शुभसूचक कृत्य करना अथवा शुभ वस्तुओं की ओर देखना

१. शुभसूचक कृत्य करना

‘बडों का अभिवादन करना, दर्पण या घी में अपना प्रतिबिम्ब देखना, केशभूषा करना, अलंकार धारण करना, नेत्रों में अंजन या काजल लगाना आदि कृत्य शुभसूचक होते हैं ।’
– नारद प्रकीर्णक, ५४.५५

अ. शुभसूचक कृत्यों के कारण देह की सत्त्वगुणात्मक चेतना कुछ कालतक बनी रहना : ‘‘देवतापूजन करने का कृत्य देह में सत्त्वगुण बढाती है, इसलिए कहते हैं कि देवतापूजन के पश्चात ‘शुभसूचक कर्म, अर्थात सत्त्वगुण का प्रक्षेपण करनेवाले कर्म करें ।’ यह शुभसूचक कृत्य देह की सत्त्वगुणात्मक चेतना कुछ काल तक बनाए रखने में सहायक होती है । शुभसूचक कृत्य अधिक एकाग्रतापूर्वक करने से देह वायुमण्डल में सात्त्विक तरंगों का प्रक्षेपण करती है, जिससे कुछ कालोपरांत देह के सर्व ओर उसका सुरक्षामण्डल बनने में सहायता होती है ।

आ. बडों का अभिवादन : इससे बडों के प्रति नम्रभाव निर्माण होकर सत्त्वगुण बना रहता है ।

इ. दर्पण अथवा घी में अपना प्रतिबिम्ब देखना : इससे देह पर आया रज-तमात्मक आवरण दर्पण अथवा घी की पारदर्शकता में समाने में सहायता होती है । परिणामस्वरूप देह की सत्त्वगुणात्मक क्षमता बनी रहती है ।

ई. केशभूषा करना : बाल संवारने की प्रक्रिया द्वारा निर्मित तेज के उत्सर्जन से बालों में स्थित रज-तमात्मक कणों का उच्चाटन होता है । बालों में विद्यमान चेतना जागृत होकर बालों का बलवर्धन होता है, जिसके आधार से वे वायुमंडल में स्थित कष्टदायक स्पंदनों के साथ लडने में समर्थ बनते हैं । इससे देह का सत्त्वगुण बनाए रखनेमें सहायता होती है ।

उ. आंखों में अंजन अथवा काजल लगाना : घी की ज्योति पर बनाए गए काजल से एवं घी के अंजन से आंखों के तेजतत्त्व के कार्य को पुष्टि मिलती है । नेत्रों से बाह्य वायुमंडल में तेज का प्रक्षेपण बढता है एवं तेज के स्तर पर संपूर्ण देह की रक्षा होने में सहायता मिलती है । इसीलिए कहा गया है कि ‘सत्त्वगुणसंचय की पुष्टि करनेवाले ये कृत्य करें ।’

– एक विद्वान (श्रीमती अंजली मुकुल गाडगीळजी के माध्यम से, २४.१२.२००७, सायं. ७.३६)

२. शुभ वस्तुओं की ओर देखना

‘ब्राह्मण, राजा, गाय, अग्नि इ. मंगलमय होते हैं ।’ – नारद प्रकीर्णक

३. अध्यात्मशास्त्र

मंगलमय व्यक्ति अथवा वस्तु के दर्शन से देखनेवाले के देह पर आया आवरण झडना एवं देह को सतेजता प्राप्त होना : ‘देवतापूजन करने का कृत्य देह में सत्त्वगुण बढाती है । इसलिए कहते हैं कि देवतापूजन के उपरान्त ‘सात्त्विक घटकों को देखने में, अर्थात कुछ समय उनपर मन एकाग्र करने में व्यतीत करें ।’

ब्राह्मण, राजा, गाय, अग्नि इत्यादि मंगलमय होते हैं; क्योंकि तेजदायिनी अथवा स्वयंतेज से युक्त वस्तु को ‘मंगलमय’ माना जाता है । ब्राह्मतेज से संपन्न ब्राह्मण, देवत्वदर्शक तेज का उत्सर्जन करनेवाली स्वयं गौमाता, प्रत्यक्ष तेजस्वरूप अग्नि एवं क्षात्रतेज से सम्पन्न राजा, ये सभी घटक विविध प्रकार के तेज से परिपूर्ण होते हैं । इसलिए उनके दर्शन से लाभ होता है । दर्शन करनेवाले की देह पर आया आवरण झड जाता है एवं उस के देह को सतेजता प्राप्त होती है । यही सतेजता देह के सत्त्वगुणात्मक संक्रमण में निरंतरता बनाए रखती है ।’ – एक विद्वान (श्रीमती अंजली गाडगीळजी के माध्यमसे, २४.१२.२००७, सायं. ७.३६)

(संदर्भ – सनातन की ग्रथमाला ‘आचारधर्म’)