‘आसक्ति’ एक स्वभावदोष है
१. आसक्ति
‘परमात्मा को छोडकर (गुरु, ईश्वर अथवा धर्मशास्त्र इत्यादि छोडकर) अपना अज्ञान दृढ करनेवाली कोई भी इच्छा हो, किसी में मन उलझ गया हो अथवा किसी से कोई आस हो अथवा किसी से कोई अपेक्षा हो, वह हमें सुख देनेवाली हो अथवा दुख देनेवाली हो, वह आसक्ति है ।
२. हमारे दुख का कारण आसक्ति ही है
सुख पाने की अपेक्षा के कारण अन्यों से इच्छा अथवा अपेक्षा करना, यदि हमारे जीवन में दुख तथा अज्ञान निर्माण करता है, तो वह ‘आसक्ति’ है ।
३. व्यक्ति की जो आसक्ति उत्तम समाजव्यवस्था के लिए बाधक होती है, वह अधर्म ही है
अपनी अपेक्षा अथवा इच्छापूर्ति का प्रयास, जो दूसरों के जीवन में अथवा समाज में अशांति निर्माण करती है, अर्थात उत्तम समाजव्यवस्था बनाए रखने में बाधा बनती है तथा जो धर्मसंगत, समाजसंगत अथवा नीतिमूल्यों के अनुकूल नहीं है, वह आसक्ति ‘अधर्म’ होती है ।
४. निष्कामता से अर्थात किसी भी आसक्ति के बिना किया कर्म ‘कर्तव्यधर्म’ होता है
अ. धर्मशास्त्र का पालन करना, अपने कल्याण की इच्छा एवं उत्तम समाजव्यवस्था के उद्देश्य से वर्तमान नियम तथा कानून का पालन करना अथवा उसका पालन करने की अन्यों से अपेक्षा करना, यह आसक्ति नहीं ‘कर्तव्यधर्म’ है ।
आ. जिस कर्म में अपने स्वार्थ का त्याग हो, ‘अन्यों का विचार अथवा अन्यों का उत्कर्ष हो’, ऐसा भाव हो तथा धर्ममार्ग पर चलने अथवा पुरुषार्थ पालन करने का भाव हो, वह ‘धर्मकर्म’ होता
है । इस किसी भी प्रतिक्रिया के बिना तथा फल की आसक्ति के बिना किए कर्म के कारण साधकों में निष्कामता उत्पन्न होती है तथा वह आसक्ति रहित होता जाता है ।
५. केवल ‘ईश्वरप्राप्ति’ ही एक आसक्ति साधक को अन्य सर्व आसक्तियों से छुडाती है ।’
– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (१३.१.२०२३)