‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी’ (दि. २६.७.२०२४) के निमित्त…
‘भगवान श्रीकृष्ण ने उनके संपूर्ण जीवन में भिन्न-भिन्न युद्धनीतियों का उपयोग किया । इस युद्धनीति की जानकारी देनेवाला लेख यहां दे रहे हैं –
महाभारत युद्ध के समय दुर्योधन एवं कर्ण को प्राप्त विभिन्न शक्तियां एवं अस्त्र, इन सभी का संपूर्ण ज्ञान होने से श्रीकृष्ण ने एक विशिष्ट युद्धनीति बनाई । कर्ण को २ शाप थे । एक था अंतिम क्षण में ब्रह्मास्त्र का विस्मरण होना तथा दूसरा भूमि में रथचक्र धंसने का ! श्रीकृष्ण को यह ज्ञात था । प्रथम कर्ण की वासवी शक्ति (अजेय भाला) हीन करना आवश्यक था । इसके अतिरिक्त उसका जन्मरहस्य बताकर उसका मनोबल गिराने तथा युद्ध में उसे परशुराम धनुष को नीचे रखने के लिए विवश कर उसका वध करने की ! श्रीकृष्ण ने ३ स्तरों में यह युद्धनीति बनाई ।
अ. प्रथम वासवी शक्ति को हीन करना
आ. दूसरा उसका मनोबल गिराना
इ. तीसरा परशुराम धनुष का त्याग करवाकर वध करना
१. कर्ण को उसे प्राप्त शक्ति का उपयोग करने के लिए बाध्य करना
दुर्योधन का अलायुध नामक असुर मित्र था, जो उसकी सहायता के लिए आया था । उस समय दुर्याेधन ने रात में भी युद्ध जारी रखने की घोषणा की । सामान्य नियम के अनुसार युद्ध प्रतिदिन सूर्यास्त को समाप्त हो जाता था; परंतु अलायुध असुर के आने पर उसने इस नियम को तोडकर रात को भी युद्ध जारी रखना सुनिश्चित कर, उसकी घोषणा की । असुर मायावी विद्या में कुशल होते हैं तथा रात में उनका सामर्थ्य अनेक गुना बढता है; उसके कारण उनका सामना करना संभव नहीं होता । श्रीकृष्ण इसे भलीभांति जानते थे तथा इस असुर से लडकर उसका नाश करने हेतु उतनी ही मायाव शक्ति वाले असुर की आवश्यकता थी । उस समय श्रीकृष्ण ने भीम को उसके पुत्र घटोत्कच को बुलाने के लिए कहा । इस प्रकार भीम के द्वारा घटोत्कच को पुकारते ही वह वहां प्रकट हुआ । अलायुध एवं घटोत्कच के मध्य मायावी युद्ध में घटोत्कच ने अलायुध का वध किया तथा उसके महापराक्रम से कौरव सेना का महाविनाश होकर वह पांडवों की सेना जितनी ही रह गई । दुर्याेधन असहाय हो गया । कर्ण की भी वही स्थिति हुई, उस समय दुर्याेधन ने कर्ण को उसकी वासवी शक्ति छोडने के लिए कहा; परंतु कर्ण उसके लिए तैयार नहीं हो रहा था । तब दुर्याेधन ने उसे अंतिम आदेश देते हुए कहा, ‘‘जब हम सभी समाप्त हो जाएंगे, तब तुम्हारा क्या होगा ?’ तब कर्ण ने वासवी शक्ति छोडकर घटोत्कच का वध किया । उस समय सभी पांडव दुखी हो गए; परंतु श्रीकृष्ण ने आनंद व्यक्त किया; क्योंकि अर्जुन का संकट टल गया था तथा कर्ण के पास आरक्षित एकमात्र अस्त्र नष्ट हो गया था । जिससे कर्ण का सामर्थ्य अन्य सामान्य महारथियों समान ही रह गया । यह पहला चरण था अर्थात यह युद्धनीति सफल रही ।
२. श्रीकृष्ण द्वारा कर्ण को कुंती के पास भेजकर उसका मनोबल गिराना
अब दूसरी कूटनीति यह थी कि युद्धनीति के रूप में कर्ण का मनोबल गिराना ! उसके लिए श्रीकृष्ण ने कुंती को कर्ण के पास उसका जन्मरहस्य बताने हेतु भेजा । कुंती द्वारा वह बताने पर भी कर्ण दुर्याेधन का पक्ष छोडने के लिए तैयार नहीं हुआ । उसने कहा, ‘केवल अर्जुन को छोडकर मैं तुम्हारे ४ पुत्रों का वध नहीं करूंगा । इससे मैं अथवा अर्जुन इनमें से कोई भी एक युद्ध में मारा गया, तब भी आपके ५ पुत्र ही रहेंगे ।’; परंतु मन से वह हतोत्साहित हो गया । उसने उसे प्रकट नहीं किया । यह दूसरी कूटनीति भी सफल हो गई ।
३. शत्रु के वार को (आक्रमण को) विफल कैसे बनाना है ?, यह युद्धनीति सिखानेवाले श्रीकृष्ण !
कर्ण एवं अर्जुन के युद्ध में खांडव वन के जल जाने से क्रोधित ‘तक्षक’ नाग पांडवों का बडा शत्रु बन गया था तथा उसे अर्जुन को डंसकर मारना था । वह उस प्रतीक्षा में था । उसने कर्ण को अपनी व्यथा बताकर ‘आप मुझे आपके बाण पर विराजमान होने दो तथा उस शस्त्र को अर्जुन पर छोडो, मैं उसे डसकर प्रतिशोध लेकर धन्य हो जाऊंगा ।’ कर्ण ने सहमति दर्शाई; क्योंकि ‘जो शत्रु का शत्रु होता है वह अपना मित्र होता है’, इसी नीति से तथा वह जो वासवी शक्ति खो बैठा था, इसलिए कर्ण ने उसका प्रस्ताव स्वीकार किया । उसने तक्षक के कहे अनुसार उसे बाण पर आरूढ किया तथा उस शस्त्र को अर्जुन पर छोडा । महागति से आ रहे ‘शस्त्र पर तक्षक आरूढ है’, इसे श्रीकृष्ण ने तत्काल जान लिया तथा ‘अब वह बाण अर्जुन के कंठ को निशाना बनानेवाला है’, यह उनके ध्यान में आया । उचित समय पर श्रीकृष्ण ने रथ के अश्वों पर दबाव देकर रथ को नीचे झुकाया तथा वह बाण अर्जुन के मुकुट को लगा तथा तक्षक के विष से वह किरीट दग्ध होकर नीचे गिर गया । इसमें अर्जुन बच गया । तक्षक निराश होकर पुनः कर्ण के पास जाकर उसके बाण पर पुनः आरूढ होने का अनुरोध करने लगा; परंतु ‘मैं एक ही बार किसी अस्त्र का प्रयोग करता हूं । एक ही अस्त्र का मैं पुनःपुनः प्रयोग नहीं करता’, ऐसा कर्ण ने उसे बताया ।
यहां श्रीकृष्ण ने ‘शत्रु के वार को कैसे विफल बनाना है ?’, इसकी युद्धनीति दिखाई । यह बहुत ही चतुर एवं उत्तम युद्धनीति थी, बिना प्रतिवार किए शत्रु के वार को प्रभावहीन बनाने की !
४. कर्ण वध के समय श्रीकृष्ण द्वारा उपयोग की गई युद्धनीति !
कर्ण-अर्जुन के इस युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ जानबूझकर ऐसी भूमि से ले जाया कि उसका पीछा करने में कर्ण का रथ हल्की भूमि में धंस गया । यह अंतिम कूटनीति थी उस त्रिसूत्री योजना की ! रथ के पहिए से कर्ण धनुष्य नीचे रखकर रथ का पहिया बाहर निकालने लगा । उसी समय श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बाण छोडकर उसका वध करने का आदेश दिया । ‘यह तो अधर्म है’, ऐसा कर्ण से कहे जाते ही भगवान श्रीकृष्ण ने तुरंत ही उसके सभी दुष्कर्माें की सूची बताकर ‘हे राधापुत्र, तब कहां गया था, तुम्हारा धर्म ?’, ऐसा बताकर उसे निरूत्तर किया तथा उसी क्षण अर्जुन को बाण छोडने का आदेश देने का कारण यह था कि ‘यदि कर्ण ने रथ पर आरुढ होकर परशुराम धनुष्य हाथ में लिय होता, तो विश्व का कोई भी धनुर्धारी नहीं कर सकेगा, यह उसे परशुराम से वर प्राप्त था’, यह श्रीकृष्ण को ज्ञात था । कर्ण की मृत्यु होते ही भगवान श्रीकृष्ण ने ही कर्ण का अग्निसंस्कार किया; क्योंकि कर्ण की दारशूरता तथा वीरता को भी ध्यान में लेना आवश्यक था । श्रीकृष्ण ने यहां ‘मरणांति वैराणी’ की युद्धनीति दिखाई ।
५. शत्रु का मृत्युमर्मस्थान जानकर उसके अनुसार युद्ध करने हेतु प्रेरित करनेवाले श्रीकृष्ण !
अब दुर्योधन के पास केवल अश्वत्थामा एकमात्र द्रोणपुत्र तथा अमरता का वरदान प्राप्त महायोद्धा था; परंतु उससे पूर्व ही दुर्योधन एक जलाशय में छिप गया । सर्व कौरव सेना पहले ही नष्ट हो चुकी थी । दुर्योधन के विषय में पहले एक घटना का उल्लेख करना उचित है; क्योंकि इसमें भी श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता दिखाई देती है । गांधारी पतिव्रता थी तथा वह संपूर्ण जीवन में आंखों पर पट्टी बांधकर रही । उसने दुर्योधन से कहा कि तुम अपने संपूर्ण वस्त्रों का त्याग कर सर्वांग खोलकर मेरे सामने आओ, तब मैं मेरी आंखों पर बांधी पट्टी को निकालकर जैसे ही मैं तुम्हारे सर्वांग पर दृष्टि डालूंगी, वैसे ही तुम्हारा संपूर्ण शरीर वज्र (अभेद) बन जाएगा । भगवान श्रीकृष्ण ने दुर्योधन का मतिभेद कर ‘माता के सामने विवस्त्र स्थिति में जाना उचित नहीं है; इसलिए कमर के नीचे घुटने तक पुष्पमाला से युक्त सेला पहनकर जाना उचित होगा’, ऐसा बताकर वहां जाने पर बाध्य किया तथा शरीर का उतना ही भाग छोडकर उसका शेष शरीर वज्र बन गया । द्रौैपदी वस्त्रहरण के समय भीम की ‘मैं गदाप्रहार से दुर्योधन की जंघाए फोड दूंगा’, यह प्रतिज्ञा उसके कारण साध्य होनेवाली थी, अन्यथा दुर्योधन अजेय ही रहा होता । गांधारी भी इसे भलीभांति समझ लिया था कि यह श्रीकृष्णनीति ही है ।
जलाशय में छिपे दुर्याेधन की निर्भत्सना कर उसे बाहर निकलने के लिए बाध्य बनाने पर उसमें तथा भीम के मध्य गदायुद्ध आरंभ हुआ । सर्व पांडव, श्रीकृष्ण एवं बलराम दुर्योधन एवं भीम का गदायुद्ध देखने उपस्थित थे । भीम ने प्रयासों की पराकाष्ठा की; परंतु वज्रांगी दुर्योधन रुक नहीं रहा था । उस समय श्रीकृष्ण ने जंघा की ओर संकेत कर दुर्याेधन की जंघा पर गदाप्रहार करने का संकेत दिया । (गदायुद्ध् में कमर के नीचे वार न करने का नियम होता है) उसी प्रकार से भीम ने वार कर उसकी दोनों जंघाएं क्षतविक्षत की तथा वह मरणप्राय स्थिति में भूमि पर गिर गया । यही भाग ढंकी हुई अवस्था में जाने से वह वज्रमय नहीं हुआ । नियमबाह्य युद्ध करने से बलराम क्रोधित हुए तथा वे हल लेकर भीम पर चाल कर जानेवाले थे । उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भीमप्रतिज्ञा का स्मरण कराया तथा ‘यह अधर्म नहीं है’, ऐसा कहा ।
यहां यह युद्धनीति कितनी योजनाबद्ध थी, यह ध्यान में आता है । इसी भीम का जब जरासंध से मल्लयुद्ध हुआ, तब भी श्रीकृष्ण ने एक तिनका खडा काटकर उसके दोनों भागों को परस्परविरोधी दिशा में फेंकने का संकेत दिया । उस प्रकार भीम ने जरासंध को खडा काटकर उसके २ भागों को परस्परविरोधी दिशा में फेंकने से जरासंध मर गया, अन्यथा वह अजेय ही था । यह कुशल युद्धनीति, जिसमें शत्रु का मृत्यूमर्मस्थान पहचानकर उसके अनुसार युद्ध किया जाता है ।
६. भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा अश्वत्थामा को दिया हुआ शाप !
अंत में शेष बचा था आचार्य द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ! मरणासन्न दुर्याेधन ने उसे सेनापति बनाया तथा उसने अत्यंत अभद्र नीति का उपयोग कर सभी पांडवपुत्रों के नींद ेमं होते समय मार दिया । वह अवध्य (चिरंजीव) था । पांडवों ने उसे जब घेर लिया, तब उसने अर्जुन के साथ के युद्ध में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया; परंतु उसे वापस लेना संभव न होने से उसने उसे अभिमन्यू की पत्नी उत्तरा के गर्भ में स्थित बालक पर छोडा । (आगे जाकर श्रीकृष्ण ने उस मृत शिशु को जीवित कर पांडवों का कुलक्षय टाल दिया ।) श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से दुष्ट अश्वत्थामा के माथे पर स्थित मणि निकालकर उसे शाप दिया । ‘उस मणि को निकालने से बने घाव पीडा देते हुए निरंतर बहता रहेगा तथा उस पर तेल डालने हेतु तेल मांगते-मांगते वह युगों-युगों तक यातना भोगते हुए घूमता रहेगा’; क्योंकि वह चिरंजीव था । यही चिरंजीविता उसका शाप बन गई ।
७. शत्रु का आंतरिक कपट पहचान कर श्रीकृष्ण द्वारा चलाया गया प्रतिदांव !
युद्ध के उपरांत अंत में धृतराष्ट्र ने भीम से मिलने की इच्छा प्रकट की । उस समय उसका सामर्थ्य तथा उद्देश्य श्रीकृष्ण के ध्यान में आया । उसके कारण अंतिम क्षणों में लोहे की मूर्ति को आगे कर उन्होंने भीम को बचा लिया, यह भी युद्धनीति ही थी ! (उस समय धृतराष्ट्र ने भीम समझकर लोहे की मूर्ति को लपेटकर उसे फोड दिया । यदि धृतराष्ट्र ने प्रत्यक्ष भीम के लपेटा होता, तो उसकी मृत्यु हो जाती ।) यह था शत्रु का आंतरिक कपट को जान कर चलाया गया प्रतिदांव !
८. श्रीकृष्ण के आत्मतत्त्व का भाग जगन्नाथपुरी में स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति में !
आगे जाकर यादवकुल का विनाश देखकर उसके उपरांत ही श्रीकृष्ण ने अवतार समाप्ति की । पांडवों ने उनका पार्थिव ढूंढकर उन पर अग्निसंस्कार किए; परंतु उन्होंने उस पार्थिव का बिना जला भाग समुद्र में विसर्जित किया । वही आत्मतत्त्वभाग आगे जाकर जगन्नाथपुरी के राजा को मिला तथा वह वहां स्थित श्रीकृष्ण की मूर्ति में है, ऐसा बताया जाता है; क्योंकि वह अमर एवं अक्षय ईशतत्त्व !’
– श्री. वसंत गोडबोले (संदर्भ : अज्ञात)