१. ‘दाभोलकर-पानसरे हत्याकांड : जांच के रहस्य ?’ पुस्तक लिखने की पृष्ठभूमि
२० अगस्त २०१३ को सवेरे पुणे में डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की हत्या हुई तथा उसके उपरांत वह राष्ट्रीय स्तर का बडा समाचार बन गया ! इसके विरुद्ध अनेक आधुनिकतावादियों ने संपूर्ण राज्य में आंदोलन किए । कांग्रेस के तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण ने इस घटना के उपरांत दाभोलकर की हत्या का संबंध गांधी की हत्या से संबंधित प्रवृत्तियों से जोडकर संदेह की सुई हिन्दू विचारधारावाले संगठनों की ओर मोड दी तथा कुल मिलाकर इस जांच को एक विशिष्ट दिशा दी ! अब इस घटना के १० वर्ष पूर्ण हो चुके हैं । मैंने डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉ. गोविंद पानसरे, प्रा. एम.एम. कलबुर्गी तथा पत्रकार गौरी लंकेश की हत्याओं की जांच का तथा न्यायालय में प्रविष्ट आरोप-पत्रों का विस्तार से अध्ययन किया है । पुलिस की सुस्त जांच तथा न्यायालयीन प्रक्रिया में निहित त्रुटियों में सुधार हो, साथ ही न्यायालयीन प्रक्रिया से दोषियों को शीघ्रातिशीघ्र दंड मिले; परंतु दूसरी ओर इसमें निर्दाेष लोगों का उत्पीडन भी न हो, इस भावना से यह पुस्तक लिखी है ।
पुस्तकें लिखने में मेरी कभी भी रुचि नहीं थी तथा मुझे उसकी आवश्यकता भी नहीं थी । महाराष्ट्र में बहुचर्चित नास्तिकतावादियों के हत्याओं के आरोपपत्र पढने के उपरांत जांच में हुई विसंगतियां मेरी समझ में आईं । सहस्रों पृष्ठों के आरोपपत्र तथा सैकडों समाचारपत्र पढने के उपरांत, संपूर्ण शोध करने के पश्चात, इन हत्याओं की जांच के विषय में कुछ अज्ञात तथ्य मेरी समझ में आए । न्यायतंत्र की गंभीर स्थिति तथा जांच संस्थाओं का झूठ मैंने प्रत्यक्ष पढा । भारत जैसे सबसे बडे लोकतांत्रिक राष्ट्र में राजनीतिक शक्ति का उपयोग कर जांच को जानबूझकर प्रभावित किया जाता है, यह अनुभव मेरे लिए चौंकानेवाला था । ‘यह सब जनता के सामने आना आवश्यक है’, इस विचार से मैं यह पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित हुआ ।
२. पुलिस जांच तथा न्यायालयीन प्रक्रिया में सुधार होना आवश्यक !
ब्रिटिशकालीन भारत के वर्ष १९०१ के पुलिस कमिशन ने इसकी प्रविष्टि करते हुए लिखा था, ‘‘पूरे देश का पुलिस बल अत्यंत असंतोषजनक स्थिति में है, अनुचित आचरण सर्वत्र सामान्य बात बन गई है । उसके कारण जनता को बहुत कष्ट होता है, साथ ही सरकार की बदनामी होती है । अतः इसमें तुरंत आमूलचूल सुधार होने आवश्यक हैं, इसमें कोई संदेह नहीं । ’’
दुर्भाग्यवश ब्रिटिश काल से लेकर आज तक इसमें कोई बहुत परिवर्तन नहीं हुआ । डॉ. दाभोलकर एवं कॉमरेड पानसरे की हत्या की जांच-पद्धति में अनेक त्रुटियां हैं । इसमें गलत फोरेंसिक ब्योरा, मुख्य एवं पूरक आरोपपत्रों में एक ही अपराध के लिए भिन्न-भिन्न लोगों पर आरोप लगाना तथा उससे भी चौंकानेवाली बात यह है कि इन आरोपपत्रों में संबंधित लोगों की पहचान करनेवाले साक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं तथा पुलिस कोई भी ठोस प्रमाण प्रस्तुत करने में असफल रही है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण जांच संस्था ‘सीबीआई’ ने भी यह अभियोग न चले; इसके लिए सभी हथकंडे अपनाए । कुल मिलाकर भारत में पुलिस बल तथा न्यायालयीन प्रक्रिया में अतिशीघ्र सुधार होने की आवश्यकता है । इसकी समीक्षा के लिए ही मैंने यह पुस्तक लिखी । जनता ने यदि इसके विरुद्ध आवाज नहीं उठाई, तो भविष्य में भी हमें इस प्रकार की भटकी हुई जांच का सामना करना पडेगा !
३. केवल अभियोग नहीं, यह है वामपंथियों के विरुद्ध लंबी लडाई !
इस लेखन की अवधि में मैं इन अभियोगों को चलानेवाले अधिवक्ताओं से मिला, जिसमें अधिवक्ता संजीव पुनाळेकर, अधिवक्ता प्रकाश साळसिंगीकर, अधिवक्ता सुवर्णा आव्हाड-वस्त एवं अधिवक्ता समीर पटवर्धन का समावेश है । मैंने उनसे अनेक बार कुछ शंकाएं भी पूछीं । ऐसी ही एक भेंट में मैंने अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर से पूछा, ‘‘यह इतनी लंबी चलनेवाली लडाई है । आप कैसे ये अभियोग चलाते हैं ? इसके लिए आपको ऊर्जा कहां से मिलती है ?’’ इसपर उनका उत्तर बहुत ही स्पष्ट तथा मार्मिक था । ‘‘ये केवल अभियोग नहीं हैं, अपितु यह व्यवस्था में बैठे वामपंथियों के विरुद्ध हमारी एक लंबी लडाई है । हम सामान्य नागरिक इसकी ओर तात्कालिक रूप से केवल अभियोग अथवा ‘हत्या की जांच’ के रूप में देखते हैं; परंतु मूलतः इस व्यवस्था में बने रहकर हमारा उत्पीडन करनेवाले वामपंथी हैं । उनकी दृष्टि में ये हत्याएं तथा उससे उत्पन्न पीडा, इस युद्ध को जीतने का एक मार्ग है ।
कॉ. पानसरे की हत्या होने के उपरांत उनके द्वारा अनेक वर्ष पूर्व लिखी गई छोटी मराठी पुस्तक ‘शिवाजी कोण होता ?’ (शिवाजी कौन था ?) बडी संख्या में बिकने लगी । उस पुस्तक पर जानबूझकर चर्चा करवाई गई । यह क्या दर्शाता है ? यह उस व्यक्ति की मृत्यु की व्यक्तिगत पीडा को नहीं दर्शाता, अपितु उस पीडा का लाभ उठाकर ‘छत्रपति शिवाजी महाराज हिन्दुत्वनिष्ठ नहीं थे, वे सेक्यूलर (धर्मनिरपेक्ष) थे’; इस वामपंथी विचार के पुनप्रर्चार के अवसर का लाभ उठाना दर्शाता है ।
वामपंथी पानसरे ने इस पुस्तक में छत्रपति शिवाजी महाराज को अन्य राजाओं की भांति ही एक राजा; परंतु ‘केवल एक अच्छा राजा’ के रूप में प्रस्तुत करने का जो असफल प्रयास किया था, उसे नए सिरे से दोहराया गया तथा इस बार इसे लेखक की हत्या की पृष्ठभूमि होने के कारण वामपंथी अपने इस प्रयास में सफल भी रहे । इस प्रकार यह एक लंबी लडाई है । समाज एवं शासनतंत्र उनके सिद्धांतों पर चलें, यह वामपंथियों को अपेक्षित है । उसके लिए भिन्न-भिन्न हथकंडे अपनाकर भिन्न-भिन्न कथाएं तथा छोटी-छोटी लडाईयों का वातावरण बनाना, उनके इस दीर्घकालीन युद्ध की प्रक्रिया है । क्या देश में हत्याएं नहीं होती ?’, इसका उत्तर ‘होती हैं’, यही है; परंतु कलबुर्गी की हत्या के उपरांत ६५ लोगों ने सरकार को अपने पुरस्कार वापस किए । इसके लिए ‘पुरस्कार वापसी’ का अभियान चलाया गया । इससे तो यही अर्थ निकलता है कि ये सभी लोग कुछ विशिष्ट हत्याओं के प्रति ही संवेदनशील थे तथा उन्हें केवल उन्हीं पर चर्चा करानी थी, इस बात का हमें ध्यान रखना होगा ।
यह मिथक उत्पन्न करने की प्रक्रिया है । मैं इसके दो छोटे उदाहरण देता हूं । पहला उदाहरण है नक्सली ! नक्सलवाद वामपंथी विचारधारा का ही एक अंश है । वामपंथ सार्वजनिक रूप से हिंसा के मार्ग पर चलता है; परंतु भारत में सामान्य व्यक्ति की दृष्टि में इस प्रकार की छवि बनाई गई है कि नक्सली एवं वामपंथी भिन्न-भिन्न हैं ! वामपंथियों की यह सफलता है कि वे हिंसा तो करते हैं; परंतु उसका नैतिक बोझ स्वयं न उठाकर उसका ठीकरा नक्सलियों के सिर पर फोडकर शांत रहते हैं, साथ ही गुप्तरूप से उनकी सहायता भी करते हैं !
इससे ही दूसरा उदाहरण तैयार होता है । विवाद के लिए हम कुछ समय तक यह स्वीकार करेंगे कि डॉ. दाभोलकर, पानसरे, गौरी लंकेश एवं कलबुर्गी, ये जो वामपंथी अथवा समाजवादी विचारधारा के थे, कुछ हिन्दुत्वनिष्ठों ने उन्हें मार डाला । आज न्यायालय में आरोपियों के रूप में जो खडे हैं, वे वही हिन्दुत्वनिष्ठ होंगे, ऐसा नहीं है; परंतु कुछ लोगों ने उन्हें मारा । विवाद के लिए इसे मान भी लिया जाए, तब भी संपूर्ण देश में किस प्रकार की छवि बन रही है ? तथा किस प्रकार के मतप्रवाह तैयार किए जा रहे हैं, यह देखें ।
४. नक्सलवाद के कारण मारे गए १४ सहस्र नागरिकों के प्रति संवेदना नहीं है ?
नक्सलवाद के कारण इस देश में मरनेवालों की संख्या १४ सहस्र से अधिक है । प्रति सप्ताह तथा प्रतिमाह ये हत्याएं होती हैं । हम समाचारपत्रों में उसके समाचार तो पढते हैं; परंतु हमें उसका कुछ नहीं लगता । नक्सलियों के हाथों मारे जानेवालों में पुलिस अधिकारी, विधायक, सैनिक, सरपंच, सामान्य नागरिक, आदिवासी ऐसे सभी हैं; परंतु हमें उसका कुछ नहीं लगता अथवा लगने नहीं दिया जाता ! हमारे मन इतने अचेत किए गए हैं कि हम ऐसे समाचार पढकर अगला पृष्ठ पढने लगते हैं । तो ४ वामपंथियों की हत्याओं के कारण यदि देश में इतना हाहाकार मचाया जाता है; तो सहस्रों सामान्य नागरिकों, पुलिसकर्मियों, सरपंच आदि जनप्रतिनिधियों सहित आदिवासियों के मारे जाने पर इस देश में क्या होना चाहिए ? मेरे जैसे अधिवक्ता का आक्षेप तथा सच्ची लडाई वही है । किसी की हत्या करना निंदनीय कृत्य ही है; परंतु १४ सहस्र हत्याओं के प्रति समाज को असंवेदनशील बनाए रखना तथा ‘गांधीहत्या के उपरांत अब तक देश में सब शांत था; अब सीधे वर्ष २०१३ में दाभोलकर की ही हत्या हुई’, ऐसा चित्र तैयार करना वैचारिक आतंकवाद है । क्या यह रा.स्व. संघ, भाजपा तथा मोदी सरकार को घेरने का मात्र एक हथियार है ?’’
अधिवक्ता इचलकरंजीकर का यह प्रश्न किसी को अच्छा लगे न लगे; परंतु विचारणीय तो निश्चितरूप से है !
५. क्या ‘नक्सली हिंसा’ आतंकवाद नहीं है ?
वर्ष २०१० में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने यह स्वीकार किया था कि देश की आंतरिक सुरक्षा में नक्सलवाद गंभीर समस्या है । इस देश में नक्सलग्रस्त क्षेत्र की व्यापकता देखी जाए, तो वह केरल जैसे राज्य से भी बडी है; तो केंद्र एवं राज्य सरकारों को इस पर कितना खर्चा करना पडता होगा? कोई राजनीतिक विचारधारा नक्सलियों के माध्यम से निरंतर हिंसा करती है; परंतु वह आतंकवाद नहीं होता अथवा प्रचलित व्यवस्था में उसे ‘आतंकवाद’ बोलने नहीं दिया जाता । उसे ‘अधिकारों की लडाई’ बोलकर हिंसक पद्धति से लडनेवालों के प्रति प्रसारमाध्यम, राजनीति एवं न्यायपालिका उदार बन जाते हैं, यह बहुत ही गंभीर है ।
वर्तमान प्रधानमंत्री मा. नरेंद्र मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचने के प्रकरण में जिन ‘अर्बन नक्सलियों’ को पकडा गया था, उनके लिए ‘जिहादी’, ‘आतंकवादी’ जैसे शब्दों का प्रयोग न कर, उन्हें ‘लेखक’, ‘विचारक’, ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ आदि उपाधियां लगाकर उनका सम्मानपूर्वक उल्लेख किया जा रहा था, साथ ही हमें उनकी ओर सहानुभूति की दृष्टि से देखने के लिए बाध्य किया जा रहा था । उसी समय में नालासोपारा बमसंग्रह प्रकरण में बंदी बनाए गए लोगों को ‘हिन्दू आतंकी’ कहा जा रहा था । यह भी एक ‘वैचारिक आतंकवाद’ ही है !
६. वामपंथियों का वैचारिक आतंकवाद !
ब्रिटिशों से लडकर हमने स्वतंत्रता तो प्राप्त की; परंतु हमारे बच्चे अभी भी इतिहास के पाठ्यक्रम में ‘अकबर द ग्रेट’ तथा ‘मुगल किस प्रकार से देश के राजा थे ?’, इसी का इतिहास पढ रहे हैं । ‘ब्रिटिशों ने मुगलों से नहीं; मराठों से भारत को जीता’, यह घटना भी हमें ज्ञात नहीं है । इस प्रकार से यहां का इतिहास लिखा जाता है । जोसेफ स्टालिन के ‘एक व्यक्ति की मृत्यु दुखद घटना होती है, जबकि लाखों लोगों की मृत्यु केवल आंकडे होते हैं !’, इस वाक्य का विचार करें, तो उक्त ४ लोगों की मृत्यु दुखद घटना है; परंतु १४ सहस्र लोग भले ही मर जाएं अथवा न्यूनतम १ सहस्र ही मरे’, ऐसा भी मानें; तब भी वे ‘केवल आंकडें हैं’, ऐसा इस परिप्रेक्ष्य में हम क्यों नहीं देखते ?
स्टालिन का एक और वाक्य इसी प्रकार से महत्त्वपूर्ण है । उसने कहा था, ‘Print is the sharpest and strongest weapon of our party (प्रकाशन हमारे दल का सबसे धारदार एवं बलशाली शस्त्र है ।)’
क्या मृत्यु होने तक अनेक लोगों के लिए अज्ञात कॉ. पानसरे एवं गौरी लंकेश उनकी मृत्यु के उपरांत अत्यंत महान विचारक तथा सामाजिक आंदोलन के प्रणेता थे, ऐसा आभास सामान्य लोगों को कराया गया ? यदि ऐसा है, तो कहीं वह इसी शस्त्र के माध्यम से ही तो नहीं किया गया?
एक प्रकार से यह सब कुछ वैचारिक आतंकवाद है ! यह यदि ऐसा ही चलता रहा, तो अपनी मृत्यु के पूर्व अनेक लोगों के लिए अज्ञात अथवा विस्मृत कॉ. पानसरे ५० वर्ष उपरांत वैश्विक स्तर के नेता के रूप में महिमामंडित किए जाएंगे । ‘इस्लामिक आतंकवाद को एक ओर रखकर विचारकों की हत्याओं के अभियुक्तों तथा मालेगांव बमविस्फोट के आरोपियों को ‘वैश्विक आतंकवादी’ घोषित किया जाएगा’, यह जो भय प्रतीत होता है, वह कपोलकल्पित नहीं है !
जिस प्रकार से ‘राजा विक्रम के कंधे पर वेताल बैठा था’, वैसे ‘वैचारिक आतंकवाद’ हमारे कंधों पर बैठ गया है ! राजा विक्रम को उसका भान था तथा उसने अपने सिर के १०० टुकडे नहीं होने दिए; परंतु आज हम वैचारिक दृष्टि से देश के नागरिकों के सिर के टुकडे होते देख रहे हैं । यह आतंकवाद अदृश्य एवं सहस्रों गुना अधिक विषाक्त है । जिसके कारण हम अपनी संस्कृति, अपना इतिहास तथा आनेवाले समय में स्वयं को ही खो देंगे ! अतः इसके विरुद्ध वैचारिक स्तर पर लडना, हम सभी का कर्तव्य है ।
(समाप्त)
– डॉ. अमित थढानी, विख्यात शल्यचिकित्सक, मुंबई, महाराष्ट्र.
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