‘शिक्षक द्वारा मानचित्र में दिखाए अमेरिका को सत्य मानकर अध्ययन करनेवाले; परंतु संतों द्वारा बताए गए देवता के चित्र पर श्रद्धा रखकर अध्यात्म का अध्ययन न करनेवाले बुद्धिप्रमाणवादी नहीं, अपितु अध्यात्म विरोधी हैं, ऐसा कह सकते हैं । इससे संबंधित एक विवरणात्मक लेख प्रस्तुत है ।
१. ‘भगवान दिखाओ’, ऐसा कहनेवाले शिक्षक द्वारा स्वयं अध्यात्म का छात्र बनना
साधना आरंभ करने के उपरांत एक बार मैं गांव गया था । वहां मुझे मेरे परिचित भूगोल के शिक्षक मिले । उन्होंने कहा, ‘पिंगळे, आप चिकित्सा क्षेत्र के विशेषज्ञ होकर भी अध्यात्म की ओर प्रवृत्त हो गए । क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि आपने चिकित्सा शिक्षा का एक स्थान (सीट) व्यर्थ किया ?’ तब मैंने कहा, ‘नहीं सर, मुझे ऐसा नहीं लगता; क्योंकि अब मैं केवल चिकित्सा-विज्ञान ही नहीं, अपितु विज्ञान के परे अध्यात्म-विज्ञान का अध्ययन कर रहा हूं । इस कारण कुछ भी व्यर्थ हुआ है, ऐसा मुझे नहीं लगता ।’ तब उन्होंने कहा, ‘तुम अध्यात्म विज्ञान का अध्ययन कर रहे हो, तो बताओ, क्या भगवान को देखा है ? भगवान दिखाओ नहीं, तो लिखकर दो कि भगवान नहीं हैं !’ तब मैंने जेब में से भगवान श्रीकृष्णजी का एक चित्र निकाला एवं उन्हें कहा, ‘ये देखिए भगवान । मैंने इन भगवान को देखा है ।’ तब उन्होंने कहा, ‘यह तो चित्र है, भगवान कहां हैं ?’ तब मैंने उन्हें कहा, ‘सर, आपने हम छात्रों को भूगोल पढाया । आपने विश्व का मानचित्र भीत (दीवार) पर टांगकर हमें पढाया । आप कहते थे कि मानचित्र पर दिख रहा यह क्षेत्र अमेरिका देश है । मुझे ज्ञात था कि यह अमेरिका नहीं, अपितु आप कागद के मानचित्र पर उसका प्रातिनिधिक रूप दिखा रहे हैं । तब भी शिक्षा लेते समय शिक्षकों पर यही श्रद्धा रखकर कि ‘आप जो कह रहे हैं, वह सत्य है’, हम छात्र स्वीकार करते थे कि वह अमेरिका है । ठीक उसी प्रकार मेरे गुरुदेवजी ने देवताओं के चित्र दिखाकर कहा, ‘भगवान ऐसे होते हैं’ एवं ‘इस भगवान की प्राप्ति के लिए साधना करें’, ऐसा कहकर मार्ग भी बताया । मैंने उनके द्वारा बताई साधना की एवं उनका मार्गदर्शन लिया, इसलिए मुझे भगवान के दर्शन हुए । तभी तो मैंने आपको कहा कि मैंने भगवान को देखा है एवं वे इस चित्र की भांति हैं ।’
मैंने आगे कहा, ‘सर, हम छात्र भी पाठशाला में आपसे प्रश्न पूछ सकते थे कि इतने छोटे मानचित्र में इतनी विशाल अमेरिका कैसे हो सकती है ? हमें अभी के अभी अमेरिका दिखाईए , अन्यथा अमेरिका नहीं है, यह हमें लिखकर दे दीजिए । परंतु सीखनेवाले छात्रों की यह भूमिका अविचारी प्रमाणित होगी । ठीक उसी प्रकार आपका यह कहना कि ‘भगवान दिखाओ, नहीं तो भगवान नहीं है, ऐसा लिखकर दो’ अतार्किक है, ऐसा अन्यों को लग सकता है ।’ तब हमारे भूगोल के शिक्षक ने कहा, ‘अमेरिका इस प्रकार तुम्हें नहीं दिखा सकता । उसके लिए तुम्हें बहुत धन अर्जित करना पडेगा । पारपत्र (पासपोर्ट) बनवाना पडेगा । वह मिलने के उपरांत अमेरिका का ‘वीजा’ लेना पडेगा । तत्पश्चात ही तुम अमेरिका देख सकोगे । इस प्रकार कोई भी, ‘अमेरिका देखने जाता हूं’, ऐसा कह नहीं सकता ।’ तब मैंने उनसे कहा, ‘यदि भगवान को देखना है, तो आपको गुरुदेव अथवा संतों की शरण जाना पडेगा । उनके बताए मार्ग पर श्रद्धा रखकर साधना के प्रयास करने पडेंगे । यदि श्रद्धा एवं प्रयासों को जोड सकते हैं, तो आपको भगवान के दर्शन निश्चित होंगे । कोई कहे, ‘मुझे भगवान दिखाओ एवं यदि नहीं दिखा सकते, तो लिखकर दो कि भगवान नहीं हैं’, क्या ऐसा संभव है ? एक सादे मानचित्र में दिखाए गए एवं प्रत्यक्ष आंखों से देखे जा सकनेवाले अमेरिका को देखने के लिए इतनी माथापच्ची करनी पडती है कि कोई सामान्य व्यक्ति अमेरिका देखने का विचार भी नहीं कर सकता, तो मन एवं बुद्धि के परे विद्यमान सूक्ष्मातिसूक्ष्म देवता के (ईश्वर के) दर्शन केवल किसी के इतना कहने से कि मुझे दर्शन करना है, तो इतनी सहजता से होना संभव है क्या ?’
भूगोल के शिक्षक छात्रों को केवल मानचित्र में स्थित अमेरिका दिखा सकते हैं, प्रत्यक्ष में नहीं, यह उनकी मर्यादा है । ठीक उसी प्रकार एक बुद्धिप्रमाणवादी अथवा नास्तिक को लगता है; इसलिए भगवान को दिखाने में मर्यादा हो सकती है, ऐसा विचार करें । क्या श्रद्धाहीन एवं बुद्धिप्रमाणवादियों में भगवान को देखने अथवा पहचानने की क्षमता है ? इसका विचार करने के उपरांत ‘भगवान दिखाओ, अथवा भगवान नहीं हैं, ऐसा लिखकर दो’, ऐसा तर्कहीन तथा बुद्धिहीन प्रश्न संतों से पूछेगा ही नहीं, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है । अंत में भूगोल के सर ने कहा, ‘तुम मेरी व्यावहारिक शिक्षा के छात्र हो । आज मैं तुम्हारी आध्यात्मिक शिक्षा का छात्र बन गया ।’
२. भगवान देखने की दृष्टि प्राप्त होने के लिए गुरु के मार्गदर्शन में साधना करना आवश्यक है !
तदनंतर मैंने उन्हें आधुनिक विज्ञान, अर्थात चिकित्सा विज्ञान के संदर्भ में एक उदाहरण देकर कहा कि मैं जब चिकित्सा शास्त्र (मेडिकल साइंस) का अध्ययन कर रहा था, तब हमें सैद्धांतिक दृष्टि से सभी जानकारी दी जाती थी । सूक्ष्म जीव शास्त्र के वर्ग में सूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा (‘माइक्रोस्कोप’ द्वारा) हमें मलेरिया पैरासाइट दिखानेवाले थे । हमें लगता था, ‘थ्योरीटिकल’ (सैद्धांतिक) जानकारी है, इसलिए सहज देख सकेंगे; परंतु सूक्ष्मदर्शक यंत्र में देखने से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था । सूक्ष्म जीव शास्त्र विषय के सर को हमें १०-१० बार सूक्ष्मदर्शक यंत्र में दिखाना पडता था । वे कहते, ‘जो तुम बता रहे हो, वे नहीं अपितु यह, इस बाजू के मलेरिया के जीवाणु हैं ।’ एक अर्थ में जिनको मलेरिया जीवाणुओं की अच्छी पहचान थी, उन्होंने मुझे सूक्ष्मदर्शक यंत्र में बताया कि इसी को मलेरिया जीवाणु कहते हैं ।
जब तक सूक्ष्म जीव शास्त्र की थ्योरी को प्रत्यक्ष सूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा दिखानेवाले गुरु जीवन में नहीं आते, तब तक ‘मलेरिया पैरासाइट’ पहचानना भी चिकित्सा छात्रों के लिए कठिन होता है । ऐसे में जिनकी श्रद्धा ही नहीं है, जिन्होंने अध्यात्म की थ्योरी का अध्ययन नहीं किया है तथा अध्ययन किया भी, तो केवल चूकें बताने के लिए अथवा आलोचना करने के लिए किया है, उन्हें यदि भगवान के दर्शन करा भी दिए, तो वे उन्हें पहचानेंगे कैसे ? भगवान को देखने के लिए जो दृष्टि चाहिए, उसके लिए गुरु होना महत्त्वपूर्ण है एवं उसी के साथ साधना करना भी आवश्यक है । साधना, अर्थात एक प्रकार की तपस्या करनी पडती है । भगवान को देखने के इच्छुक लोगों में जिज्ञासा एवं मुमुक्षत्व होना चाहिए । यदि ऐसा नहीं है, तो ‘अभी के अभी भगवान दिखाओ’, ऐसा न कहें ।
मैंने आगे कहा, ‘सर, इससे ध्यान में आता है कि जितनी श्रद्धा मैंने आप पर रखी, उतनी ही मैंने मेरे अध्यात्म के गुरु सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवलेजी पर रखी । मानचित्र में अमेरिका को जिस प्रकार प्रातिनिधिक सत्य स्वीकार कर मैंने साधना की, ठीक उसी प्रकार गुरुदेवजी के दिखाए देवताओं के चित्रों पर श्रद्धा रखकर उनके द्वारा बताई साधना की, साथ ही आज्ञापालन किया । जिस प्रकार अमेरिका देखना संभव है एवं उसके लिए क्या-क्या करना पडता है ? यह ज्ञात कर पाया, ठीक उसी प्रकार देवता एवं धर्मशास्त्र सत्य हैं, तथा उसकी प्रतीति होने के लिए क्या करना चाहिए ? उसे ज्ञात करने का प्रयास किया है । जिस प्रकार आधुनिक विज्ञान निरंतर परिवर्तनशील है वह परिस्थिति अनुभव कर सकते हैं, उसी प्रकार आध्यात्मिक विज्ञान, जो अपरिवर्तनीय एवं शाश्वत है, उसे गुरु के मार्गदर्शन में अनुभव कर सकते हैं ।’
– (सद्गुरु) डॉ. चारुदत्त पिंगळे, राष्ट्रीय मार्गदर्शक, हिन्दू जनजागृति समिति (४.८.२०२३)