सर्वाेत्तम शिक्षा कौन-सी है ?

पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी

     पूज्य डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का दृढ आधार होना, भारतीय संस्कृति द्वारा मनुष्य के जीवन की वास्तविकता पर प्रकाश डालना एवं मनुष्य जीवन के बंधन से मुक्ति मिलने हेतु शिक्षा चाहिए । इस विषय में जानकारी देखी थी । आज उससे आगे का विषय इस लेख में देखेंगे । (भाग ४)

२. आधुनिक समाज, मान्यताएं (सभ्यता की संकल्पना) एवं दोष

     आधुनिक समाज की मान्यताओं (सभ्यता की संकल्पना) एवं सामाजिक व्यवस्थाओं की पुष्टि करती हुई तदनुकूल शिक्षा का प्रचलन । इसलिए आधुनिक शिक्षा का रूप समझने के लिए आधुनिक समाज और उनकी मान्यताओं का अवलोकन आवश्यक है । वर्तमान में प्रचलित सामाजिक व्यवस्थाओं एवं मान्यताओं से हम सभी का भली-भांति परिचय होने के कारण इनका अत्यंत संक्षिप्त विवरण इस खंड में प्रस्तुत किया गया है ।

२ अ. समाजव्यवस्था सुचारू रूप से चलने के लिए प्रत्येक मनुष्य को राष्ट्र्र एवं समाज द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना आवश्यक होना : मनुष्य सामाजिक प्राणी है । समाज की संरचना ऐसी होनी चाहिए जिससे प्रत्येक मनुष्य को कम से कम इतनी भौतिक सुविधाएं अवश्य मिलें जिनसे उसका जीवन-यापन सुचारू रूप से होता रहे । प्रत्येक मनुष्य को अपनी शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता के विकास का अवसर मिलना चाहिए । समाज के मनुष्यों को विभिन्न प्रकार के वर्गों (उच्च-निम्न, काले-सफेद आदि वर्गाें) में न बांटने का आदर्श रखा जाता है, परंतु व्यवहार में समाज धन, भाषा, प्रांत, रंग के आधार पर बंटा हुआ स्पष्ट दिखलाई देता है । अपनी-अपनी सुविधा एवं योग्यता के अनुसार सभी को अर्थ (धन-संपत्ति अर्जित करने तथा काम (इच्छा) की पूर्ति करने के लिए प्रयत्न करने का अधिकार है । इस कार्य के लिए मनुष्य का समाज में किसी भी प्रकार का वर्गीकरण नहीं किया गया है । परंतु अपने-अपने कार्याें (राजनीति, नौकरी, चिकित्सा, व्यापार इत्यादि) के अनुसार समाज विभिन्न वर्गाें में स्वयं ही विभाजित हो जाता है । सामाजिक व्यवस्था सुचारू रूप से चलने के लिए प्रत्येक मनुष्य को राष्ट्र तथा समाज द्वारा बनाए गए नियमों का पालन करना चाहिए । नियमों का उल्लंघन करने पर मनुष्य दंड पाने का भागी होता है ।

२ आ. आधुनिक मान्यताएं एवं दोष

     मान्यताओं एवं दोषों का वर्णन निम्न पंक्तियों में पृथक-पृथक किया गया है । प्रत्येक मान्यता के साथ ही तत्पश्चात उसके दोष का वर्णन है ।

२ आ १. इस संसार में प्रत्यक्ष पदार्थों का ही अस्तित्व है ! – संसार में उन्हीं पदार्थों का अस्तित्व है जो ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्रत्यक्ष रूप से जानी जा सकती हैं, अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है ।

२ आ १ अ. इस मान्यता के दोष : यह मान्यता समझने में सरल है किंतु दोषपूर्ण है; क्योंकि अतींद्रिय सत्ताओं की भी विद्यमानता होती है । उदाहरण के लिए मनुष्य की बहुत-सी शारीरिक बीमारियों का आरंभ अव्यक्त पदार्थाें से होता है, बहुत-सी बीमारियां भी अपनी अत्यंत प्रारंभिक अवस्था में अव्यक्त रहती हैं, जिनका भान ज्ञानेंद्रियों द्वारा नहीं हो पाता । और भी अधिक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, इसके लिए प्रस्तुत पुस्तक का खंड ७.६ देखिए ।

२ आ २. प्रकृति (Nature) ही सब कुछ है ! : यह संसार प्रकृति का विस्तार है तथा मनुष्य भी प्रकृतिप्रदत्त जीव है । इस संसार में प्रकृति के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।

२ आ २ अ. इस मान्यता के दोष : प्रकृति जड पदार्थ है । वह अपने आप स्वयं कुछ नहीं कर सकती, जब तक उसके साथ कोई चेतन शक्ति विद्यमान न हो । जड शक्ति की नियमबद्धता चेतनशक्ति के कारण है । मनुष्य केवल प्रकृति प्रदत्त पदार्थ नहीं है, उसमें चेतन शक्ति भी विद्यमान है ।

२ आ ३. प्रकृति मनुष्य के भोग के लिए है ! : प्रकृति के सभी पदार्थ मनुष्य के भोग के लिए हैं । मनुष्य अपने सामर्थ्य के अनुसार जितना चाहे उतना उसे भोगे ।

२ आ ३ अ. इस मान्यता के दोष – प्रकृति के पदार्थों को मनुष्य के भोग के लिए समझने के कारण मनुष्य अधिकाधिक प्राकृतिक पदार्थों की खोज करेगा जिससे कि उन्हें भरसक भोगा जा सके । प्रकृति को भोगने की दौड में इस विचार की अवहेलना होगी कि प्राकृतिक संपदा सीमित है तथा उसके समाप्त या विकृत होने के पश्चात मनुष्य की क्या दशा होगी । भौतिक संपदा पाने के लिए मनुष्य कठिन परिश्रम करेगा, अपने प्रयत्नों में सफल होने पर सुख एवं संतुष्टि का अनुभव करेगा और उसे भौतिक ऐश्वर्य की प्राप्ति भी होगी परंतु इसके पश्चात ही और अधिक पाने की लालसा बलवती होगी जो उसके सुख और संतोष को न्यून करेगी, क्षीण करेगी, क्योंकि यह तृष्णा दुःखदायी हुआ करती है । संचित की हुई प्राकृतिक संपदा मनुष्य एवं समाज के अहंकार (घमंड) को पुष्ट करेगी, यह अहंकार मनुष्य एवं समाज में विभिन्न समस्याओं का एक मुख्य कारण होता है ।

     यह विचार यथार्थ नहीं कि प्रकृति केवल मनुष्य के भोग के लिए है । मनुष्य यदि तप करे तो प्रकृति मनुष्य को दिव्य शक्तियां प्रदान कराती है । प्रकृति मनुष्य के अपवर्ग (मोक्ष) का साधन भी है । प्रकृति ने ही प्रेम करने के लिए हृदय दिया है ।

२ आ ४. मनुष्य के अस्तित्व का काल उसके जन्म से मृत्यु तक ही है ! : मनुष्य का जन्म होता है और मृत्यु होती है । मनुष्य के जीवन का काल इन्हीं दो बिंदुओं के बीच का काल है । जन्म से पहले और मृत्यु के पश्चात उस मनुष्य का अस्तित्व किसी भी रूप में नहीं रहता ।

२ आ ४ अ. इस मान्यता के दोष : मनुष्य के अस्तित्व के विषय में उक्त विचार निराधार हैं । जन्म से पहले और मृत्यु के पश्चात दोनों स्थितियों में उस मनुष्य का अस्तित्व किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है । पुनर्जन्म की अवधारणा, जो प्रामाणिक रूप से सत्य पाई गई हैै, यह सिद्ध करती है कि मनुष्य का अस्तित्व जन्म से पहले और मृत्यु के पश्चात भी सूक्ष्म रूप में रहता है । सत्यकार्यवाद सिद्धांत और कर्मफल सिद्धांत दोनों ही पुनर्जन्म के सिद्धांत की पुष्टि करते हैं । मनुष्य का जीवन काल सीमित समझने से भोगवादी प्रवृत्ति में निष्ठा बढेगी और मनुष्य सहज रूप से स्वाभाविक (नैसर्गिक) प्रवृत्तियों में संलग्न रहेगा, आसक्त रहेगा । ये स्वाभाविक प्रवृत्तियां चार हैं – आहार (भोजन), निद्रा (विश्राम), भय और मैथुन (कामवासना । ये चारों प्रवृत्तियां मनुष्य और पशु में समान रूप से पाई जाती हैं । यदि हम विचार करके देखें तो पाते हैं कि मनुष्य की बुद्धि इन्हीं प्रवृत्तियों से संबंधित कार्याें में अधिकांशतः संलग्न रहती है । इन प्रवृत्तियों में आसक्त रहकर मनुष्य अपनी बुद्धि द्वारा पशु सभ्यता को अलंकृत करेगा ।

२ आ ५. मनुष्य सामाजिक प्राणी है ! : समाज में मनुष्य उत्पन्न हुआ है; इसलिए सामाजिक प्राणी है । समाज के सुचारू रूप से संचालन के लिए उसे नैतिक जीवन जीना चाहिए तथा समाज के उत्थान के लिए उसे कार्यरत रहना चाहिए ।

२ आ ५ अ. इस मान्यता के दोष : मनुष्य को सामाजिक प्राणी मानना उचित एवं व्यावहारिक लगता है, परंतु इस विचार में अधिक निष्ठा उसके अपने स्वयं के पूर्ण विकास में अवरोधक भी है । सामाजिक प्राणी होने के नाते उसका केवल यही मुख्य दायित्व रह जाएगा कि समाज में रहकर अच्छा नागरिक बने, समाज के उत्थान के लिए कार्यरत रहे तथा नैतिक मूल्यों का पालन करता रहे । इसके कारण वह सामाजिक कार्यों में ही निमग्न रहेगा । वह अपने स्वयं के जीवन के उत्थान से वंचित रह जाएगा तथा इसको भी प्रगाढता से नहीं जानेगा कि पूर्ण विकसित व्यक्तित्व क्या है, मनुष्य के स्वयं की पूर्णता क्या होती है ।

२ आ ६. मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है ! : संसार में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है और मनुष्य शरीर के अंगों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं सर्वोत्तम पदार्थ बुद्धि है ।

२ आ ६ अ. इस मान्यता के दोष – बुद्धि को प्रधानता देने के कारण मनुष्य अन्य संवेदनशील भावनाओं जैसे करुणा, क्षमा, दया, धैर्य, साहस, श्रद्धा आदि के महत्त्व को कम कर देगा और यदि अपने ही शुभचिंतक (माता-पिता, बंधु आदि) अधिक बुद्धिमान एवं धनवान न होंगे, तो वह उनकी अवहेलना कर सकता है । बुद्धि का महत्त्व है, परंतु जीवन की बहुत-सी बातों को समझना बुद्धि से परे है । क्योंकि सांसारिक मानव की बुद्धि दोषपूर्ण एवं सीमित क्षमतावाली होती है (देखिए अध्याय ४ और ५) । इसलिए मनुष्य का जीवन-संग्राम संकुचित रहेगा । विकसित जीवन क्या होता है, इसका उसे भान भी न होगा ।

     यह कहना भी उचित नहीं कि संसार में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है; क्योकि सृष्टि में देवता मनुष्य से श्रेष्ठ होते हैं । कोई-कोई पशु-पक्षी की इंद्रियां मनुष्य की इंद्रियों से अधिक कुशल होती हैं । मनुष्य शरीर में सर्वोत्तम पदार्थ आत्मा है । मानवीय बुद्धि मनुष्य शरीर के अंदर व्याप्त सूक्ष्म शरीर का अंग है जिसकी वर्तमानता आत्म तत्त्व (आत्मा) के कारण है ।

७. मनुष्य की मौलिक आवश्यकता है रोटी, कपडा और मकान ! – प्रत्येक मनुष्य को खाने के लिए रोटी, पहनने के लिए कपडा और रहने के लिए मकान चाहिए । इन न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति समाज की स्थिरता (Stability) और विकास के लिए आवश्यक है ।

२ आ ७ अ. इस मान्यता के दोष : यह धारणा गलत है कि मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं (रोटी, कपडा और मकान) की पूर्ति होने पर परस्पर कलह का वातावरण नहीं बनेगा । इसका कारण है कि मनुष्य में व्याप्त भोग और परिग्रह की वासना सरलता से शांत नहीं होती, तृष्णा बढती ही चली जाती है । प्रारंभ में मनुष्य छोटा-सा मकान पाकर प्रसन्न हो जाता है, किंतु कुछ ही समय पश्चात बडे मकान में रहने की इच्छा होने लगती है, फिर उसे बंगला चाहिए, फिर बगीचे के अंदर मकान (Farm House) चाहिए, फिर यही व्यवस्था बडे शहर या अन्य रमणीय स्थान पर चाहिए इत्यादि । मकान के विषय में मनुष्य की कामना बढती ही चली जाती है । इसी प्रकार रोटी और कपडे के विषय में मनुष्य की कामनाओं का विस्तार होता जाता है, शांति कभी मिलती नहीं । कामनाओं के विस्तार की तृष्णा ही मनुष्य एवं समाज के जीवन में परस्पर कलह का कारण बनती है, जिसे आजकल स्पष्ट रूप से देखा व सुना जाता है । दो अत्यंत धनवान परिवारों या देशों में भयंकर झगडे होना आजकल कोई विशेष बात नहीं रह गई है । अतः यह विचार अत्यंत त्रुटिपूर्ण है कि रोटी-कपडा-मकान की न्यूनतम आवश्यकता के समाधान से मानवीय या सामाजिक समस्याएं हल हो जाएंगी ।                                                                                                                                            (क्रमशः)

– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा

(साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)