‘प्राचीन भारतीय ऋषि-मुनियों ने मानव के कल्याण हेतु अनेक शास्त्रों की निर्मिति की । उनमें से २ महत्त्वपूर्ण शास्त्र हैं – वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र । ये दोनों शास्त्र मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित हैं । इन २ शास्त्रों में समाहित कुछ समान सूत्रों के कारण उनका एक-दूसरे के साथ संबंध है । इस लेख के माध्यम से हम वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र का महत्त्व, उनकी विशेषताएं तथा उनका आपस में संबंध समझ लेते हैं ।
१. दिशा एवं काल का महत्त्व
विश्व का कोई भी जीव अथवा वस्तु ‘दिशा’ एवं ‘काल’ के अधीन होती है । कोई भी घटना विशिष्ट स्थान तथा विशिष्ट काल के आश्रय से घटित होती है । दिशा एवं काल एक-दूसरे के साथ जुडे होते हैं; उसके कारण संस्कृत में उन्हें संयुक्तरूप से ‘दिक्काल’ कहा गया है । दिशा एवं काल का महत्त्व निम्न प्रकार से है –
१ अ. दिशा : कोई वस्तु हमसे ‘आगे अथवा पीछे, ऊपर अथवा नीचे तथा दाहिनी ओर अथवा बाईं ओर है’, इसका ज्ञान दिशा के कारण होता है । दिशा स्थलसापेक्ष होती है अर्थात व्यक्ति द्वारा स्थल परिवर्तन करने से उसके आस-पास की वस्तुएं उसे पहले की तुलना में भिन्न दिशाओं में दिखाई देती हैं, उदा. कोई व्यक्ति गुजरात राज्य में है, तो उसकी दृष्टि से महाराष्ट्र राज्य उसकी दक्षिण दिशा में होगा तथा वही व्यक्ति जब कर्नाटक राज्य में आता है, तो उसकी दृष्टि से महाराष्ट्र राज्य उसकी उत्तर दिशा में होगा ।
१ आ. काल : किसी बात में आया परिवर्तन काल के कारण समझ में आता है । विश्व में आनेवाला कोई भी परिवर्तन काल के आश्रय से आता है । काल सदैव ही आगे बढता रहता है । व्यावहारिक दृष्टि से काल के ३ प्रकार हैं – वर्तमान काल, भूतकाल एवं भविष्य काल । जीव केवल वर्तमान काल का अनुभव कर सकता है । भूतकाल की केवल स्मृति रहती है, जबकि भविष्य काल की केवल कल्पना की जा सकती है ।
२. वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र का महत्त्व
वास्तुशास्त्र दिशा से (स्थान से) संबंधित शास्त्र है, जबकि ज्योतिषशास्त्र काल से संबंधित शास्त्र है ।
२ अ. वास्तुशास्त्र : दिशा वास्तुशास्त्र का आधार है । वास्तुशास्त्र में पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर एवं ईशान्य इन ८ दिशाओं का विचार होता है । प्रत्येक दिशा से आनेवाली सूक्ष्म ऊर्जा के गुणधर्म भिन्न होते हैं । वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार वास्तु का निर्माण करने से नकारात्मक ऊर्जा अवरुद्ध होकर वास्तु में सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश करती है । ऐसी वास्तु में सकारात्मक स्पंदनों का वृत्ताकार भ्रमण होता रहता है । उसके कारण उस वास्तु में रहनेवाले लोगों को सुख, समृद्धि एवं शांति का लाभ होता है । इसके विपरीत वास्तुशास्त्र के नियमों की अनदेखी कर वास्तु की रचना की गई, तो उस वास्तु में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश होकर वास्तु में रहनेवाले लोगों को शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक कष्टों का सामना करना पडता है ।
२ आ. ज्योतिषशास्त्र : काल ज्योतिषशास्त्र का आधार है । आकाश में भ्रमण करनेवाले ग्रह काल के दर्शक हैं । प्रत्येक जीव काल से बंधा हुआ है । जीव के जन्म के समय आकाश में बनी ग्रहों की स्थिति महत्त्वपूर्ण है, जो जीव के वर्तमान जन्म का प्रारब्ध दर्शाती है । जीव के प्रारब्ध के अनुसार उसके जीवन में अच्छी-बुरी घटनाएं होती हैं । ‘ये घटनाएं कब घटित होंगी ?’, यह ग्रहों की दशाएं (फल देने की अवधि) तथा ग्रहों के गोचर (तत्कालिन) भ्रमणों से ध्यान में आता है ।
२ आ १. जीव पर ग्रहों का परिणाम कैसे होता है ? : ग्रह बडे ऊर्जास्रोत हैं । प्रत्येक ग्रह की ओर से उसके गुणधर्म के अनुसार पंचतत्त्वात्मक (पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश) सूक्ष्म ऊर्जा प्रक्षेपित होती रहती है । ग्रहों की ओर से आनेवाली ऊर्जा जीव के अंतःकरण पर (मन, बुद्धि, चित्त एवं अहं पर) परिणाम करती है । जीव के अंतःकरण में पूर्वजन्मों के कर्माें के संस्कार अंकित होते हैं । उन संस्कारों पर विशिष्ट काल में ग्रहों की ऊर्जा का परिणाम होता है तथा ये संस्कार फलिभूत होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति के जीवन में अच्छी-बुरी घटनाएं होती हैं । संक्षेप में कहा जाए, तो व्यक्ति के अंतःकरण में समाहित प्रारब्ध-कर्माें के संस्कारों का उचित समय फलिभूत होने का ईश्वरनियंत्रित माध्यम है ।
३. वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र एक-दूसरे से संलग्न होना
वास्तुशास्त्र एवं ज्योतिषशास्त्र एक-दूसरे से जुडे हुए हैं । केवल यही शास्त्र नहीं, अपितु सभी भारतीय शास्त्र ही एक-दूसरे के साथ जुडे हुए हैं; क्योंकि उनके मूलतत्त्व समान हैं । अध्यात्म, योग, ज्योतिष, वास्तु, आयुर्वेद, संगीत आदि भारतीय शास्त्रों में पंचतत्त्व (पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश), त्रिगुण (सत्त्व, रज एवं तम), दिशा, काल, कर्म, अंतःकरण, जीव, प्रकृति, ईश्वर आदि का विचार किया गया है । ‘जीव को तामसिकता से (अज्ञान से) सात्त्विकता की ओर (ज्ञान की ओर) ले जाने’ का ध्येय सामने रखकर भारतीय शास्त्रों की निर्मिति हुई है । सात्त्विक जीवन ईश्वर के निकट होता है ।
३ अ. ग्रह एवं कुंडली के स्थानों का दिशाओं के साथ संबंध : वास्तुशास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा विशिष्ट ग्रह से संबंधित है, जबकि ज्योतिषशास्त्र के अनुसार कुंडली का प्रत्येक स्थान विशिष्ट दिशा से संबंधित है । प्रत्येक दिशा से संबंधित ग्रह तथा दिशा से संबंधित कुंडली के स्थानों की जानकारी निम्न सारणी में दी गई है ।
उक्त सारणी से यह ध्यान में आता है कि प्रत्येक दिशा किसी विशिष्ट ग्रह से तथा कुंडली के कुछ स्थानों से संबंधित है, उदा. पूर्व दिशा सूर्य से तथा कुंडली के प्रथम स्थान से संबंधित है । ‘पूर्व दिशा’, ‘सूर्य’ तथा ‘कुंडली का प्रथम स्थान’, ये तीनों घटक स्वास्थ्य से संबंधित हैं । उसके कारण व्यक्ति की वास्तु में यदि पूर्व दिशा में बडा दोष हो, साथ ही उसकी जन्मकुंडली का प्रथम स्थान तथा सूर्य यदि अशुभ स्थिति में हो, तो उस व्यक्ति को स्वास्थ्य संबंधी गंभीर समस्याएं होती हैं ।
४. व्यक्ति के वास्तु तथा उसकी जन्मकुंडली के ग्रह उस व्यक्ति के प्रारब्ध के दर्शक होते हैं
वास्तु एवं ग्रह व्यक्ति के प्रारब्ध के साथ जुडे होते हैं । व्यक्ति को उसके प्रारब्ध के अनुसार वास्तु (घर) मिलता है, साथ ही व्यक्ति की जन्मकुंडली में समाहित ग्रहयोग उसके प्रारब्ध के अनुसार होते हैं । उसके कारण व्यक्ति के वास्तु तथा जन्मकुंडली के ग्रहों के आधार पर उसके प्रारब्ध का बोध होता है ।
५. वास्तु समष्टि, जबकि जन्मकुंडली (ज्योतिष) व्यष्टि परिणाम दर्शाती है
वास्तु में एक से अधिक व्यक्ति निवास करते हैं । उस दृष्टि से वास्तु समष्टि परिणाम करता है; परंतु उस वास्तु में निवास करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति की जन्मकुंडली भिन्न होती है । उस दृष्टि से ग्रह व्यष्टि परिणाम करते हैं । वास्तु के दोषों का परिणाम उस वास्तु में रहनेवाले सदस्यों पर एक समान नहीं होता । इसका कारण यह है कि भले ही वास्तु एक ही हो, तब भी उसमें रहनेवाले प्रत्येक सदस्य का व्यक्तिगत प्रारब्ध भिन्न होता है । उसके कारण परिणामों में विविधता दिखाई देती है । वास्तु में दोष हों तथा उसके साथ जन्मकुंडली में समाहित ग्रह भी दूषित हों, तो उससे बहुत बुरे परिणाम होते हैं । इसके विपरीत, वास्तु दोषरहित हो तथा जन्मकुंडली के ग्रह भी शुभ स्थिति में हों, तो बहुत अच्छे परिणाम मिलते हैं ।
६. व्यक्ति की जन्मकुंडली में समाहित ग्रहों की दशा के अनुसार व्यक्ति पर वास्तु का परिणाम होना
ऐसा नहीं है कि वास्तु में समाहित सर्व दोषों का व्यक्ति पर एक ही समय परिणाम होगा । व्यक्ति की जन्मकुंडली के अनुसार जिस ग्रह की दशा (फल देने की अवधि) चल रही हो, उस ग्रह से संबंधित दिशाओं में व्याप्त वास्तुदोषों का परिणाम उस व्यक्ति पर उस अवधि में अधिक होता है, उदा. व्यक्ति की जन्मकुंडली के अनुसार यदि उसकी मंगल ग्रह की दशा चल रही हो, तो मंगल ग्रह से संबंधित ‘दक्षिण’ दिशा में स्थित वास्तुदोष का परिणाम उस व्यक्ति पर उस अवधि में अधिक मात्रा में होता है ।
७. दूषित वास्तु तथा जन्मकुंडली में स्थित दूषित ग्रहों के स्पंदनों में सुधार लाने हेतु शास्त्रों में विभिन्न उपचार बताए गए हैं !
दूषित वास्तु तथा जन्मकुंडली में स्थित दूषित ग्रहों के स्पंदनों में सुधार लाने के लिए वास्तु एवं ज्योतिष शास्त्रों में विभिन्न उपचार बताए हैं । दिशाओं के स्पंदनों में सुधार लाने के लिए वास्तु में रत्नों की स्थापना, यंत्र की स्थापना, वृक्षारोपण, निर्माणकार्य की रचना में परिवर्तन इत्यादि उपचार किए जाते हैं । ग्रहों के स्पंदनों में सुधार लाने के लिए (ग्रह की शुभ ऊर्जा मिलने के लिए) संबंधित ग्रह का मंत्र जपना, शांति अनुष्ठान करना, रत्न धारण करना, दान करना इत्यादि उपचार किए जाते हैं । उपचार करने से अनिष्ट प्रारब्ध संपूर्णरूप से नष्ट नहीं होता; परंतु उससे दैवीय ऊर्जा प्राप्त होकर अनिष्ट परिणाम क्षीण होते हैं ।
इसका सारांश यह है कि वास्तुशास्त्र स्थल से तथा ज्योतिषशास्त्र काल से संबंधित शास्त्र है । वास्तुशास्त्र की सहायता लेकर स्थान के स्पंदनों में सुधार लाया जा सकता है, जबकि ज्योतिषशास्त्र की सहायता से काल के स्पंदनों में सुधार लाया जा सकता है । शुभ एवं मंगलमय स्पंदनों के कारण सुख-शांति प्राप्त होती है, साथ ही साधना के लिए अनुकूल स्थिति प्राप्त होती है । इसलिए जीव का भौतिक एवं आध्यात्मिक उत्कर्ष साधने में वास्तु एवं ज्योतिष का योगदान महत्त्वपूर्ण है !’
– श्री. राज कर्वे, ज्योतिष विशारद, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा