उत्तर भारत की प्रथा-परंपराओं में विदेशी आक्रमणों के कारण आए परिवर्तन !

भारत में वर्ष ७०० से पूर्व अर्थात मुगल, अरब, हूण एवं  कुशाण, इन विदेशी आक्रांताओं के आने से पूर्व हिन्दू धर्म की अनेक प्रथा-परंपराओं का अच्छे ढंग से पालन किया जाता था । इन प्रथा-परंपराओं के कारण हिन्दू धर्म की व्यवस्था तथा कुल समाजजीवन सुचारू रूप से चल रहा था । सामान्यरूप से अंग्रेजों के काल में तथा वर्तमान काल में हिन्दू धर्म की प्रथा-परंपराओं का तथा उसमें भी स्त्रियों से संबंधित सूत्रों का विचार किया जाता है । तो विदेशी एवं यवनी आक्रांताओं के आने से पूर्व क्या स्थिति थी, विदेशी आक्रांताओं के उपरांत जैसे यहां की समाजव्यवस्था, व्यवहार, राजतंत्र आदि में परिवर्तन होता गया, वैसे प्रथा-परंपराओं में भी हुआ है । वह किस प्रकार का है, यह इस लेख में देने का प्रयास है !

श्री. यज्ञेश सावंत

१. विवाह समारोह सायंकाल में तथा रात में होना !

उत्तर भारत में विवाह समारोह सायंकाल में तथा अधिकतर रात में होते हुए दिखाई देते हैं । विवाह के मुहूर्त रात के होते हैं । यहां रात मैं कैसे विवाह समारोह होते हैं ?, इसकी समीक्षा की जाए, तो मुगलों के अत्याचारों तक पहुंचा जा सकता है । मुगलों के काल में हिन्दू महिलाओं तथा लडकियों पर दिनदहाडे अत्याचार होते ही थे । इन अत्याचारों से राजवंश की महिलाएं भी अछूती नहीं थीं । मुगलों ने जिन राजाओं-सरदारों को गुलाम बनाया अथवा जिन्हें गुलाम होना पडा; उनकी लडकियों तथा राजवंश की महिलाओं को जंगली तथा वासनांथ मुगलों के यहां दासी के रूप में तथा उनके जनानखाने में भर्ती होना पडता था । ऐसी स्थिति में उस समय सामान्य हिन्दू स्त्रियों के लिए स्थिति कितनी कठिन होगी, इसकी कल्पना की जा सकती है ।

मुगलों के अत्याचारी काल में किसी लडकी का विवाह सुनिश्चित हुआ है, इसका समाचार जब नवाब अथवा मुगल सरदार को मिलता था, तब वह वधू के घर संदेश भेजता था । उसके उपरांत सरदार अथवा नवाब की इच्छा से ही उन्हें विवाह के लिए भेजा जा सकता था । मुगलों ने यह एक अत्यंत हानिकारक अनिष्ट प्रथा आरंभ की थी । किसी परिवार ने लडकी को नवाब के पास नहीं भेजा, तो नवाब के सैनिक विवाह मंडप से ही उस वधू को उठा ले जाते थे । उसके कारण हिन्दू परिवारों को मुंह बंद कर ये अत्याचार सहन करने पडते थे । अपनी बेटियों को शीलभ्रष्ट होने से बचाने हेतु ‘बेटी का विवाह सुनिश्चित हुआ है’, यह बात गुप्त रखी जाती थी तथा विवाह समारोह भी गोपनीय पद्धति से रात में संपन्न किया जाता था । इसके परिणामस्वरूप हिन्दुओं को उनकी बेटियों के विवाह रात में करने पडे । उत्तर भारत में यह प्रथा आज भी चल रही है ।

२. लडकियों-महिलाओं द्वारा पैरों में आलता अथवा महावर (तलुवे तथा उंगलियों के पास के स्थान को लाल रंग से रंगाना) लगाया जाना !

आलता का प्रातिनिधिक चित्र

सामान्यतः उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, झारखंड इत्यादि उत्तर के राज्यों की लडकियों-महिलाओं के पैरों के तलुवे तथा उंगली के पास का स्थान लाल रंग से रंगते हैं । धार्मिक कृत्यों के समय अथवा अन्य मंगल अवसर पर पैर रंगाए जाते हैं । यह प्रथा इसी क्षेत्र में है । कुछ स्थानों पर उसे हिन्दू धर्म में बताए गए १६ संस्कारों के साथ जोडा गया है । इस विषय में एक विशेष प्रसंग है । उक्त उल्लेख के अनुसार उत्तर भारत में जिस लडकी का विवाह सुनिश्चित होता था, उसे  नवाब के पास भेजना अनिवार्य था । इसमें हिन्दू लडकियों के अभिभावकों को बहुत बडी समस्या आती थी, इसलिए वे रात में विवाह सुनिश्चित कर रात में विवाह समारोह संपन्न कर उसे छिपाने का प्रयास करते थे । एक बार ऐसे ही एक हिन्दू परिवार की लडकी का विवाह सुनिश्चित हुआ था । उस लडकी के घरवालों ने उसे बहुत छिपाकर रखा; परंतु तब भी नवाब को इसकी भनक लगी । उसने लडकी के घरवालों को बुलावा भेजकर लडकी को उसके राजमहल में बुलाया । उस समय उस लडकी के पिता को एक कल्पना सूझी । उसने एक सूअर काटकर उसका रक्त लडकी के हाथ को लगाया । उन्हीं हाथों से जब वह लडकी नवाब के पास गई, तब नवाब ने उसके हाथों में लगा लाल रंग देखकर पूछा, ‘यह क्या हुआ ?’ लडकी ने कहा, ‘मेरे हाथ में सूअर का रक्त लगा है ।’ तब नवाब ने उससे कहा, ‘अब तुम हराम बन गई हो; इसलिए मैं तुम्हें स्वीकार नहीं कर सकता ।’ उस समय यह चतुराई हिन्दू अभिभावकों के ध्यान में आई । हाथों को सूअर का रक्त लगने पर वह मुसलमान शासकों के लिए वर्जित होता है । उसके उपरांत जिन लडकियों का विवाह सुनिश्चित होता था, उन लडकियों के हाथों को लाल रंग से रंगने की प्रथा ही प्रचलित हो गई तथा इसी के चलते वर्तमान में भी पैरों को लाल रंग से रंगा जाता है । इसी चतुराई का उपयोग कर अर्थात घर में वराहपालन कर अथवा घर पर आक्रमण करने आए सैनिकों पर सूअर छोडकर हिन्दुओं ने उनके घर, गांव तथा प्रदेशों की मुगलों से रक्षा की ।

३. सती प्रथा

सती प्रथा के कारण हिन्दू धर्म को ‘पिछडा’, ‘स्त्रियों को महत्त्व न देनेवाला’ कहा गया है । अब तत्कालीन स्थिति का विचार किया जाए, तो स्त्री पति के निधन के पश्चात विधवा होती थी, अर्थात वह पति के बिना स्वरक्षा करने में असमर्थ होती थी । उस समय मुगलों के राक्षसी शासनकाल में उसकी रक्षा कैसे हो सकती थी ?; क्योंकि उस समय विधवा विवाह समाज में उतना प्रचलित नहीं था । तत्कालीन समाज परंपरावादी मानसिकता का था; इसलिए विधवा महिला का आत्मरक्षा हेतु पति के साथ अग्नि में समर्पित होना सुविधाजनक था । उसमें भी ऐसा करना ऐच्छिक था । अर्थात किसी स्त्री को यदि लगता था कि अब वह अकेले नहीं रह सकती, तो वह स्त्री सती हो जाती थी । सभी विधवा महिलाएं सती हो गईं, ऐसा कहीं पढने को नहीं मिला है । अतः कोई समाजसुधारक आए तथा उन्होंने यह अनिष्ट प्रथा बंद की, ऐसा बोलना हास्यास्पद है । मूलतः इस प्रथा का आरंभ किस संदर्भ में हुआ था, इसे समझना महत्त्वपूर्ण है । राजस्थान में होनेवाला जौहर क्या था ? जौहर सामूहिक रूप से सती हो जाना ही था । उसमें केवल इतना था कि यवनी आक्रमण के समय शीलरक्षा हेतु महिलाएं सहस्रों की संख्या में जौहर करती थीं तथा उस समय पुरुष भी अब उनके पीछे पत्नी नहीं रही, इस भावना से रणभूमि में प्राणों का बलिदान देने की तैयारी से मुगलों के साथ क्रोधपूर्ण लडाई लडते थे ।

४. विवाह की परंपरा अनुसार वधू के घर आने पर उसके भाईयों द्वारा सुरक्षा के साथ उसे ससुराल भेजा जाना

‘पगफेरा रस्म’ में विवाह की परंपरा अनुसार वधू जब विवाह के उपरांत ससुराल जाती है, उसके पश्चात वधू के माता-पिता लडकी को पुनः घर बुलाते हैं तथा उसके उपरांत उसे पुनः ससुराल भेजते हैं । इस परंपरा में भी मुगलों से वधू के लिए संकट होता था । ऐसी स्थिति में लडकी के भाई तथा उसके पुरुष परिजन लडकी के सिर पर हथियार अर्थात तलवार पकडे रहते थे । इसमें उसे उसके भाईयों द्वारा यह आश्वासन दिया जाता था कि तुम्हारे ससुराल पहुंचने तक तथा वहां से मायके आकर, पुनः ससुराल जाने तक हम तुम्हारी रक्षा करेंगे । ऐसे समय जैन धर्म के भी, जिन्हें हम अहिंसावादी मानते हैं, वे भी हथियार उठाकर बहन की रक्षा के लिए तैयार रहते थे । इसका अर्थ है जैन समुदाय ने भी तलवार उठाई है; क्योंकि उस समय मुगलों का भय था । अब इस प्रथा में तलवार पकडे रहने के स्थान पर वधू के सिर पर टोकरी पकडी जाती है ।

५. चुनरी लेने की तथा पर्दे की प्रथा क्यों आई ?

उत्तर भारत की पर्दा प्रथा के विषय में ऐसा बताया जाता है कि हिन्दू धर्म में स्त्रियों का सम्मान नहीं रखा जाता था, दहलीज से बाहर जाना उनके लिए वर्जित था तथा उन्हें निरंतर सिर पर चुनरी लेनी पडती थी । उन्हें स्वतंत्रता नहीं थी इत्यादि ! अब उक्त संदर्भ में विचार किया जाए तो क्या किसी स्त्री में खुले चेहरे के साथ मुगलों के राज्य में घूमने का साहस हो सकता था ? क्योंकि केवल वासनांध सरदार ही नहीं, अपितु उनके सैनिकों की दृष्टि भी उनपर पडी, तो कब उनका शीलभंग होगा अथवा कब उनपर अत्याचार होगा, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता था । ऐसे समय में इन जिहादी घटकों से अपनी पहचान छिपाने के लिए हिन्दू स्त्रियों ने चुनरी ओढने की तथा परदे की प्रथा आरंभ की अर्थात उन्होंने उसे बंधन के रूप में नहीं स्वीकार किया था, अपितु वह स्वरक्षा एवं शीलरक्षा हेतु किया गया प्रयास था । कालांतर में घर में भी चुनरी ओढना आरंभ हुआ; क्योंकि मुगल सैनिक घर में घुसकर भी पडताल कर अत्याचार करते थे । चुनरी ओढना परंपरा का अंग बन गया । अब भी अनेक महिलाएं चुनरी ओढती हैं; परंतु वे उसे आदर के प्रतीक के रूप में लेती हैं । हिन्दू जनजागृति समिति के राष्ट्रीय मार्गदर्शक सद्गुरु डॉ. चारुदत्त पिंगळेजी एक बार समिति के ही साधक के एक संबंधी के घर गए तो ‘घर पर संत आएं हैं’, इसलिए उनके घर की स्त्रियों ने चुनरी से चेहरा नहीं ढका; क्योंकि उनकी दृष्टि से ‘संत अर्थात हमारे घर के ही व्यक्ति हैं’, इस भाव के कारण उनके सामने आने में उन्हें कोई अडचन नहीं हुई ।

– श्री. यज्ञेश सावंत, देवद, पनवेल.