नवरात्रि के उपलक्ष्य में देवी के ५१ शक्तिपीठों में से एक कालीमाता मंदिर का परिचय एवं आदिशक्ति के दर्शन !
नवरात्रोत्सव देवी का उत्सव है ! इस काल में पृथ्वी पर देवी तत्त्व अन्य दिनों की तुलना में १ सहस्र गुना आता है । उसका लाभ होने हेतु घर-घर घटस्थापना करना, देवी के सामने नंदादीप प्रज्वलित करना, कुमारिका पूजन, उपवास रखना आदि माध्यमों से देवी की उपासना की जाती है । अनेक श्रद्धालु देवी के जागृत मंदिरों में जाकर देवी के दर्शन करते हैं । इस वर्ष कोरोना महामारी की पृष्ठभूमि पर मंदिर और धार्मिक स्थल बंद हैं । इस लेख के माध्यम से ५१ शक्तिपीठों में से एक, इस तीर्थस्थान के दर्शन कर सभी में भक्तिभाव बढे’, यह आदिशक्ति जगदंबा के चरणों में प्रार्थना है !
५१ शक्तिपीठों के उत्पत्ति की कथा‘देवी पुराण में ५१ शक्तिपीठों की उत्पत्ति कैसे हुई, इसका वर्णन है । पहले दक्ष प्रजापति राजा ने कनखल (हरिद्वार) में बृहस्पति यज्ञ किया था और उन्होंने इस यज्ञ के लिए ब्रह्माजी, श्रीविष्णु, इंद्र एवं अन्य सभी देवताओं को आमंत्रित किया था । दक्ष प्रजापति राजा ने केवल अपने जमाई अर्थात भगवान शिवजी को ही यज्ञ के लिए आमंत्रित नहीं किया, उस समय भगवान शिव द्वारा वहां न जाने के लिए कहने पर भी शिवजी की पत्नी तथा दक्ष राजा की कन्या यज्ञ के लिए पिता के घर गई । उन्होंने अपने पिता को जब शिवजी को यज्ञ के लिए आमंत्रित न करने का कारण पूछा, तब दक्ष राजा ने भगवान शिवजी के प्रति अपशब्द कहे । अपने पति के संदर्भ में ये अपशब्द सुनकर सती ने यज्ञकुंड में प्रवेश कर अपने प्राण त्याग दिए । जब भगवान शिव को यह समाचार मिला, तब क्रोधित होकर उन्होंने तांडव आरंभ किया । सती का पार्थिव शरीर लेकर भगवान शिव तीनों लोकों में भ्रमण करने लगे । उस समय भगवान शिव के तांडव के कारण होनेवाले विनाश से समस्त सृष्टि की रक्षा होने हेतु भगवान श्रीविष्णु ने सुदर्शनचक्र से सती का पार्थिव शरीर खंडित किया । तब सती के अंग पृथ्वी के जिस-जिस स्थान पर गिरे, वे स्थान आगे जाकर शक्तिपीठों के रूप में प्रचलित हुए । देवी भागवत पुराण के अनुसार १०८, कालिका पुराण के अनुसार २६, शिवचरित्र में ५१, तो दुर्गासप्तशती एवं तंत्रचुडामणी के अनुसार ५२ शक्तिपीठ हैं ।’ (संदर्भ : जालस्थल) |
श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने किए श्री कालीदेवी के दर्शन !
‘भृगु महर्षि की आज्ञा से ७.१२.२०१८ को सनातन की श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने श्री कालीदेवी के दर्शन किए । महर्षि ने इस संदर्भ में नाडीवाचन में बताया था, ‘श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) गाडगीळजी देवी को २१ नींबू की माला अर्पण करें, साथ ही कुमकुमार्चन करें । उसके उपरांत मंदिर के निकट स्थित जल के स्थान पर (सरोवर अथवा नदी हो, तो वहां) १०८ बार ‘ॐ क्रीम् काल्यै नमः’ नामजप करते हुए केले के फूल, कनेर के फूल और आक के फूल चढाएं । उसके उपरांत निर्माल्य का विसर्जन करें और शेष केले के फूलों को अन्नदान में उपयोग करने हेतु वहां के पुजारियों को दें । इन पूजाविधियों के समय श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी नामजप करें और ‘सभी साधकों की ओर से महाकाली के चरणों में मोह, मद एवं क्रोध की मानसबलि चढा रहे हैं’, यह भाव रखें ।’
महर्षि की आज्ञा के अनुसार श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने जैसे ही श्री कालीदेवी के चरणों में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना हेतु प्रार्थना की, वैसे ही श्री कालीदेवी के गले में स्थित गुडहल के फूलों की बडी माला मानो संकेत मिलने की भांति नीचे गिरी । उसके उपरांत मंदिर की यागशाला में एक छोटा याग किया गया । तदुपरांत श्री कालीदेवी मंदिर के पश्चिम में स्थित पुष्करिणी के पास बैठकर श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी ने श्री महाकाली देवी की पूजा की । (इसी पुष्करिणी से श्री महाकाली प्रकट हुई थीं और उसके उपरांत उनकी आज्ञा के अनुसार उनके लिए मंदिर का निर्माण किया गया । – संकलनकर्ता)
– श्री. विनायक शानभाग (१३.१०.२०२०)
‘१८ वीं शताब्दी में निर्मित श्री कालीघाट शक्ति उपासना का केंद्र है । वहां हुगली नदी के तट पर श्री कालीमाता का प्रसिद्ध मंदिर है । वह ५१ शक्तिपीठों में से एक है । यहां सती के दाएं चरण की ४ उंगलियां गिरी थीं । श्री कालीमाता दशमहाविद्याओं में से प्रमुख देवता हैं ।
१. विशाल जिव्हा को बाहर निकाली हुईं चर्तुभुजा श्री कालीमाता !
कालीघाट स्थित श्री कालीमाता की मूर्ति पाषाण से बनाई गई है तथा चतुर्भुजा है । श्री कालीमाता की मूर्ति सदैव ही लाल वस्त्रों से आच्छादित है और उन्होंने जिव्हा (जीभ) बाहर निकाली हुई है । इस विशाल जिव्हा को देवी के जागृत होने का लक्षण माना जाता है । देवी के हाथ में चांदी की तलवार है । उसके हाथों में चांदी के मुंड हैं, साथ ही उन्होंने गले में भी मुंडमाला धारण की है ।
इस स्थान पर कालीमाता के अतिरिक्त शीतला, षष्ठी एवं मंगलाचंडी देवियों के भी स्थान हैं । मंदिर परिसर में श्री राधाकृष्ण का एक प्राचीन मंदिर है, जहां ‘कुडूपुकूर’ नाम से परिचित एक प्राचीन सरोवर भी है । इस सरोवर का जल गंगाजल की भांति पवित्र माना जाता है ।
२. कालीघाट के श्री काली मंदिर की अनूठी परंपरा
बंगाल में दुर्गापूजन के दिन घर-घर में और सार्वजनिक स्थानों पर देवी काली की आराधना की जाती है, साथ ही शक्तिपीठ में लक्ष्मीस्वरूप देवी की विशेष पूजा होती है । दुर्गाेत्सव के समय दशमी के दिन ‘सिंदूर खेला’ होता है । इसके लिए दोहपर २ बजे से सायंकाल ५ बजे तक केवल महिलाओं को ही प्रवेश मिलता है । यहां प्रतिदिन श्री महाकाली देवी के लिए ५६ भोग होते हैं ।
प्रतिवर्ष स्नानयात्रा के समय देवी की मूर्ति को स्नान कराया जाता है । देवी को स्नान कराते समय धार्मिक परंपरा के अनुसार मुख्य पुरोहितों की आंखों पर पट्टी बांधी जाती है ।
मंदिर में नवरात्रि की अष्टमी को पशुबलि चढाई जाती है । यह मान्यता है कि देवीभक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं । कालीघाट का मंदिर तांत्रिक साधना के लिए प्रसिद्ध है ।’
(संदर्भ : जालस्थल)
कालीमाता मंदिर के संदर्भ में कथा
कालीमाता मंदिर के पुजारी ने श्रीचित्शक्ति (श्रीमती) अंजली गाडगीळजी को बताया कि यहां एक वृक्ष के नीचे आत्माराम ब्रह्मचारी और ब्रह्मनंद गिरी, ये २ साधु तपस्या कर रहे थे । हमें जो मूर्ति दिखाई देती है, वह काला पत्थर है । २ साधुओं में से आत्मारामजी को कुंड से एक ज्योति आती हुई दिखाई दी । देवी ने उनसे कहा, ‘मुझे भीतर बिठाओ ।’ तब उन दोनों साधुओं ने देवी की मूर्ति बनाकर भीतर उसकी स्थापना की । देवी के दर्शन के लिए अनेक बडे-बडे संत आए थे । श्री रामकृष्ण परमहंस भी देवी के दर्शन करने आए थे ।
श्री कालीदेवी की जीभ बाहर होने का भावार्थ
‘महिषासुर को मारने हेतु उत्पन्न की गई शक्ति (काली) उसे मारने के उपरांत जो कोई आगे आता था, उसे मारती चली जा रही थी । उन्हें शांत करने के लिए उनके निर्माता शिवजी आगे बढे, तब उन्होंने शिवजी को भी नीचे गिराया और उनकी छाती पर पैर रखकर खडी हो गईं । ऐसा करने पर उन्होंने इस आशय से मुख से जीभ बाहर निकाली कि ‘मैंने यह क्या किया !’ श्री कालीदेवी के इस रूप का भावार्थ निम्नानुसार है –
अ. कालीमाता द्वारा जीभ बाहर निकालकर निर्मित उग्र रूपतमोगुण से असुरों का निर्दालन करनेवाला होना : ‘कालीमाता द्वारा जीभ बाहर निकालकर निर्मित यह उग्र रूप तमोगुण से असुरों का निर्दालन करनेवाला है । जब ब्रह्मांड में तमोगुण का प्रकोप बढकर असुरों के कुहराम का आरंभ होता है, तब दैवीय तमोगुण की सहायता से आदिशक्ति का भयंकर उग्र रूप प्रकट होकर वह असुरों को एक क्षण में भस्म कर देता है । उसी तमोगुण के एक प्रतीक के रूप में कालीमाता के इस रूप का वर्णन किया जा सकता है ।
आ. जीभ बाहर निकाले हुए देवी के रूप का महाउग्र रूप में मारक तरंगों का प्रक्षेपण करनेवाला होना : महाउग्र तथा तमोगुण के माध्यम से कार्य करनेवाले मारक रूप की तरंगों का ब्रह्मांडमंडल में प्रक्षेपण करने हेतु देवी ने जीभ बाहर निकाले हुए उग्र रूप का निर्माण किया था ।
इ. देवी द्वारा जीभ बाहर निकालकर मुंह खोलने का कारण : नाभि से केंद्रित हुई तथा आवश्यकता के अनुसार परावाणी से आवश्यकतानुसार कार्य करनेवाली महामारक तमोगुणी शक्ति वेगसहित सगुण रूप में और पिंड को रिक्ती से बाहर निकलने हेतु अधिकतर जीभ को बाहर निकालकर मुंह खोला जाता है ।
ई. जीभ को बाहर निकालकर मुख की रिक्ती से बाहर निकलनेवाली उग्र ज्वालाएं तप्त लावा रस की भांति होना : इस उग्र रूप के दर्शन से असुर भी भयभीत हो जाते हैं; क्योंकि ‘जीभ’ को बाहर निकालकर खुले हुए मुख की रिक्ती से असुरों को भस्मसात करनेवाले तप्त लावारस की भांति बाहर निकलनेवाली उग्र ज्वालाएं संपूर्ण ब्रह्मांडमंडल में स्थित असुरों को निगलने के लिए ही होती हैं; इसलिए जिस समय देवीतत्त्व के द्वारा जीभ बाहर निकालकर उग्र महाभयंकर रूप की निर्मिति की जाती है, उस समय असुरों के विनाशकाल का आरंभ हो चुका होता है और उसी का यह संकेत होता है ।’
– एक विद्वान [(श्रीसत्शक्ति) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, ८.३.२०१२, दोपहर २.१७]