‘कुंभ’ शब्द का अर्थ
‘कुंभ’ शब्द के अनेक अर्थ हैं । कुंभ भारतीय संस्कृति में मंगल का प्रतीक है, शकुन का प्रतीक है, शोभा, सौन्दर्य एवं पूर्णत्व का भी प्रतीक है । जल से भरे कलश पर लाल कुमकुम से स्वस्तिक चिन्ह अंकित कर कलश में अक्षत तथा दूर्वा डालते हैं । कलश पर आम के पत्ते रखकर उसपर नारियल रखते हैं, ऐसा कलश आदिकाल से आज तक मंगल के प्रतीक के रूप में चला आ रहा है । ‘कुंभ पर्व’ में जिस ऐतिहासिक कुंभ का स्मरण किया जाता है, वह अमृत कुंभ अर्थात ‘सुधा-कलश’ है ।
कुंभ मेला भारत की सांस्कृतिक महानता का केवल दर्शन ही नहीं; अपितु संतसंग प्रदान करनेवाला आध्यात्मिक सम्मेलन है । यह विश्व का सबसे बडा धार्मिक पर्व है ! कुंभ पर्व के उपलक्ष्य में प्रयाग, हरद्वार (हरिद्वार), उज्जैन एवं त्र्यंबकेश्वर-नाशिक, इन चार क्षेत्रों में होता है । इनमें हरिद्वार में गंगा तट पर, प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर, उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर तथा नासिक में नर्मदा के तट पर बसे हुए पौराणिक तीर्थ एवं महत्त्वपूर्ण नगर हैं । अर्ध कुंभ पर्व मात्र हरिद्वार तथा प्रयाग में ही लगता है ।
प्रति १२ वर्ष संपन्न होनेवाले इस पर्व का हिन्दू जीवनदर्शन में महत्त्वपूर्ण स्थान है । गुरु को राशिचक्र भोगने में १२ वर्ष की कालावधि लगती है, जिससे प्रत्येक १२ वर्ष उपरांत कुंभयोग आता है । इस वर्ष में उत्तराखंड के प्रयाग में महाकुंभ पर्व है ।
कुंभ पर्व की उत्पत्ति की कथा
कुंभ पर्व की कथा : एक बार महर्षि दुर्वासा को भ्रमण करते हुए मार्ग में देवराज इन्द्र मिल गए । देवराज इन्द्र भी अपने ऐरावत हाथी पर चढकर भ्रमण के लिए सेवकों के साथ निकले थे । दोनों ने एक-दूसरे का अभिवादन किया । महर्षि के हाथ में दिव्य पारिजात पुष्पों की माला थी । उन्होंने प्रसन्न होकर माला को इन्द्र की ओर उछाल दिया । माला को इन्द्र ने पकड लिया और महावत को दे दी । महावत ने उस माला को हाथी के मस्तक पर रख दिया । हाथी ने माला सूंड में ली, उसे सूंघा और पैरों से कुचल दिया । अपने द्वारा दी गई माला की देवराज इन्द्र द्वारा की गई उपेक्षा और उसकी दुर्दशा देखकर महर्षि बडे दुःखी हुए । उन्होंने इन्द्र को तत्क्षण ही श्रीहीन हो जाने का श्राप दे दिया । फलस्वरूप इन्द्र श्रीहीन हो गए । शोभा, समृद्धि, संपत्ति और वैभव की स्वामिनी अधिष्ठात्री देवी श्री स्वर्गलोक को छोडकर चली गईं । देवगण दीनहीन, श्रीविहीन, जरा जीर्ण से आक्रांत होकर त्राहि-त्राहि करने लगे । स्वर्ग का सौंदर्य नष्ट हो गया, सुख नष्ट हो गया ।
देवताओं के श्रीविहिन होते ही असुरों ने देवलोक पर चढाई कर दी तथा सरलता से देवलोक पर अपना अधिकार कर लिया । देवगणों को अपने प्राणों की रक्षा करना कठिन हो गया । दुःखी होकर सभी देवताओं ने ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्मा से अपना सारा कष्ट कहा, फिर वहां से ब्रह्माजी के नेतृत्व में देवगण श्रीमन्ननारायण के पास जाकर अपनी रक्षा के लिए उनकी स्तुति करने लगे ।
भगवान विष्णु ने देवताओं पर द्रवित होकर सुमेरू पर्वत की मथानी, वासुकि नाग की रस्सी बनाकर राक्षसों की सहायता से समुद्रमंथन करने का परामर्श दिया । देवताओं ने असुरों को समुद्रमंथन से प्राप्त वस्तुओं को आधा-आधा बांट लेने का प्रलोभन देकर समुद्रमंथन हेतु तैयार कर लिया । मंथन के समय असुरगण वासुकि नाग के मुख की ओर खडे हुए तथा देवगण पूंछ की ओर । भगवान विष्णु ने कछुआ बनकर सुमेरू को अपनी पीठ पर रखा जिससे वह पर्वत भूमि में न धंस सके । समुद्रमंथन आरभ हो गया । मंथन में समुद्र से एक बाद एक चौदह रत्न प्राप्त हुए । जिसमें से एक अमृत कलश था । अमृत छलके नहीं इसलिए चंद्रमा ने ढक्कन का कार्य किया । सूर्य ने कुंभ (घडे) को फूटने से बचाया तथा गुरु (बृहस्पति) ने मंत्रों और अन्य साधनों द्वारा असुरों को घडे से दूर रखा । इस भाग दौड में जयन्त ने विश्राम हेतु अमृत कुंभ को जहां-जहां पृथ्वी पर रखा वहां उसकी स्मृति में कुंभ पर्व का आयोजन किया जाता है । तथा कुंभ पर्व की तिथि, मिति, मास तथा ग्रहों एवं नक्षत्रों का संयोग भी ठीक वही होता है जो तिथि, मिति, मास तथा ग्रहों एवं नक्षत्रों का संयोग जयन्त द्वारा घडा पृथ्वी पर रखने के समय था ।
जब देवताओं और असुरों में अमृत कुंभ के लिए छीना-झपटी होने लगी, तब भगवान विष्णु ने विश्वमोहिनी (अत्यंत सुन्दर नारी) का रूप धारण कर दानवों को अपनी ओर मोहित कर लिया । उसे भगवान का मोहिनी अवतार कहा जाता है । उस नारी रूप धारी भगवान के प्रति अनुरक्त दानवों ने अपने झगडे में उन्हें पंच बनाया तथा अमृत घट को लेकर दानवों एवं देवों में समान रूप से अमृत का वितरण करने के लिए अनुरोध किया । भगवान के निर्देश पर देवता एवं असुर अपनी-अपनी पंक्ति में बैठ गए । भगवान ने सर्वप्रथम अमृत को देवताओं में बांटना प्रारंभ किया । दानव अपनी पंक्ति में मोहिनी पर विश्वास कर अमृत पाने की प्रतीक्षा में धैर्यपूर्वक बैठे थे; परंतु राहु नामक दैत्य को विश्वमोहिनी की प्रामाणिकता पर थोडा संदेह होने के कारण, वह चुपके से जाकर देवताओं की पंक्ति में बैठ गया । राहु को अमृत मिल गया; परंतु उसे अमृत पीते हुए चंद्र एवं सूर्य ने देख लिया और भगवान को संकेत किया । चंद्रमा एवं सूर्य के संकेत पर भगवान विष्णु ने चक्र से उसका सिर धड से अलग कर दिया । राहु अमृत पी चुका था । अतः वह मरा नहीं; अपितु उसका सिर राहु के नाम से और धड केतु के नाम से अजर-अमर होकर देवताओं के समान ही ग्रहमंडल में स्थापित हो गया । आज भी राहु-केतु चंद्रमा एवं सूर्य से अपनी शत्रुता बनाए हुए हैं ।
अमृतपान कर देवतागण अजर-अमर और शक्ति संपन्न हो गए अतः दानवों से युद्ध कर उन्हें श्रीविहीन और नष्ट कर दिया तथा देवलोक पर अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित किया । इस प्रकार देवासुर संग्राम समाप्त हो गया ।
– डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय
– (साभार : ‘आध्यात्मिक ॐ चैतन्य’ गुरुपूर्णिमा विशेषांक २०१५)
कुंभ पर्व का महत्त्व
शास्त्रों में मनुष्यों के लिए धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चार पुरुषार्थाें की प्राप्ति का निर्देश दिया गया है । कुंभ पर्व को इन चारों पुरुषार्थाें को प्रदान करनेवाला कहा गया है । इससे लौकिक एंव पारलौकिक, दोनों ही श्रेय प्राप्त होते हैं । कुंभ पर्व में विधानपूर्वक स्नानदान आदि से अश्वमेघ यज्ञ के समान पुण्य प्राप्त होने का उल्लेख है । इससे परलोक सुधरता है । मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है । लौकिक रूप से धार्मिक समारोहों में पूर्ण श्रद्धा तथा निष्ठा से भाग लेने पर संस्कारों में सुधार होकर बुद्धि पवित्र हो जाती है । इस महापर्व पर भारत के कोने-कोने से जनसमूह उमड पडता है, जिससे कुंभ पर्व पर आए यात्रियों का सहज ही भारत दर्शन हो जाता है ।’
स्नान का माहात्म्य
कुंभ पर्व में पर्वकाल के समय स्नान का सर्वाधिक महत्त्व है । वह स्नान जिस स्थान पर कुंभ पर्व लग रहा है, उसकी मुख्य नदी और मुख्य तीर्थ में ही होना चाहिए । इसलिए एक ही स्थान पर स्नानार्थियों की भारी भीड एकत्र हो जाती है । हरिद्वार में मुख्य स्थान गंगा नदी, प्रयाग में त्रिवेणी संगम, उज्जैन में क्षिप्रा नदी का रामघाट एवं उसके समीप के तट तथा नासिक में गोदावरी नदी का मुख्य घाट स्नानतीर्थ हैं । स्नान के समय तर्पण इत्यादि संकल्प अर्घ्य और दान दक्षिणा के भी विधान का उल्लेख है; परंतु व्यावहारिक रूप से सामान्य जनता कुंभ पर्व पर प्रथम स्नान करती है तथा उसके पश्चात दान करती है । स्नान के उपरांत ब्राह्मण भोज तथा साधु-संतों एवं निर्धनों में अन्न, वस्त्र का वितरण भी यथाशक्ति करना चाहिए ।’
– डॉ. रामकृष्ण उपाध्याय
– (साभार : ‘आध्यात्मिक ॐ चैतन्य’ गुरुपूर्णिमा विशेषांक २०१५)