सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी द्वारा साधकों को व्यष्टि एवं समष्टि साधना के विषय में किया मार्गदर्शन

  1. ‘अनेक वर्ष साधना करने के पश्चात भी प्रगति न हुए कुछ साधकों को सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की कृपा से महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय के सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी का अमूल्य सत्संग मिला । उन्होंने उन साधकों की व्यष्टि एवं समष्टि साधना संबंधी अडचनें समझकर उनका मार्गदर्शन किया । उस मार्गदर्शन के सूत्र यहां दे रहे हैं । अंक क्र. २३ में प्रकाशित लेख में हमने ‘मन खोलकर बोलने का महत्त्व, भाव कैसे बढाएं ? एवं गुरुसेवा परिपूर्ण होने के लिए क्या करना चाहिए ?’, आज इस लेख का अंतिम भाग यहां दे रहे हैं । (भाग २)
सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळजी

४. गुरुसेवा परिपूर्ण होने हेतु क्या करें ?

४ ई १. उदाहरण के तौर पर लिए गए छायाचित्र के प्रयोग में भी ‘साधक का छायाचित्र योग्य दिखाई दे’, ऐसे ही खींचना आवश्यक, ऐसी सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी की सीख : एक बार छायाचित्रों का एक प्रयोग चल रहा था । तब सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने कहा, ‘छायाचित्र उदाहरण के लिए (rough) निकालेंगे !’ वैसा छायाचित्र खींचने पर उस छायाचित्र में एक साधक के अंदर के वस्त्र (बनियान) दिखाई दे रहे थे । तब उन्होंने यह चूक ध्यान में लाकर देते हुए कहा, ‘‘भले ही छायाचित्र उदाहरण के लिए खींचा है, तब भी वह योग्य ही होना चाहिए । अपनी प्रत्येक कृति परिपूर्ण ही होनी चाहिए एवं हमें वैसी आदत लगनी चाहिए ।’’ इस प्रकार प्रत्येक कृति अच्छी ही करनी चाहिए, उस समय उन्होंने हमें ऐसा सिखाया ।

४ उ. अन्यों से परिपूर्ण सेवा करवा लेना

४ उ १. आपातकाल में अन्यों पर निर्भर न रहना ! : ‘आपातकाल में हमें किसी भी बात पर अन्यों पर निर्भर नहीं रहना है । साधकों पर कोई भी सूत्र नहीं छोडना है । हमें सतत अनुवर्ती प्रयास (फॉलोअप) करना है । ‘दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पीता है’, आपातकाल में अब वैसी स्थिति आ गई है ।

४ उ २. अन्यों से सेवा करवाते समय उनकी अडचनें समझकर उन्हें दूर कर उनकी सेवा की अडचनें दूर होने हेतु प्रार्थना करने तथा उन्हें प्रोत्साहन देने पर उनसे निकटता निर्माण होना : हमारे पास सेवा का दायित्व है, तब भी अन्य साधकों से अधिकारपूर्वक नहीं, अपितु प्रीति से सेवा करवानी चाहिए, तभी हमें अपेक्षित, वैसी सेवा उनसे हो सकती है । प्रीति से सेवा करवाने के लिए पहले उनसे निकटता निर्माण करनी चाहिए । साधकों से पूछें, ‘सेवा करते समय कुछ अडचन तो नहीं आ रही है ? उन्हें अन्य कोई, उदा. व्यक्तिगत अडचन तो नहीं है न ?’ साधकों की सेवा की अडचनें दूर होने हेतु प्रार्थना भी कर सकते हैं । समय-समय पर साधकों से पूछताछ करें, उन्हें प्रोत्साहन दें । चूकें होती हों, तो उन्हें समझाकर बताएं । इससे सेवा परिपूर्ण होने में सहायता मिलती है एवं आनंद भी मिलता है, इसके साथ ही साधकों से निकटता भी होती है । साधकों के प्रति हममें सतत कृतज्ञभाव होना चाहिए । ऐसा करने से ईश्वर सहायता करते हैं ।

४ उ ३. सहसाधक की सेवा में आनेवाली अडचनें दूर होने हेतु प्रयत्न करने पर समष्टि भाव एवं व्यापकता निर्माण होना : सहसाधक की सेवा में आनेवाली बाधाएं सहजता से दूर नहीं होतीं । उन्हें दूर करने के लिए प्रयत्न करना पडता है । वैसा प्रयत्न करने पर, वे अडचनें दूर होंगी एवं हममें समष्टि भाव भी निर्माण होगा । समष्टि भाव अर्थात व्यापकता ! सर्वांगीण विकास के लिए, इस प्रकार प्रयत्न करें । इससे साधक में भी हमारे प्रति प्रीति निर्माण होती है ।

४ उ ४. दूसरे साधक को सेवा देते समय गुरुसेवा पर परिणाम न हो; इसलिए उसे अनिष्ट शक्तियों का कष्ट हो, तो उसकी अडचन समझकर उसे आध्यात्मिक स्तर पर उपचार बताकर उस अडचन को सुलझाना आवश्यक ! : दूसरे साधक को सेवा दी एवं यदि अनिष्ट शक्तियों के कष्ट के कारण उनसे सेवा नहीं हुई, तो गुरुसेवा पर परिणाम होता है; इसलिए हमारा उस पर ध्यान रहना चाहिए । ‘उस साधक को अनिष्ट शक्तियों का कष्ट है क्या ? उससे सेवा क्यों नहीं हो पा रही ?’, यह हमें समझना चाहिए । आध्यात्मिक स्तर पर उपचार बताकर हमने उसकी अडचन सुलझाई, तो उसके साथ निकटता बढने में सहायता होती है तथा अपनी सेवा भी समय पर होती है ।

४ ऊ. गुरुसेवा अच्छी करने से हममें साधना की लगन बढती है तथा अपनी आध्यात्मिक उन्नति होती है ।

४ ए. सेवा करते समय सीखने के लिए मिले सूत्र प्रतिदिन लिखकर उन्हें आत्मसात करना एवं समष्टि लाभ के लिए सभी तक पहुंचाना आवश्यक ! : सेवा करते समय सीखने के लिए मिले सूत्र प्रतिदिन लिखकर रखने चाहिए । इससे वे सूत्र समझकर, उन पर चिंतन कर उन्हें आत्मसात करना संभव होता है । इसके साथ ही सेवा के विषय में शंकाएं भी पूछ सकते हैं । ये सूत्र समष्टि के लाभ हेतु पहुंचाएं । इससे सभी को उनका लाभ होगा एवं हमारी समष्टि साधना होगी ।

५. सेवा में स्वयं से तथा अन्यों से होनेवाली चूकें सुधारने के संदर्भ में करनेयोग्य प्रयास

५ अ. अपनी चूकें समझने के लिए विचारों के स्तर पर निरीक्षण करना आवश्यक ! : हमसे होनेवाली चूकें हमें समझ में न आती हों, तो विचारों के स्तर पर निरीक्षण करना चाहिए; क्योंकि विचार अधिक घातक होते हैं तथा वे वैसे ही रह जाएं, तो उनका विस्फोट हो सकता है । अनुचित कृति तो ठीक है; परंतु विचार नहीं । विचार मन में न रखें, तुरंत लिख डालें ।

५ आ. चूकें सुधारने के लिए मन में आनेवाले अयोग्य विचार देखकर उनका मूल ढूंढना चाहिए : मन की ओर सतत ध्यान रखना चाहिए । उससे हमें अपनी चूकें भी समझ में आती हैं । मन की विचार प्रक्रिया की ओर ध्यान देकर उसमें सुधार करें । ‘कोई विचार आया, तो उस पर कैसे विजय प्राप्त कर सकते हैं ?’ यह देखना चाहिए । अयोग्य विचार देखकर उसका मूल ढूंढना चाहिए । ‘मन में अपेक्षा अथवा कर्तापन है क्या ?’, यह देखना चाहिए । मन में योग्य विचारों की संख्या बढने से उसके अनुरूप कृति होती है । ऐसा करने से अंतर्मुखता आती है ।

५ इ. चूकें टालने के लिए भगवान को पुन:-पुन: आर्तता से पुकारकर उनकी सहायता लें ! : ‘पहला विचार भगवान का होता है तथा उस विचार के छूट जाने पर सेवा में चूक होती है’, ऐसी अडचन कुछ साधकों को आती है । ऐसे समय पर ‘भगवान का विचार छूट गया’, ऐसा विचार न करें । भगवान पुन: सुझाते हैं । हम भूल गए, तब भी भगवान को आर्तता से पुकारते रहें । भगवान दयालु हैं । वे हमें सुधार लेते हैं ।

५ ई. अन्यों के चूक करने पर उसे बताना टालें नहीं : अन्यों से कोई चूक होने पर उसकी अनदेखी न करें । उसे योग्य पद्धति से बताएं; प्रतिक्रियात्मक नहीं ।

५ उ. किसी साधक का आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत होने पर, साधक के सभी स्वभावदोष नहीं जाते, इसलिए उसे उसकी चूक बताएं : ‘६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर हो गया, अर्थात स्वभावदोष नहीं’, ऐसा नहीं है । स्वभावदोष हैं; परंतु उसमें कुछ गुण हैं; इसलिए ६० प्रतिशत आध्यात्मिक स्तर हुआ है’, यह ध्यान में रखकर उसे उसकी चूक बताएं ।

६. साधना अखंड जारी रहने के लिए किए जानेवाले प्रयास

६ अ. व्यष्टि साधना के प्रयास नियमित होने चाहिए ।

६ आ. प्रत्येक आधे घंटे में साधना के प्रयास, स्वयं से हुई चूकें इत्यादि का ब्योरा लेना : प्रत्येक आधे घंटे में अपना ब्योरा लें । हमने साधना के कौन से प्रयत्न किए ? साधना में हम कहां कम पडे ? अपनी कौन सी चूकें ध्यान में आईं ? इत्यादि का अध्ययन करें । प्रत्येक कृति करते समय हम साधना के रूप में कौन से प्रयत्न करेंगे ? यह पहले ही निश्चित कर लें तथा कृति होने के उपरांत ब्योरा लें ।

६ इ. सेवा करते समय नामजप होना आवश्यक ! : नामजप बढना चाहिए । सेवा करते समय नामजप होना ही चाहिए । भगवान के आंतरिक सान्निध्य में रहने से प्रत्येक कृति ‘साधना’ के रूप में होगी ।

६ ई. स्वभावदोषों पर प्रतिदिन एवं नियमित रूप से स्वसूचना देना आवश्यक है, अन्यथा नामजप में खंड पडेगा तथा भावजागृति नहीं होगी : नामजप होते रहने से, स्वभावदोष अल्प होते हैं; परंतु जब स्वभावदोष अधिक कष्ट देते हैं, तब उनके लिए स्वसूचना देनी पड़ती है । स्वभावदोषों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रतिदिन नियमित रूप से स्वसूचना देना तथा उस अनुसार कृति करना आवश्यक है । स्वभावदोष अधिक होंगे अथवा अहं का कोई पहलू तीव्र होगा, तो नामजप में खंड पडता है । इसके परिणामस्वरूप भावजागृति नहीं होती ।

६ उ. दैनिक कृति करते समय भाव रखने से २४ घंटे साधना संभव एवं वर्तमान काल भीषण होने से कठोर प्रयास करना आवश्यक : दैनिक कृति करते समय यदि भाव से जोडेंगे, तो २४ घंटे साधना हो सकती है । वह तुरंत नहीं होगी; परंतु करते रहेंगे, तो अपनी आदत बन जाएगी । इसका हर आधे घंटे में ब्योरा लें । ब्योरा लेने पर, हमें उसका भान होता है, ‘हमने इस अवधि में क्या किया ?’ कोई कृति करते समय यदि भाव न रखा हो, तो दंड पद्धति अपनाएं ।  प्रत्येक कृति करते समय ‘वह किसके लिए ? क्यों कर रहे हैं ?’ इसका विचार करना चाहिए । ऐसे प्रयास अखंड करने चाहिए । वर्तमानकाल भयंकर है तथा अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव भी अधिक है । इसलिए कठोर प्रयास करना आवश्यक है, तभी प्रगति होगी ।

६ ऊ. कोई भी कर्म साधना के रूप में करना चाहिए : साधना के लिए कष्ट उठाने की तैयारी होनी चाहिए । हम केवल कर्म करते हैं; परंतु वे कर्म साधना के रूप में ही होने चाहिए । साधना के रूप में न करने से हम पीछे रहते हैं ।

६ ए. प्रतिदिन लगन से साधना करने पर ही प्रगति होती है : अब तीव्र आपातकाल होने से पूरे वर्ष में जैसे-तैसे १ प्रतिशत प्रगति होती है । प्रतिदिन लगन से साधना करने पर ही गुरुकृपा होकर प्रगति हो सकती है ।

६ ऐ. स्वयं की सकारात्मक शक्ति बढाने के लिए साधना नियमित एवं अधिक गंभीरता से करना महत्त्वपूर्ण ! : वर्तमान में वातावरण की नकारात्मक शक्तियां (निगेटिविटी) अत्यंत बढ गई हैं । इसलिए उनके विरुद्ध लडकर हमें अपनी सकारात्मक शक्ति (पॉजिटिविटी) बढानी पडेगी; इसलिए साधना नियमित एवं अधिक गंभीरता से करना महत्त्वपूर्ण है । उसी प्रकार स्वयं की नकारात्मक शक्ति अल्प करने के लिए आध्यात्मिक स्तर पर उपायों में सातत्य होना चाहिए ।

६ ओ. सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी द्वारा बताई गई अष्टांग साधना के कारण साधकों की सभी देहों की शुद्धि होना : स्वभावदोष, अहं निर्मूलन एवं नामजप से स्थूलदेह की शुद्धि होती है । भाव जागृत होना, सत्संग एवं सत्सेवा से मनोदेह शुद्ध होती है । त्याग से कारणदेह तथा प्रीति से महाकारणदेह शुद्ध होती है । साधकों की सभी देहों की शुद्धि होने हेतु सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी ने अष्टांग साधना द्वारा प्रयत्न करने के लिए बताया है । अष्टांग साधना ही साधना का आधार है ।

६ औ. स्वयं में परिवर्तन लाने के लिए तथा सतत सीखते रहने के लिए लगन आवश्यक है ।

६ अं. साधना में प्रगति होने पर साधक द्वारा हो रही प्रत्येक कृति परिणामकारक एवं प्रभावी होना : ६० प्रतिशत का महत्त्व, अर्थात ६० प्रतिशत सत्त्व गुण होने पर हम जो कुछ करते हैं, उदा. वैद्यकीय सेवा, गायन, अध्यात्म का प्रसार करना इत्यादि, वह परिणामकारक तथा अधिक प्रभावी होता है । अन्यथा हम अन्यों को सकारात्मकता (चैतन्य) नहीं दे सकते ।’

– सद्गुरु डॉ. मुकुल गाडगीळ, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (१०.१०.२०२३)

(समाप्त)