‘प्रत्येक व्यक्ति पर अनेक जन्मों के संस्कार होते हैं तथा उसके अनुसार उसकी विचार प्रक्रिया एवं आचरण होता रहता है । कुछ साधकों के मन में साधना की लालसा होती है; किंतु स्वभावदोष एवं अहं के कारण कृति में चूकें होने से अनुचित कृतियां होती हैं । अनेक साधकों से बाह्यरूप से कोई सेवा परिपूर्ण एवं तत्परता से होती है; परंतु उसे करते समय उनके मन में, ‘मैं अच्छा कार्य करता हूं ! मैं अन्यों से अधिक अच्छे ढंग से कर पाता हूं’, जैसे अहंयुक्त विचार होते हैं । उसके कारण वह कृति पूर्ण होने पर भी विचार अनुचित होने से वह सेवा ईश्वर के चरणों में अर्पण नहीं होती ।
कुछ साधकों में ‘मैं कितनी सेवा करता हूं !’, ‘सेवा का दायित्व मुझे मिलना चाहिए’, ‘मैं कोई सेवा अच्छे ढंग से कर सकता हूं’, इस प्रकार की अहंयुक्त विचार प्रक्रिया होती है । इस प्रकार के अहंयुक्त विचारों के कारण उनके द्वारा की गई कृति में अनेक चूकें होकर साधना में तीव्र गति से उनका पतन होता है । सेवा करते समय उचित कर्म करने के साथ ही ईश्वर के प्रति भाव हो, साथ ही मन शुद्ध हो, तो उससे साधना होकर तन एवं मन ईश्वर के चरणों में अर्पण होता है । उसके लिए समय-समय पर मन की समीक्षा करना, साधना के संदर्भ में उत्तरदायी साधकों से मार्गदर्शन लेकर मन एवं कृति के स्तरों पर प्रयास करना’ जैसे प्रयास करने से विचार एवं कृति, इन दोनों स्तरों पर उचित प्रक्रिया कर साधना में निहित शुद्ध आनंद अनुभव किया जा सकेगा ।
साधको, ‘हमारा प्रत्येक कृत्य एवं उसके पीछे के विचार की ओर भगवान की दृष्टि है’, इसे ध्यान में लेकर निष्ठापूर्वक साधना करें !’
– श्रीसत्शक्ति (श्रीमती) बिंदा नीलेश सिंगबाळ, सनातन आश्रम, रामनाथी, गोवा. (१.३.२०२३)