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इस विशेष लेख में हम समझने का प्रयास करेंगे कि श्राद्ध कहां करना चाहिए तथा उसका कारण एवं उससे होनेवाले लाभ क्या हैं ।
१. ऐसा क्यों कहा गया है कि अपने घरमें श्राद्ध करने से, तीर्थक्षेत्र में श्राद्ध करने की तुलना में आठ गुना पुण्य मिलता हैै ?
५० प्रतिशत पितरों का लगाव अपने घर से रहता है । इसलिए, घर में श्राद्ध करने से तीर्थक्षेत्र में किए गए श्राद्ध की तुलना में आठ गुना लाभ होता है ।
‘लगभग ५० प्रतिशत पितर साधना न किए हुए होते हैं । इसलिए, उनमें वासना अधिक रहती है । वासना के कारण उनका सूक्ष्म शरीर अधिक भारी रहता है, जिससे वे उच्च लोकों में नहीं जा पाते । इसलिए उनका निवास उनके पैतृक घर में ही अधिक रहता है । अतः, श्राद्ध आदि शांतिकर्म घर में करने से, पितर अपना पिंड शीघ्र ग्रहण कर सकते हैं । इससे वे अधिक संतुष्ट होते हैं और वंशजों को आशीर्वाद देते हैं । इसीलिए, कहा जाता है कि ‘तीर्थस्थान की अपेक्षा घर में श्राद्ध करने से आठ गुना पुण्य मिलता इसके अतिरिक्त, पितरों का घर के साथ बना घनिष्ठ संबंध समाप्त होने में भी सहायता होती है ।’
२. दक्षिण दिशा में ढलानवाला स्थान श्राद्ध के लिए अच्छा क्यों माना जाता है ?
‘दक्षिण में प्रबल रहनेवाली यमतरंगों की प्रवृत्ति भूमि के उतारवाले पट्टे में घनीभूत होने की रहती है । अतः, इस पट्टे में श्राद्धादि शांतिकर्म करने से, यहां यमतरंगों की प्रबलता के कारण पितर अपना अन्नपिंड शीघ्र ग्रहण कर, संतुष्ट होते हैं । इसीलिए, दक्षिण दिशा में ढलानवाला स्थान श्राद्धकर्म के लिए अनुकूल माना गया है ।’
– एक विद्वान (सद्गुरु) श्रीमती अंजली गाडगीळ के माध्यम से, १३.८.२००६, रात्रि १.५९़
३. कोंकण का समुद्रतट, सिंधु नदी का उत्तरी तट तथा नर्मदा के दक्षिणी तट पर श्राद्ध क्यों नहीं करना चाहिए ?
कोंकण का समुद्रतटीय क्षेत्र, सिंधु नदी का उत्तरी तट, नर्मदा का दक्षिणी तट, सात्त्विकता एवं तेज से प्रभारित होने के कारण श्राद्ध के लिए वर्जित होना ‘कोंकण प्रांत का समुद्रतटीय क्षेत्र, सिंधु नदी का उत्तरी तट एवं नर्मदा का दक्षिणी तट, ये सबसे अधिक सात्त्विक एवं तेज तरंगों से प्रभारित माने जाते हैं । यहां से प्रक्षेपित होनेवाली तेजतत्त्वात्मक तरंगों से यहां का वायुमंडल निरंतर शुद्ध बना रहता है । इन क्षेत्रों में आज भी अनेक दिव्यात्माएं एवं ऋषि-मुनि ध्यानस्थ रहते हैं । उनसे प्रक्षेपित होनेवाली अनेक प्रकार की तारक-मारक संयुक्त तरंगों के फलस्वरूप आज भी लोगों की रक्षा होती है एवं हिन्दू धर्म का बीज अभी भी शेष है । सृष्टि का प्रलय होने पर, भी भारतीय संस्कृति अटल रहेगी; क्योंकि यह अनादि-अनंत है । इस क्षेत्र के समुद्रतट पर कहीं भी श्राद्ध जैसी क्रिया नहीं करनी चाहिए; उसी प्रकार इस तटवर्ती भूमि पर लघुशंकादि करना, पाप माना गया है । श्राद्ध में मंत्रोच्चारण से आवाहन करने पर, पृथ्वी के वातावरण-कक्षा में प्रवेश करनेवाली वासनाओं से युक्त अनेक लिंगदेहों के कारण यह भूमि दूषित हो सकती है । उसी प्रकार, श्राद्ध से रज-तम बढने के कारण इन तटवर्ती क्षेत्रों से सात्त्विक तरंगों का प्रक्षेपण रुक सकता है । इससे, श्राद्धकर्म करनेवाले को महापाप लग सकता है । इन्हीं कारणों से इन तटवर्ती क्षेत्रों में श्राद्धादि शांतिकर्म करना मना है ।’
– एक विद्वान (सद्गुरु) अंजली गाडगीळ के माध्यम से, २८.७.२००५, सायं. ७.४८़
संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’