‘नवरात्रि के त्योहार में पहले ९ दिनों में महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती की पूजा की जाती है । उस समय हमारे अंदर के तमोगुण अर्थात विकारों की प्रबलता नष्ट करने के लिए महाकाली की पूजा की जाती है । रजोगुण अर्थात शक्ति बढाने के लिए महालक्ष्मी की तथा सत्त्वगुण बढाने के लिए महासरस्वती की पूजा की जाती है । सत्य-असत्य का ज्ञान लेकर सत्य से एकरूप होने के लिए इन देवियों की पूजा करनी होती है । इस प्रकार से आत्मबल से समर्थ होकर विजयादशमी अर्थात दशहरा मनाया जाता है तथा माया की सीमा लांघकर (गुणातीत बनकर) समष्टि के लिए सर्वत्र चैतन्यमय वातावरण बनाने के लिए (विजय प्राप्त करने के लिए) सीमोल्लंघन किया जाता है । वह साधक की समष्टि साधना ही होती है । वेदों में भी ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम् ।’ (ऋग्वेद, मण्डल ९, सूक्त ६३, ऋचा ५) अर्थात ‘संपूर्ण विश्व को आर्य (सुसंस्कृत) बनाएंगे’, ऐसा कहा गया है ।
१. दसवें स्थान पर स्थित एकनाथी भागवत में ‘निजात्मपूजा’ का आया वर्णन
एकनाथ महाराज ने एकनाथी भागवत ग्रंथ में ‘१०’ के आंकडे के संबंध में ‘१०’ वीं ‘निजात्म पूजा’ का वर्णन किया है, जो साधकों के लिए साधना की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है । जब यह आत्मपूजा साध्य होती है, वही वास्तविक विजयादशमी होती है ।
२. सच्ची आत्मपूजा का महत्त्व समझना ही विजयादशमी की वास्तविक महिमा !
एकनाथ महाराज ने केवल ‘१०’ आंकडे के आधार पर मूलस्वरूप आत्मज्ञान देकर साधक को सच्ची आत्मपूजा की महिमा बताई है । साधक यदि इस प्रकार से आचरण करेंगे, तो उन्हें ईश्वरप्राप्ति होना सहज-सुलभ होगा । यही विजयादशमी की (दश इंद्रियों पर अर्थात स्वभावदोष एवं अहं पर विजय प्राप्त करनेवाली दशमी की) सच्ची महिमा है ।
३. दशहरा का अर्थ है साधना के द्वारा इंद्रियनिग्रह कर स्वयं पर विजय प्राप्त करना !
दशहरा भी यही दिखाता है । वास्तव में ‘१०’ के आंकडे को (दश इंद्रियों को) समझकर उसका हरण करना ही ‘दशहरा’ है । कुल मिलाकर साधना के द्वारा इंद्रियनिग्रह होने पर अर्थात स्वयं पर विजय प्राप्त करने के पश्चात, व्यक्ति वास्तव में किसी भी परिस्थिति का सामना कर विजय प्राप्त कर सकता है । कहने का तात्पर्य यह है कि स्वयं पर विजय प्राप्त करने पर समस्त विश्व पर विजय प्राप्त होती है; इसलिए संत तुकाराम केवल इंद्रियनिग्रह के विषय में कहते हैं, ‘दिनरात हमारे लिए युद्ध की स्थिति है ।’ उनका कहना है, इस प्रकार से ‘निरंतर साधनारत रहा जाए, तो उसके कारण इंद्रियनिग्रह बडी सहजता से संभव होता है ।’ व्यष्टि साधना के द्वारा स्वयं परिपूर्ण हुए बिना समष्टि साधना को गति नहीं मिलती ।
– परात्पर गुरु (स्व.) परशराम पांडे महाराज