पितृदोष निवारण हेतु उपासना करने के लाभ

लगातार ५ वर्ष घर में पूर्वजों के लिए श्राद्ध न किया हो, तो नारायण-नागबलि, त्रिपिंडी (तीन पीढियों का श्राद्ध विधि) तथा तीर्थश्राद्ध करने पर पितृदोषों की शांति होकर पितृगणों के शुभ आशीर्वाद एवं पुण्य प्राप्त होते हैं ।

भगवान दत्तात्रेय

दत्त अर्थात वह जिसने निर्गुणकी अनुभूति प्राप्त की है; वह जिसे यह अनुभूति प्रदान की गई है कि ‘मैं ब्रह्म ही हूं, मुक्त ही हूं, आत्मा ही हूं ।’

अतृप्त पूर्वजों से कष्ट के कारण तथा उसका स्वरूप

वर्तमान काल में पूर्व की भांति कोई श्राद्ध-पक्ष इत्यादि नहीं करता और न ही साधना करता है । इसलिए अधिकतर सभी को पितृदोष (पूर्वजों की अतृप्ति के कारण कष्ट) होता है ।

श्राद्ध तीर्थक्षेत्र में करने की तुलना में घर पर करना अधिक लाभदायक

ऐसा क्यों कहा गया है कि अपने घरमें श्राद्ध करने से, तीर्थक्षेत्र में श्राद्ध करने की तुलना में आठ गुना पुण्य मिलता हैै ?

पितृपक्ष में महालय श्राद्ध कर पितरों का आशीर्वाद प्राप्‍त करें !

पितृपक्ष में पितृलोक पृथ्‍वीलोक के सर्वाधिक निकट आने से इस काल में पूर्वजों को समर्पित अन्‍न, जल और पिंडदान उन तक शीघ्र पहुंचता है । उससे वे संतुष्‍ट होकर परिवार को आशीर्वाद देते हैं । श्राद्धविधि करने से पितृदोष के कारण साधना में आनेवाली बाधाएं दूर होकर साधना में सहायता मिलती है ।

हिन्दू धर्म में छोटे बच्चों का श्राद्धकर्म न करने के कारण

छोटे बच्चों की (१० वर्ष आयुतक के बच्चों की) मृत्यु होने के संदर्भ में धर्मशास्त्र द्वारा की गई व्यवस्था !

अन्य पंथ तो पूर्वजों के लिए कुछ नहीं करते, फिर उन्हें कष्ट नहीं होता है क्या ?

हिन्दू हो, मुसलमान हो अथवा ईसाई । जो भी शास्त्रों का पालन करेगा, उसे लाभ होगा । जो नहीं करेगा, उसकी हानि निश्‍चित है; परंतु अनेक पंथों में हिन्दू धर्म में वर्णित बातें अलग-अलग पद्धति से अपनायी जाती हैं ।

पितृपक्ष में श्राद्ध !

हिन्दू धर्मशास्त्र में बताए गए ईश्वरप्राप्ति के मूलभूत सिद्धांतों में से एक है – ‘देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं समाजऋण, ये चार ऋण चुकाना’ । इनमें से पितृऋण चुकाने के लिए ‘श्राद्ध’ करना आवश्यक है ।

श्राद्धकर्म में देवताओं को नैवेद्य दिखाना

श्राद्ध-जैसे अशुभ कर्म कनिष्ठ प्रकार के पृथ्वी और आप तत्त्वों से संबंधित होते हैं । इसलिए, इसमें नैवेद्य दिखाने की क्रिया अधिकांशतः भूमि (पृथ्वीतत्त्व) से संबंधित होती है । पितृकर्म (श्राद्ध) में कनिष्ठ देवताओं की तरंगें भूमि की ओर गमन करती हैं, इसलिए उस दिशा को मुख्य मानकर यह क्रिया की जाती है ।