नवदुर्गा

नवरात्रि के निमित्त से देवी के विषय में शास्त्रोक्त जानकारी…

किसी भी देवता के विषय में अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी  ज्ञात होने पर उनके विषय में श्रद्धा वृद्धिंगत होने में सहायता होती है । श्रद्धा के कारण उपासना भावपूर्ण होने में सहायता मिलती है तथा ऐसी उपासना अधिक फलदायी होती है । यही बात ध्यान में रखकर नवरात्रि के निमित्त शक्तिपूजकों के लिए एवं शक्ति की सांप्रदायिक साधना करनेवालों के लिए इस लेख में देवी के विषय में अध्यात्मशास्त्रीय जानकारी दे रहे है ।

सृष्टि में कुल नवमिती है । प्रत्येक मिती पर एक-एक दुर्गादेवी का आधिपत्य है । ऐसी कुल ९ दुर्गा हैं; इसलिए उन्हें ‘नवदुर्गा’ कहते हैं ।

‘नौ’ अंक की विशेषताएं

१. (शक्ति के) तीन प्रमुख रूप हैं – महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती । प्रत्येक रूप में अन्य दो रूप समाहित होकर तीनों का त्रिवृत्करण हुआ । आगे उन नौ रूपों को नवदुर्गा का नाम प्राप्त हुआ । इन नौ रूपों में प्रमुख गुणों की मात्रा सारणी में दिए अनुसार है ।

टिप्पणी १ – एक मतानुसार स्थिति की अपेक्षा निर्मिति के लिए अधिक शक्ति आवश्यक होती है, इसलिए महासरस्वती रजोगुण और सुखमय जीवन से संबंधित हैं तथा महालक्ष्मी सत्त्वगुण से संबंधित हैं । एक अन्य मतानुसार निर्मिति की अपेक्षा स्थिति के लिए अधिक शक्ति आवश्यक होती है, इसलिए (चंचल) महालक्ष्मी रजोगुण से एवं ज्ञानदेवी महासरस्वती सत्त्वगुण से संबंधित हैं ।

२. ‘शक्तितंत्र में ‘९’ अंक का विशेष महत्त्व है । यह अंक शक्ति का स्वरूप दर्शाता है । दशमान का यह सबसे बडा अंक है । साथ ही वह पूर्णांक भी है; क्योंकि ‘नौ’ अंक को कितना भी गुना किया जाए, तब भी प्राप्त संख्या के अंकों का जोड ‘नौ’ ही होता है । पूर्ण सर्वदा पूर्ण ही होता है । (इस संदर्भ में अधिक जानकारी सनातन के लघुग्रंथ ‘श्रीकृष्ण’ में दी है ।) इसलिए शक्ति उपासना में ‘नौ’ अंक शक्ति का प्रतीक है ।’

शक्तियों की निर्मिति

१. किसी देवता द्वारा निर्मिति

अंधकासुर देवताओं को कष्ट देता था । एक बार तो उसने शिवपत्नी पार्वती का ही हरण कर लिया । तदुपरांत भगवान शिव ने उससे युद्ध करना आरंभ किया । युद्ध में अंधकासुर के घावों से धरती पर गिरनेवाले रक्त की प्रत्येक बूंद से नए अंधकासुर उत्पन्न होने लगे । इस कारण देवसेना असमंजस में पड गई । उस समय भगवान शिव ने माहेश्वरी एवं एक प्रकार की मातृकाओं का निर्माण किया । उन मातृकाओं ने अंधकासुर के रक्त की बूंद धरती पर गिरने से पूर्व ही उसे जिह्वा से चाटना आरंभ किया । अतएव नए अंधकासुर की निर्मिति रुक गई । तदुपरात भगवान शिव ने अंधकासुर का सहजता से वध किया (वराहपुराण २७ एवं सौरपुराण २९ के अनुसार) ।

२. देवताओं की शक्तियों के एकत्रीकरण से निर्मिति होना

१. ‘एक बार महिषासुर नामक दैत्य महाबली बन बैठा । उसने देवताओं से युद्ध आरंभ किया । इंद्र को परास्त कर वह स्वयं इंद्र बन गया । इसपर ब्रह्मदेव की अगुआई में सर्व देवता भगवान श्रीविष्णु एवं महादेव शंकर के पास गए । महिषासुर संबंधी वृत्तांत सुनकर उन दोनों के साथ ही अन्य देवताओं की भौंहें भी वक्र हो गईं । तत्क्षण सर्व देवताओं की देह से तेज का स्रोत प्रवाहित होने लगा । वह सर्व तेज पूंजीभूत हुआ और उससे एक देवी उत्पन्न हुईं । वह थीं महालक्ष्मी । देवताओं ने उनकी स्तुति की, उन्हें अपने शस्त्र दिए और महिषासुर का वध करने की प्रार्थना की ।’

२. ‘श्री दुर्गादेवी के अवयवों की निर्मिति कैसे हुई, इसका वर्णन मार्कंडेयपुराण में इस प्रकार किया है – महादेव शंकर के तेज से श्री दुर्गादेवी का मुख, यम के तेज से देवी के केश, भगवान श्रीविष्णु के तेज से उनके हाथ, चंद्र के तेज से स्तन, इंद्र के तेज से कटि, वरुण के तेज से जंघाएं एवं पिंडलियां, भूमि के तेज से नितंब, ब्रह्मा के तेज से पैर, सूर्य के तेज से पादांगुल, वसुओं के तेज से करांगुल, कुबेर के तेज से नासिका, प्रजापति के तेज से देवी के दांत, अग्नि के तेज से तीन नेत्र, सांध्यतेज से उनकी भौंहें एवं वायु के तेज से देवी के कर्ण निर्मित हुए । इसके अतिरिक्त अन्य देवताओं के तेज का भी उनकी रूपयोजना में उपयोग हुआ ।’  इस देवी को प्रत्येक देवता ने एक-एक आयुध भी प्रदान किया, उदा. शिव ने त्रिशूल, श्रीविष्णु ने चक्र, इंद्र ने वज्र एवं कालदेवता ने खड्ग दिया । इस प्रकार बीस आयुधों से देवी सुसज्ज हुईं ।

आद्याशक्ति

‘महाकाली ‘काल’ तत्त्व का, महासरस्वती ‘गति’ तत्त्व का एवं महालक्ष्मी ‘दिक्’ (दिशा) तत्त्व का प्रतीक है । काल के प्रवाह में सर्व पदार्थों का विनाश होता है । जहां गति नहीं, वहां निर्मिति की प्रक्रिया ही थम जाती है । तब भी अष्टदिशान्तर्गत जगत की निर्मिति, पालन-पोषण एवं संवर्धन हेतु एक प्रकार की शक्ति सदैव कार्यरत रहती है । यही आद्याशक्ति है । ऊपर दिए गए तीनों तत्त्व इस महाशक्ति में अनुस्यूत (अखंड रूप से) हैं ।’

‘महाकाली तामसी हैं । इसलिए चित्र में वह तत्त्व आकर्षित होता है । महाकाली को ‘श्मशान में निवास करनेवाली’, कहा गया है । अतः निकट श्मशान होने पर वहां की शक्ति भी उनके चित्र में आ जाती है । यथासंभव, घर में दशभुजा देवी का चित्र नहीं, चतुर्भुजा देवी का चित्र रखा जाता है ।’  – १०८ महंत स्वामी श्री प्रकाशानंदगिरी (खंडेश्वरी महाराज)

(संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘शक्तिका परिचयात्मक विवेचन’)