरोपी का नाम हटाने की याचिका निरस्त करना !

     केंद्र सरकार और राज्य सरकार व्यापक स्तर पर पारदर्शकता का विचार कर रही है । इसलिए कोई आरोपी निर्दोष छूट गया; इसलिए उसका नाम उस अभियोग अथवा न्यायालय के अधिकृत जालस्थल (वेबसाइट) से हटाने को मान्य नहीं किया जा सकता । भारत सरकार ने वैसा कोई भी कानून नहीं बनाया है, साथ ही सर्वोच्च न्यायालय का भी इस प्रकार का कोई निर्णय नहीं है । इसलिए मद्रास उच्च न्यायालय ने ३ अगस्त २०२१ को यह याचिका निरस्त की ।

५. न्यायालयीन जालस्थल से प्रविष्टि हटाने के विषय में दिल्ली उच्च न्यायालय में भी याचिका प्रविष्ट

     जयदीप मीरचंदानी और अन्य एक व्यक्ति ने हाल ही में देहली उच्च न्यायालय में याचिका प्रविष्ट की । उनके विरुद्ध प्रविष्ट फौजदारी अभियोग न्यायालय ने निरस्त किया था; परंतु न्यायालय के जालस्थल (वेबसाइट) पर उनका उल्लेख आरोपी ही था । इस अभियोग की आड में उनकी मानहानि करनेवाले अनेक लेख आज भी जालस्थल पर हैं । इस प्रकरण में न्यायालय ने प्रतिवादी को ‘कारण बताओ’ नोटिस जारी करने का आदेश दिया । इस कारण उनका व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन संकट में है तथा उन्हें व्यवसाय करने में भी अडचनें आ रही हैं इस पृष्ठभूमि पर ऐसा लगता है कि ‘निर्दाेष छोडे गए व्यक्ति के फौजदारी अपराधों की प्रविष्टि जालस्थल पर होना अनुचित है । इसलिए ऐसी प्रविष्टियां हटाई जाएं ।’

६. ऐसे सभी अभियोग सर्वाेच्च न्यायालय में प्रविष्ट करने पर विविध उच्च न्यायालयों का समय बचेगा !

     इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय न होने से विविध न्यायालयों में ऐसे अभियोग प्रविष्ट किए जाते हैं । इसलिए इस विषय की सुनवाई हेतु न्यायमूर्ति का समय व्यय होता है । ये सभी अभियोग सर्वोच्च न्यायालय में प्रविष्ट किए जाएं, जिससे विविध उच्च न्यायालयों का समय बचेगा । अभी एक महिने में एक ही विषय पर मद्रास और देहली उच्च न्यायालयों में सुनवाई हुई । देहली का निर्णय अलग नहीं होगा; परंतु इससे समय का अपव्यय होता है । हिन्दू राष्ट्र में इन सभी बातों का विचार किया जाएगा ।’

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, संस्थापक सदस्य, हिन्दू विधिज्ञ परिषद और अधिवक्ता, मुंबई उच्च न्यायालय. (२८.८.२०२१)