स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम एज्युकेशन फाउंडेशन’ ने शैक्षणिक स्थिति पर बनाई गई वार्षिक रिपोर्ट (वृत्तांत) घोषित की है । उसमें ग्रामीण भारत में शिक्षा की स्थिति पर पर चौंकाने वाले निष्कर्ष शामिल हैं । १४ से १८ वर्ष के छात्रों में से २५ प्रतिशत छात्र अपनी क्षेत्रीय भाषा की दूसरी कक्षा की पाठ्यपुस्तकें ठीक से नहीं पढ पाते, आधे से अधिक छात्रों को गणित के भाग(भागफल) करने नहीं आते, ४२.७ प्रतिशत किशोर आयु के छात्र अंग्रेजी के वाक्य ठीक से पढ नहीं पाते, ऐसे और अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष लिखे गए हैं । जब एक ओर भारत विश्व की तीसरी आर्थिक शक्ति बनने की ओर अग्रसर होने का प्रयास कर रहा है, तो ‘ग्रामीण क्षेत्रों में विद्यार्थियों को सरकारी, गैर-सरकारी और अन्य सभी स्तराें पर कितना परिश्रम करने की आवश्यकता है’, यह ध्यान देने योग्य है ।
ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थी और युवक कुछ बातों में शैक्षिक प्रगति में यद्यपि पीछे हैं, तो भी इस निष्कर्ष में ऐसा भी लिखा है कि ९० प्रतिशत युवाओं के घर ‘स्मार्टफोन’ हैं और ‘उसका प्रयोग करना वे अच्छे से जानते हैं । ‘स्मार्टफोन’ का प्रयोग करनेवाले ८० प्रतिशत विद्यार्थी भ्रमणभाष का प्रयोग पढाई के लिए न कर फिल्म (चित्रपट) देखना, गाने सुनना जैसे मनोरंजन के लिए करते हैं । यह भी सामने आया है कि इनमें से आधे से अधिक बच्चे उसकी सुरक्षा के विषय में कुछ भी नहीं जानते । आजकल स्थिति ऐसी है कि १-२ वर्ष के बच्चे, जो एक शब्द का उच्चारण भी नहीं कर सकते, वे भी ‘यू ट्यूब’ पर छोटे बच्चों के गाने ढूंढकर उन्हें देख सकते हैं । ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों का विचार करें तो जो बच्चे पहले लपकडंडा, गुल्ली-डंडा, कबड्डी, खो-खो जैसे मिट्टी में खेलने वाले अनेक खेल खेलते थे, वे भी आज मोबाइल (भ्रषणभाष) में सिर लगाए दिखते हैं । यह चित्र चिंताजनक है ‘स्मार्ट फोन’ अब ‘भस्मासुर’ हो गया है । यह भस्मासुर शैक्षणिक प्रगति के मार्ग का एक प्रमुख शत्रु बन गया है और हम सबके सामने उसे रोकने की एक बडी चुनौती है । यदि बच्चों को बचपन से ही स्व-अनुशासित बनाना है, तो सरकार को ही हस्तक्षेप कर छोटे बच्चों द्वारा मोबाइल फोन (भ्रमणभाष) का उपयोग प्रतिबंधित करना आवश्यक है ।
वृत्तांत की अध्ययनपूर्ण प्रस्तुति !
स्वयंसेवी संस्था ‘प्रथम एज्युकेशन फाउंडेशन’ प्रत्येक वर्ष शिक्षा रिपोर्ट प्रकाशित करती है । वर्ष २००५ में इस संस्था ने अपनी पहली शैक्षणिक रिपोर्ट की घोषणा की । यह संस्था विद्यालयों का शैक्षिक स्तर, विद्यार्थियों को मिलनेवाली सुविधाओं, विद्यार्थियों की शैक्षिक गुणवत्ता जैसी अनेक बातों का राष्ट्रीय स्तर पर सर्वेक्षण कर अपनी रिपोर्ट प्रकाशित करती है । समान आंकडों, समाज के निचले स्तर के विद्यार्थियाें का समावेश और छात्र सर्वेक्षण नवीन मानदंडों के कारण राष्ट्रीय स्तर पर यह रिपोर्ट विशेष महत्त्व रखती है । इस वर्ष भी इस संस्था ने २६ राज्याें के २८ जिलों को चुनकर १४ से १८ आयुवर्ग के ३४ सहस्र ७४५ विद्यार्थियाें से बात कर यह रिपोर्ट तैयार की । इस वर्ष की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि ५७.३ प्रतिशत विद्यार्थी अंग्रेजी पढ सकते हैं; किंतु उनमें से ७६ प्रतिशत छात्र उसका अर्थ नहीं समझ पाते ।
व्यावसायिक क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्र के युवक पिछडे !
इस सर्वेक्षण में और एक चिंताजनक बात सामने आई है, वह यह है कि ग्रामीण क्षेत्र के युवक व्यावसायिक प्रशिक्षण में पिछडे होते हैं । सर्वेक्षण किए युवकों में केवल ५.६ प्रतिशत युवक ही ऐसा प्रशिक्षण ले रहे हैं और महाविद्यालय में पढनेवाले १६.२ प्रतिशत युवक व्यावसायिक प्रशिक्षण ले रहे हैं । अधिकांश युवक ६ माह से अधिक पाठ्यक्रमवाला प्रशिक्षण लेने को तैैयार नहीं हैं । भारत में पहले ग्रामीण गांव समृद्ध थे; क्योंकि बढई, लुहार सहित १२ पौनी गांव में ही होते थे और ग्रामीणों की आवश्यकताएं गांव में ही पूरी होती थीं । पीढी दर पीढी अनेक लोगों को अपने परिवारों में ही इसकी शिक्षा मिलती थी, जिस कारण ऐसी शिक्षा पाने के लिए उन्हें किसी विद्यालय में जाने की आवश्यकता ही नहीं होती थी । इसके विपरीत आज केंद्र सरकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रमाें के लिए कौशल विकास (‘स्किल डेवलॉपमेंट’) जैसी अनेक योजनाएं होने से इस पाठ्यक्रम के प्रति ग्रामीण क्षेत्र के युवकों का नकारात्मक दृष्टिकोण परिवर्तित करने के लिए सरकारी स्तर पर विशेष प्रयास करने होंगे । ये पाठ्यक्रम नीरस न होकर उनमें नवीनतम (इनोवेटिव) सूत्र होने चाहिए ।
कुछ आशाजनक निष्कर्ष !
कोरोना महामारी के पश्चात उपजीविका पर संकट आने से अनेक बडे छात्र अपने परिवारों की आर्थिक सहायता करने के लिए विद्यालय छोड देंगे, ऐसा डर सर्वत्र व्यक्त हो रहा था, जो व्यर्थ सिद्ध हुआ । रिपोर्ट में लिखा है कि पाठशाला छोडने वाले बच्चों की संख्या घट रही है । इसके साथ ही गतवर्ष की रिपोर्ट में शिक्षा की गुणवत्ता पर विचार करने पर बताया गया कि सरकारी विद्यालयों की स्थिति संतोषजनक है ।
‘भारत कृषिप्रधान देश है’, ऐसा हम कहते हैं । भारत की बडी जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है । पहले गांव आत्मनिर्भर और आर्थिक दृष्टि से भी सक्षम थे । किंतु अब स्थिति इसके विपरीत दिखाई देती है । विद्यार्थियों को दी जा रही शिक्षा से उनकी उपजीविका साध्य न होने से युवकाें का झुकाव सहज ही नगरों की ओर बढ रहा है । नागरी क्षेत्रों में विद्यार्थियों को उच्च स्तर की शिक्षा देनेवाले निजी विद्यालयों का पर्याय उपलब्ध रहता है । इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में उनके सामने सरकारी विद्यालय का ही पर्याय उपलब्ध रहता है । इसलिए सरकार को ग्रामीण शिक्षा पर विशेष ध्यान देने, उनकी गुणवत्ता बढाने की और विद्यार्थियाें के विकास की ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है । कई बार सरकारी स्तर पर विविध योजनाएं घोषित तो होती हैं; किंतु वे अंतिम व्यक्ति तक नहीं पहुंच पातीं । भारत में दानवीर लोगों और संस्थाओं की कोई कमी नहीं है । इसलिए ‘रोटरी’, ‘जायंट्स’ जैसी अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं के माध्यम से भवनों को अनेक सुविधाओं से सुसज्जित करना, विद्यालयों को अच्छे उपकरण दिलाना और शिक्षकाें को भी अच्छा वेतन दिलाने का प्रयास करना जैसे कुछ न्यूनतम कार्य करने से ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा की गुणवत्ता बढाने में सहायता होगी । भारत की प्रारंभिक गुरुकुल शिक्षा प्रणाली में उन्हें नियमित शिक्षा के साथ ६४ कलाओं में से २-३ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी, जिसका प्रयोग उनके व्यावहारिक जीवन में होता था । इसलिए भारतीय शिक्षा प्रणाली को पाश्चात्त्य शिक्षा प्रणाली के बंधन से मुक्त कर पुन: एक बार गुरुकुल शिक्षा प्रणाली की ओर मुडना होगा, जो एक स्थायी समाधान है ।