ईसाई धर्मांतरितों के दुराग्रह को भारत के महाधिवक्ता का मुंहतोड उत्तर !

भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता

१. धर्मांतरित आदिवासी के अंतिम संस्कार के लिए ग्रामवासियों का विरोध

‘छत्तीसगढ के रमेश बघेल नामक आदिवासी युवक ने सपरिवार ईसाई पंथ का स्वीकार किया । एक दिन यह परिवार दूसरे गांव गया था, उस समय रमेश के पिता की मृत्यु हो गई । उसके कारण पिता के अंतिम संस्कार के लिए यह परिवार उनके बस्तर गांव आए । वहां उन्होंने ईसाई पंथियों की श्मशान भूमि पर अंतिम संस्कार न कर आदिवासियों के लिए आरक्षित श्मशान भूमि पर ही अंतिम संस्कार करने देने का आग्रह रखा । इसका विरोध हुआ तथा यह विषय गांव की पंचायत के सामने रखा गया । वहां भी हिन्दुओं तथा गांव की पंचायत ने ‘ईसाई बने लोगों को हिन्दू श्मशान भूमि में अंतिम संस्कार नहीं करने देंगे’, ऐसा स्पष्टता से बताया, साथ ही यदि बघेल परिवार अपने आग्रह पर अडिग रहता है, तो यहां की कानून-व्यवस्था बिगडेगी, ऐसा भी बताया ।

(पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णीजी

२. अंतिम संस्कार का विवाद पहुंचा सर्वाेच्च न्यायालय में !

उसके उपरांत यह विवाद छत्तीसगढ उच्च न्यायालय पहुंचा । वहां से वह सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा । सर्वोच्च न्यायालय के द्विसदस्यीय पीठ ने कहा कि एक आदिवासी व्यक्ति को अंतिम संस्कार करने न देने के कारण उसके परिजनों को १२ वें दिन सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पडता है, यह बहुत दुखद है । जिस स्थान पर मृतक के पूर्वज, दादा, काका तथा बुआ को दफनाया गया है अथवा उनका अंतिम संस्कार किया गया है, उनके निकट मृतक के शव को दफनाना अथवा अंतिम संस्कार करने में अनुचित क्या है ? किस स्थान पर अंतिम संस्कार करना है, क्या यह अधिकार मृतक के परिजनों का नहीं है ?

३. भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता का स्पष्टतापूर्ण वादविवाद 

अ. न्यायाधीश के इस मत पर वादविवाद करते हुए भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता ने कहा, ‘‘यहां किसी आदिवासी को अंतिम संस्कार करने देने का विषय ही नहीं है । जिन आदिवासियों ने हिन्दू धर्म को त्यागकर ईसाई पंथ की दीक्षा ली, उनके द्वारा आदिवासी समाज के लिए आरक्षित श्मशान भूमि पर अंतिम संस्कार करने का विषय है । इस अंतिम संस्कार को ग्रामवासियों द्वारा किया गया विरोध उचित है । उन्हें ऐसे स्थान पर अंतिम संस्कार करने दिया गया, तो उससे कानून-व्यवस्था बिगड सकती है । अतः याचिकाकर्ता ऐसा नहीं कर सकते । एक धर्मांतरित ईसाई को हिन्दुओं के लिए आरक्षित श्मशान भूमि पर अंतिम संस्कार करने दिया गया, तो उससे अनुचित परंपरा स्थापित होगी तथा उसपर उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी मुहर लगाई, तो वह कानून बन जाएगा । जनसामान्य इसे स्वीकार नहीं करेंगे । अतः छत्तीसगढ उच्च न्यायालय ने उनकी याचिका अस्वीकार कर उचित निर्णय दिया है । सर्वाेच्च न्यायालय इसमें हस्तक्षेप न करे । पूरे देश में प्रत्येक धर्मी तथा पंथियों के लिए स्मशानभूमि आरक्षित होती है; इसलिए संबंधित लोगों को उनके धर्म अथवा पंथ के अनुसार अंतिम संस्कार करना आवश्यक है । अंतिम संस्कार करने के पश्चात उस स्थान पर ‘कैरेक्टर’ (श्मशान भूमि में किए जानेवाले अनुष्ठान) बदलते हैं, साथ ही पवित्रता-अपवित्रता जैसी बातें मानी जाती हैं ।’’

आ. महाधिवक्ता तुषार मेहता का वादविवाद न्यायाधीश स्वीकार नहीं कर पाए । उन्होंने कहा, ‘‘अंतिम संस्कार के तीसरे दिन के पश्चात वहां कुछ भी शेष नहीं रहता, तो पवित्रता इत्यादि सूत्र कैसे उठते हैं ??’’ इसका उत्तर देते हुए महाधिवक्ता तुषार मेहता ने कहा, ‘‘यह किसी व्यक्ति को प्रसन्न-अप्रसन्न करने का प्रश्न नहीं है, अपितु समाज, धर्म एवं पंथ के अनुसार श्मशान भूमियां आरक्षित होती हैं । उस स्थान पर उनके अंतिम संस्कार हों तथा अन्यत्र न हों, इस परंपरा का पालन किया जाता है । इस विषय में सर्वधर्मसमभाव जैसे सिद्धांत लागू नहीं होते । अंतिम संस्कार तो प्रथाओं एवं परंपराओं के अनुसार होते हैं । यहां किसी के अधिकार अथवा कर्तव्य का विषय नहीं है, अपितु परंपरा का पालन करना आवश्यक है । अंतिम संस्कार के लिए ईसाईयों के लिए आरक्षित श्मशान भूमि पर अंतिम संस्कार करना संभव होते हुए भी हिन्दू आदिवासियों की श्मशान भूमि में जाकर अंतिम संस्कार करने का दुराग्रह रखना अनुचित है । अतः यह याचिका अस्वीकार की जाए ।’’

इ. इस समय न्यायालय में ईसाईयों के अधिवक्ता कॉलिन गोंसाल्विस एवं तुषार मेहता में विवाद हुआ । कॉलिन गोंसाल्विस ने यहां ‘अनटचेबल्स’ (अस्पृश्यता) इस शब्द का प्रयोग किया । उन्होंने कहा, ‘‘ईसाई लोगों को बाहर निकालने की यह प्रभावी चतुराई है ।’’ उसपर महाधिवक्ता मेहता ने स्पष्टता से कहा, ‘‘आप क्या ईसाई आदि बातें बोल रहे हैं । यहां एक भी शुद्ध ईसाई नहीं है तथा प्रत्येक ईसाई धर्मी धर्मांतरित ही है । इसलिए धर्म-परिवर्तन करने के उपरांत आदिवासियों की श्मशान भूमि पर अधिकार जताना सैद्धांतिक दृष्टि से, साथ ही न्यायिक दृष्टि से अनुचित है ।’’

४. काल के अनुसार न्यायदान होना आवश्यक !

इस प्रकरण में धर्मांतरित ईसाईयों का दुराग्रह दिखाई देता है । आदिवासियों के लिए आरक्षित श्मशान भूमि पर अंतिम संस्कार करने की अनुमति मांगने के पीछे कलुषित बुद्धि है, इसे सर्वोच्च न्यायालय को पहचानना चाहिए । इसलिए यहां दुख व्यक्त करने का कोई भी कारण नहीं है ।

भावनात्मक होकर न्यायदान करने की अपेक्षा न्याय मांगनेवाला क्या विचार तथा बुद्धि लेकर आपके सामने आया है, इसे पहचानना समय की मांग है ।’

श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।

– (पू.) अधिवक्ता सुरेश कुलकर्णी, मुंबई उच्च न्यायालय (४.२.२०२५)