‘कुछ साधक अनेक वर्षाें से साधना कर रहे हैं; परंतु तब भी अपेक्षित आध्यात्मिक प्रगति के रूप में उन्हें सफलता मिलती दिखाई नहीं देती । इसके कारण कभी-कभी वे निराश हो जाते हैं अथवा ‘अब मेरी साधना से मेरी प्रगति हो सकती है,’ यह उनका आत्मविश्वास ही घटने लगता है ।
कोई भी बडा ध्येय प्राप्त करने के लिए संयम तो रखना ही पडता है; क्योंकि ‘उसे रखना’ भी एक प्रकार की तपस्या ही है । संयम रखने के माध्यम से मन स्थिर होता है और ऐसा मन किसी भी प्रतिकूल स्थिति से लडने के लिए तैयार हो जाता है । अनेक ऋषि-मुनियों, संतों आदि ने अनेक वर्षाें तक ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं संयम रखकर तपस्या की तथा उसी के फलस्वरूप अंततः उन्हें ईश्वरप्राप्ति हुई ! सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी ने वर्ष १९९८ में साधकों के सामने ‘वर्ष २०२५ तक ईश्वरीय राज्य की स्थापना करनी है’, यह लक्ष्य रखा तथा उन्होंने इस दिशा में साधकों को कृतिप्रवण भी किया । ईश्वरीय राज्य की (हिन्दू राष्ट्र की) स्थापना के कार्य के विरोध के रूप में अभी तक सच्चिदानंद परब्रह्म डॉक्टरजी पर तथा उनके द्वारा स्थापित सनातन संस्था पर अनेक संकट आए; परंतु उन्होंने श्रद्धापूर्वक उन संकटों पर विजय प्राप्त की तथा संयम रखकर आज भी वे ईश्वरीय राज्य की स्थापना के लिए प्रयासरत ही हैं एवं इसी कारण ईश्वरीय राज्य का उनका स्वप्न अवश्य साकार होगा ।
साधना में अपेक्षित प्रगति न होने के विभिन्न कारण होते हैं । उन्हें समझना हो, तो साधक आवश्यकता पडने पर अपने दायित्व-सेवकों से बात करें तथा उनसे साधना के प्रयासों के विषय में मार्गदर्शन लें । प्रगति न होने के कारण निराशा आई हो अथवा आत्मविश्वास घट गया हो, तो उसके संदर्भ में आवश्यकता के अनुसार स्वसूचनाएं लें ।
आज की अंधकारभरी रात के गर्भ में ही कल का उषःकाल छिपा होता है । हमने यदि दृढतापूर्वक उस उषःकाल की प्रतीक्षा की, तभी जाकर हमें साधना के आगे के प्रयासों का भी मार्ग दिखाई देने लगता है । अतः साधक श्रद्धा एवं संयम रखकर साधना में अग्रसर रहें ।’
– (पू.) संदीप आळशी (२७.९.२०२३)