इस भूतल पर प्रभु श्रीराम जैसे यथार्थ आदर्श वे स्वयं ही हैं ! श्रीराम ने आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श सखा, आदर्श राजा आदि अनेक आदर्श स्थापित किए हैं; परंतु उसके साथ ही श्रीराम द्वारा किया गया कुशल संगठनकार्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है । अकस्मात उत्पन्न हुए वनवास काल के कठिन प्रसंगों में भी अयोध्या से बिना कोई सहायता लिए, स्वयं वन में स्थित विभिन्न वीरों को संगठित कर, असुरों का संहार कर, उन्होंने उन समस्याओं का समाधान किया । इसलिए हिन्दू समाज की दृष्टि से प्रभु श्रीराम के इस संगठनकार्य का अध्ययन कर उसका आचरण करना आवश्यक है । ५०० वर्ष की प्रतीक्षा के उपरांत अयोध्या में प्रभु श्रीराम का मंदिर बन रहा है । ऐसे स्वर्णिमक्षण में हिन्दू श्रीराम के संगठनकार्य का आदर्श सामने रखेंगे, तो संपूर्ण भारत के अन्य अतिक्रमित मंदिर भी हिन्दुओं को प्राप्त होने में समय नहीं लगेगा ।
१. वनवास में मित्र निषादराज से सहायता तथा उसके प्रति कृतज्ञता का भाव
महर्षि वसिष्ठ के गुरुकुल में रहते समय श्रृंगवेरपुर के आदिवासी निषादराजा गुह से श्रीराम की अत्यंत घनिष्ठ मित्रता थी । अयोध्या से बाहर निकलने पर जब निषादराज को श्रीराम के वनवास का समाचार मिला, तब उन्होंने श्रीराम को अपना राज्य सौंपकर, उनसे वहीं रहने का अनुरोध किया; परंतु श्रीराम ने वनवास धर्म के पालन को कर्तव्य बताकर किसी भी नगर में प्रवेश करने में अपनी असमर्थता जताई तथा उसके अनुरोध को अस्वीकार किया । उसके राज्य में स्थित वन में वृक्ष के नीचे पत्तों का बिछौना बनाकर श्रीराम ने वनवास की अपनी पहली रात बिताई । निषादराजा ने ही मांझी वंश के केवटराज को बुलाकर उसकी नांव से श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण को गंगा नदी पार कराई, साथ ही उनके वनवास का प्रबंध करने हेतु वे साथ गए । श्रीराम ने वहां से प्रयागराज स्थित भारद्वाज मुनि के आश्रम में जाकर, जब उनसे वनवास के निवास के संदर्भ में पूछा, तब भारद्वाज मुनि ने यमुना नदी के परे स्थित चित्रकूट पर्वत पर वनवासकाल में निवास करने के लिए कहा तथा स्वयं के राज्य में लौटने के लिए कहा । उसके अनुसार निषादराज ने आज्ञा का पालन किया । वनवास में निषादराज द्वारा की गई सहायता श्रीराम नहीं भूले, अपितु लंकाविजय प्राप्त कर वापस लौटते समय प्रभु श्रीराम ने अपना पुष्पक विमान रोककर निषादराज को भी स्वयं के राज्याभिषेक समारोह में सम्मिलित होने हेतु अपने साथ लिया । इससे अपनी सहायता करनेवाले के प्रति कृतज्ञता का भाव कैसा होना चाहिए, इसका प्रभु श्रीराम ने आदर्श स्थापित किया है ।
२. श्रीराम का वनवासकालीन कार्य
वनवास के काल में श्रीराम ने विश्वामित्र, अत्रि, अगस्त्य आदि ऋषि-मुनियों के आश्रमों से राक्षसों के उपद्रव से स्थायीरूप से मुक्त किया । इस काल में श्रीराम-लक्ष्मण ने अनेक राक्षसों का वध कर वन में रहनेवाले सामान्य लोगों को भी राक्षसों के आतंक से मुक्त किया । लगभग १२ वर्ष तक प्रभु श्रीराम वनवास में यह कार्य कर रहे थे । इसी काल में अत्याचारी राक्षसों के वध के उपरांत उन्होंने वनवासी समुदाय को धनुष्य-बाण चलाने का प्रशिक्षण देकर शस्त्रविद्या सिखाई । उसके कारण आज भी अधिकांश वनवासीजन धनुष-बाण का उपयोग करते हुए दिखाई देते हैं । श्रीराम ने उन्हें धर्म-परंपरा सिखाई, उसके कारण हमारे यहां वन में भी राजपरंपरा दिखाई देती है, साथ ही उनकी प्रथा-परंपराओं में समानता दिखाई देती है । इस कार्य के कारण श्रीराम को रावण के विरुद्ध लडने हेतु वनवासी सेना की बडी सहजता से सहायता मिली ।
३. सुग्रीव की सहायता करना
किष्किंधा नगर का राजा बाली बहुत पराक्रमी था तथा एक वरदान के कारण उसके विरुद्ध लडनेवाले शत्रु का आधा बल उसे मिलता था । उसके कारण किसी भी युद्ध में वह बडी सहजता से जीत जाता था । उसने देवताओं को भी पराजित किए हुए महापराक्रमी रावण की गर्दन को अपनी भुजाओं में दबाकर संपूर्ण विश्व की परिक्रमा की थी । उसके कारण रावण ने उसके सामने अपनी पराजय स्वीकार की थी । इस बाली ने एक प्रसंग में अनुचित धारणा (गलतफहमी) के कारण अपने भाई सुग्रीव को राज्य से बाहर निकाल दिया था तथा उसकी पत्नी रूमा को बलपूर्वक अपने पास रखा था । उसके कारण सुग्रीव ने ऋष्यमुख पर्वत में शरण ली थी ।
यहां युद्धनीति पर विचार करने पर यह समझ में आता है कि जिस रावण ने सीताहरण किया था, उसी रावण को बाली ने बडी सहजता से पराजित किया था; इसलिए श्रीराम यदि बाली से सहायता मांगते, तो रावण भयभीत होकर सीतामाता को सहजता से लौटा देता; परंतु ऐसी स्थिति में भी प्रभु श्रीराम ने अन्यायी बाली से सहायता नहीं ली, अपितु उन्होंने सुग्रीव की पत्नी को बलपूर्वक अपने पास रखनेवाले बाली के विरोध में जाकर अन्यायग्रस्त सुग्रीव की सहायता करने का निश्चय किया । इससे यह समझ में आता है कि श्रीराम ने किसी बलवान का पक्षधर बनने के स्थान पर अन्याय पीडित सुग्रीव का पक्ष लिया । प्रभु श्रीराम ने अन्यायी बाली का वध कर सुग्रीव का राज्याभिषेक किया तथा उन्हें उनकी पत्नी वापस दिलाई; परंतु उसी समय किष्किंधा के राजकुमार के रूप में पराक्रमी बालीपुत्र अंगद की नियुक्ति कर उसे भी अपने साथ जोड लिया ।
४. रावण के भाई विभीषण को शरण देना तथा युद्ध में उसकी सहायता लेना
विभीषण रावण का सबसे छोटा भाई था । भले ही वह राक्षसकुल में जन्मा था; परंतु वह श्रीविष्णु का परमभक्त था । राजसभा में हुई चर्चा में उसने रावण को यह बताया कि श्रीराम की शरण में जाकर सीतामाता को श्रीराम को सौंपना ही उसके लिए हितकारी है । उसके कारण रावण ने विभीषण पर क्रोधित होकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । उस समय विभीषण शरण मांगने हेतु श्रीराम के पास गया । जब शत्रु का भाई ही शरण मांगने आए, तो उसका वास्तविक उद्देश्य जानना आवश्यक था । इस पर श्रीराम ने सर्वप्रथम हनुमानजी का मत पूछा । तब हनुमानजी ने लंका में विभीषण से हुई भेंट तथा श्रीराम को विभीषण की भगवद्भक्ति की जानकारी देकर विभीषण को शरण देने के लिए कहा; परंतु जांबवंत, नल-नील इत्यादि मंत्रियों के मन में संदेह बना रहने से श्रीराम ने उनका संशय दूर करने का निर्णय लिया । उसके लिए श्रीराम ने उन्हें इतिहास के उदाहरण बताकर शरण मांगने आए व्यक्ति की सहायता करने का कर्तव्य समझाया । श्रीराम के इस निर्णय के कारण विभीषण शत्रु पक्ष के संपूर्ण प्रदेश के, शस्त्रों के, असुरों की सेना के तथा शक्ति के रहस्य जाननेवाला सहयोगी बन गया । उसके कारण युद्ध में उसने प्रभु श्रीराम की उचित सहायता कर उनकी विजय का मार्ग प्रशस्त किया था । रावणवध के उपरांत लंका राजाविहीन बन गई, तो वहां उचित राजा की आवश्यकता है, इसे जानकर श्रीराम ने लंका के अगले राजा के रूप में विभीषण को चुना । केवल इतना ही नहीं, अपितु ‘मरणांति वैरानी…’ (अर्थ : मृत्यु के उपरांत शत्रुता समाप्त होती है) के वचन के अनुसार स्वयं ही रावण का अंतिमसंस्कार किया । इसके कारण श्रीराम ने लंका की प्रजा का भी मन जीत लिया । भगवान श्रीराम का लक्ष्य लंका की सत्ता हाथ में लेना नहीं था; इसलिए लक्ष्मण को जब सोने की लंका का मोह हुआ । तब श्रीराम ने ‘जननी जन्मभूमीश्च स्वर्गादपि गरियसी’ (अर्थ : स्वर्ग की अपेक्षा जन्मभूमि सर्वश्रेष्ठ है), इस वचन का स्मरण दिलाकर मातृभूमि का महत्त्व विशद किया । इससे भी श्रीराम का अद्भुत संगठन कौशल समझ में आता है ।
वनवास में जाने की पिता की आज्ञा का पालन करते-करते लंकाविजय हेतु श्रीराम का संगठन : वास्तव में देखा जाए, तो जब रावण ने सीताहरण किया, उस समय श्रीराम यदि अयोध्या की सेना तथा अपने भाईयों से सहायता मांगते, तो उन्हें बडी सहजता से उनकी सहायता मिल जाती; परंतु वनवास में धनसंग्रह करना वर्जित होने से सेना का वेतन, युद्धसामग्री पर व्यय तथा सेना के लिए आवश्यक अनाज की आपूर्ति नहीं की जा सकती थी, साथ ही उससे पिता को दिए गए वनवास के वचन का भंग हो जाता । इसलिए प्रभु श्रीराम ने वनवासियों, वानरों आदि समुदायों से आत्मीयता स्थापित कर उनकी सहायता ली तथा उन्हीं की सेना बनाई । इस सेना को वन में उपलब्ध फल खाने की आदत होने से तथा उनके द्वारा वन में स्थित वृक्षों-पत्थरों आदि का शस्त्र के रूप में उपयोग करने से रावण की सेना से युद्ध करना भी उन्हें संभव हुआ । इससे श्रीराम ने सीतामाता को छुडाने के आदर्श पतिधर्म का पालन तो किया ही; उसके साथ ही पिता को दिए वनवास के वचन का भंग न होने दिया । इस प्रकार उन्होंने आदर्श पुत्रधर्म का तथा आचारधर्म का भी पालन किया ।
इसके द्वारा प्रभु श्रीराम ने वनवास में ही कुशल संगठन का आदर्श स्थापित किया है । अतः यदि हमने भी इसी प्रकार संगठन बनाया तथा संगठन में स्थित प्रत्येक व्यक्ति के कौशल का उचित उपयोग किया, तो रामराज्यरूपी हिन्दू राष्ट्र को पुनः साकार करना कठिन नहीं है ।
– श्री. रमेश शिंदे, राष्ट्रीय प्रवक्ता, हिन्दू जनजागृति समिति