६ दिसंबर को प.पू. भक्तराज महाराजजी का महानिर्वाणदिन है । उस उपलक्ष्य में…
प.पू. भक्तराज महाराज (प.पू. बाबा) समान पूर्णत्व को पहुंचे महान संत के सत्संग का सौभाग्य पू. शिवाजी वटकरजी को मिला । इन सत्संगों में पू. वटकरजी को सीखने के लिए मिले सूत्र और हुई अनुभूतियां उन्होंने कृतज्ञभाव से यहां प्रस्तुत की हैं ।
१. प.पू. बाबा का गुरु के प्रति भाव
१ अ. गुरु की पादुकाओं के रूप में गुरु ही साथ होने से प.पू. बाबा की आनंदावस्था : १३.७.१९९२ को हम प.पू. बाबा के साथ मुंबई और ठाणे में विविध भक्तों के घर गए थे । प.पू. बाबा के गुरु की पादुकाएं भी साथ थीं । अनेक वर्षाें पश्चात प.पू. बाबा अपने गुरु श्री अनंतानंद साईश की इंदौर आश्रम में पूजा के लिए रखी पादुकाएं अपने साथ लाए थे । तब प.पू. बाबा इतनी आनंदावस्था में थे, मानो ‘साक्षात गुरु ही साथ हैं ।’
१ आ. प.पू. बाबा द्वारा एक प्रसंग में बताना कि ‘गुरु कैसे पहचानें’? : प.पू. बाबा के एक भक्त परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी के पास आते थे । उनके विचार कुछ अलग ही होते थे । मुझे लगता है कि वे ‘तांत्रिक मार्ग से साधना करते थे ।’ वे प.पू. बाबा का वर्ष १९९२ में मुंबई की गुरुपूर्णिमा के समय सेवा करने के लिए आए थे । वे अन्यों में संदेह फैलाते और जताते थे कि वे स्वयं ही गुरु हैं । हमें वे अच्छे नहीं लगते थे; परंतु हमें लगता था कि वे प.पू. बाबा के ज्येष्ठ भक्त हैं, इसलिए हम उन्हें कुछ कह नहीं सकते । एक बार हम सभी एकत्र बैठे थे, तब प.पू. बाबा उनकी ओर देखकर मुझसे बोले, ‘‘गुरु कैसे पहचानें, तो सिर पर हाथ फेरकर धोखा देनेवाला !’’ प.पू. बाबा ने अपने उस वाक्य से मुझे सत्य की प्रतीति देकर खरे गुरु और भोंदू गुरु में भेद करना सिखाया । इसलिए परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी पर मेरी श्रद्धा बढती गई ।
१ इ. देह पर प्रेम न कर, तत्त्व पर प्रेम करने के लिए बताना : एक बार हम प.पू. बाबा के एक भक्त के घर गए थे । वहां से निकलते समय हम उनकी इमारत से नीचे उतरे । गाडी में बैठने के लिए प.पू. बाबा रास्ते पर खडे थे । तभी उस भक्त ने रास्ते पर ही प.पू. बाबा को साष्टांग प्रणाम किया । इसपर बाबा उनसे बोले, ‘‘नाटक क्यों करते हो ! देह से प्रेम मत करो । नामस्मरण और मेरे तत्त्व से प्रेम करो ।’’
१ ई. ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को किस नाम से संबोधित करें ?’, ऐसा पूछने पर द्रष्टा प.पू. बाबा बोले, ‘‘अभी उन्हें ‘डॉक्टर’ ही संबोधित करें, समय आने पर मैं बताऊंगा !’ और ऐसा प्रतीत होना कि अब समय आ गया है और प.पू. बाबा ने ही महर्षि को बताया कि ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अवतारत्व प्रकट कर उन्हें ‘श्रीमन्नारायण’ कहें ! : संत अथवा गुरु को संप्रदायानुसार विविध उपाधियां एवं पद लगाते हैं । हम परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी को केवल ‘‘डॉक्टर’’ संबोधित करते थे । इसलिए २०.९.१९९२ को मैंने प.पू. बाबा से पूछा, ‘‘डॉ. आठवलेजी को ‘डॉक्टर’ कहने के स्थान पर कैसे संबोधित करें ?’’ वे बोले, ‘‘अभी ‘डॉक्टर’ ही कहें । समय आने पर मैं बताऊंगा ।’’ मुझे लगता है कि अब वह समय आ गया है, इसीलिए ‘प.पू. बाबा ने ही महर्षि को बताकर परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी का अवतारत्व उजागर किया है । अत: अब महर्षि ने कहा है कि ‘परात्पर गुरु डॉ. आठवलेजी विष्णु के अवतार हैं । वे साक्षात् विष्णुस्वरूप श्रीमन्नारायण श्री श्री जयंत बाळाजी आठवले हैं । वे जयंत अवतार हैं । वे मोक्षगुरु, परात्पर गुरु डॉ. आठवले हैं ।’ (और अब तो महर्षि ने उन्हें ‘सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत बाळाजी आठवले’ संबोधित करने के लिए कहा है ।)
२. प.पू. बाबा के अनमोल विचार !
बाबा के कुछ अनमोल विचार यहां दे रहे हैं ।
२ अ. ‘शरीर असत्य होने से शरीर धारण करनेवाले सत्य कैसे बोलेंगे ?’ : प.पू. बाबा की एक महिला भक्त कीर्तनकार थी । उसका कहना था कि ‘मुझे विवाह नहीं करना है ।’ तब प.पू. बाबा उससे बोले, ‘‘संयोग बन जाए और प्रारब्ध में हो, तो विवाह करो । मैंने भी तो विवाह किया है, घर-संसार किया है । छ: बच्चे हुए, तब भी लोग मुझे मानते हैं । इसलिए ‘लोग क्या कहते हैं’, इस ओर ध्यान मत दो । लोग हमारे अनुसार नहीं बोलेंगे । शरीर असत्य है । असत्य शरीर को धारण करनेवाले सत्य कैसे बोलेंगे ?’’
२ आ. ‘छोटे लोगों का छोटा बनकर रहना, इसमें ही उनका बडप्पन है !’ : वर्ष १९९४ में प.पू. भक्तराज महाराजजी ने यह प्रसंग बताया । एक बार वे एक भक्त (जो व्यवसाय से चमार था) के घर गए और चमडे के निकट बैठकर भोजन ग्रहण किया । उनके साथ जो भक्त थे, उनमें से कुछ को घिन आई । तब प.पू. बाबा बोले, ‘‘अपने शरीर से चमडी हटाकर देखें, तब समझ में आएगा कि हम स्वयं ही एक नंबर के भंगी हैं । सवेरे उठकर हम क्या करते हैं ? इसके विपरीत ‘यह छोटा मनुष्य छोटा बनकर रहे’, इसी में उसका बडप्पन है ।’’
– (पू.) श्री. शिवाजी वटकर, सनातन आश्रम, देवद. (२३.७.२०१७)
प.पू. भक्तराज महाराजजी की सीख१. एक ही संकल्प करें कि मन में विकल्प नहीं लाना है । २. अध्यात्म में दूसरों की भलाई का विचार करना होता है । ३. उन्नतों की कहना मानना, यह एक साधना ही है, उदा. प.पू. धांडे शास्त्री ने प.पू. बाबा को केले का छिलका खाने दिया और स्वयं केले खाए । ४. सब कुछ करते बनना चाहिए, उदा. श्रीकृष्ण ने यज्ञ स्थल पर झूठी पत्तलें उठाईं । प.पू. बाबा ने अपने ही अमृत महोत्सव के समय व्यासपीठपर (स्टेज पर) साथ में बैठे संतों के लिए पंखा झला । सेवा करने में ही आनंद मिलना चाहिए । ५. संतों समान सहजता से आचरण करना संभव होना चाहिए । ६. लोग मुझसे कहते हैं कि आप सर्वज्ञ हैं; परंतु प्रत्यक्ष में समय आने पर वे वैसा आचरण नहीं करते । |