वंशवाद दलों में लोकतंत्र अनुकूल करना आवश्यक !

१. अस्पष्ट कानून एवं वंशवाद की राजनीति के कारण विविध दलों में विद्रोह

‘अजित पवार के विद्रोह के उपरांत राष्ट्र्रवादी कांग्रेस पार्टी भी शिवसेना की भांति दो गुट में बंट गई । एकनाथ शिंदे उस समय की शिवसेना से केवल बाहर नहीं हुए, अपितु तदनंतर वे महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री भी बने । शिवसेना को दल का नाम एवं चुनाव चिन्ह खोना पडा । उसी प्रकार अजित पवार दल को राष्ट्र्रवादी कांग्रेस का चुनाव चिन्ह मिलने की संभावना है । यह प्रश्न यहीं पर समाप्त नहीं होता है । इन गतिविधियों के कारण भारतीय लोकतंत्र की कार्यपद्धति के संदर्भ में भी बडा प्रश्न निर्माण हुआ है । संविधान में स्पष्ट प्रस्तुतीकरण न होने से ‘आया राम, गया राम’ की राजनीति चल रही है ।

मेजर सरस त्रिपाठी

‘किसी भी दल में इस प्रकार के विद्रोह क्यों होते है ?’, यह भी एक बडा प्रश्न है । अधिकांश समय ऐसा विद्रोह केवल संबंधित नेताओं के विरुद्ध होता है, जिन्होंने विद्रोह को पाल-पोसकर उसे राजनीतिक दृष्टि से बडा किया हो, विद्रोह का स्तर बढाया हो एवं उसे स्वीकार किया हो । ऐसे अनेक उदाहरण हैं । तेलुगु देसम के चंद्राबाबू नायडू ने अपने ससुर एन.टी. रामाराव के विरुद्ध दल की रचना कर पार्टी हथिया ली, जबकि एकनाथ शिंदे ने उनके दल के नेताओं के विरुद्ध विद्रोह कर पार्टी हथिया ली, ऐसे अनेक उदाहरण हैं । ऐसे विद्रोह के दो मुख्य कारण हैं । एक : संविधान एवं कानून में स्पष्ट व्यवस्था न होना तथा दूसरा : वंशवाद एवं परिवारवाद की राजनीति । हम इन दोनों विषयों को स्वतंत्र पद्धति से समझने का प्रयास करेंगे ।

२. ‘वंशवाद’ की धरोहर चलानेवाले राजनीतिक दल

भाजपा एवं कम्युनिस्ट (साम्यवादी) पार्टी को छोडकर अन्य अधिकांश पार्टियां एक व्यक्ति अथवा एक परिवार से बंधी हुई हैं । उनकी पहचान विशिष्ट व्यक्ति अथवा परिवार के कारण है । सभी पार्टियों की ‘केस स्टडी’ (प्रकरण के संदर्भ में चिकित्सा) करने का कोई अर्थ नहीं है । इन सभी में एक बात समान है । आरंभ से लेकर आज तक ये पार्टियां एक ही व्यक्ति अथवा परिवार की धरोहर चला रही हैं । जैसे कि जम्मू-कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार की नैशनल कॉन्फरेंस पार्टी; मुफ्ती मुहम्मद के परिवार की पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी), पंजाब में बादल परिवार का शिरोमणी अकाली दल, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के (स्व.) मुलायम सिंह यादव तदनंतर उनके पुत्र अखिलेश यादव, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, (स्व.) सोनलाल पटेल एवं अब उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल की अपना दल पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल के नेता (स्व.)देवीलाल के उपरांत उनका बेटा ओमप्रकाश चौटाला एवं अब पौत्र अभय सिंह चौटाला, शिबू सोरेन एवं उनका बेटा हेमंत सोरेन की झारखंड मुक्ति मोर्चा पार्टी, ममता बनर्जीं की अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस पार्टी, लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल, (स्व.) अजीत सिंह एवं उनके पुत्र जयंत चौधरी का राष्ट्रीय लोक दल, ओवैसी परिवार की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लीमीन (ए.आइ.एम.आइ.एम.), (स्व.) बाळासाहेब ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे एवं उनके परिवार की शिवसेना पार्टी (पूर्वकी), शरद पवार परिवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, चंद्रशेखर राव एवं उनके परिवार की भारत राष्ट्र समिति पार्टी, (स्व.) एन. टी. रामाराव एवं अब उनके जवांई चंद्राबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी, (स्व.) एम. करुणानिधी के पश्चात उनका बेटा स्टॅलिन, बेटी अजागिरी एवं कनिमोजी ये सदा के लिए द्रमुक से (द्रविड मुन्नेत्र कडघम अर्थात द्रविड प्रगति संघ) जुड गए हैं । यह सूची सर्वसमावेशक नहीं; परंतु राष्ट्र किस संकट का सामना कर रहा है; इसके संकेत दे रही है । उनमें से अनेक लोगों ने अनेक दशकों से इस पार्टी के अध्यक्ष अथवा प्रमुख में कोई परिवर्तन नहीं किया है । पार्टी के अंतर्गत लोकतंत्र का अभाव न केवल वंशवाद की बुराई है, अपितु ‘आंतरिक तानाशाही’ भी है ।

३. वर्षाें से पार्टी के अध्यक्ष पद पर बिराजमान वयोवृद्ध नेता

म. करुणानिधि

अर्धशतक नहीं, अपितु कुछ दशक तक एक ही व्यक्ति पार्टी प्रमुख के पद पर बिराजमान था । हां, (स्व.) एम. करुणानिधि वर्ष १९६९ से २०१८ में अपनी मृत्यु तक अर्थात ४९ वर्ष तक ‘द्रमुक’ के प्रमुख रहे । वे स्वतंत्र भारत के कोई भी राजनीतिक पार्टी के प्रमुख के रूप में सर्वाधिक समय काम करनेवाले नेता हैं । इसमें विडंबना यह है कि इसी व्यक्ति ने खुलेआम कहा था, ‘ब्राह्मण बिना चुनाव के भी मठ पर नियंत्रण कर लेते हैं’ । राजनीति में प्रवेश करने के उपरांत वे स्वयं ही ‘राजनीतिक मठाधिपति’ बन गए । उन्होंने पार्टी से अन्य किसी व्यक्ति को पार्टी का नेतृत्व करने के लिए कभी भी पदोन्नति नहीं दी एवं स्वयं भी वह पद कभी नहीं छोडा । आंतरिक चुनाव में समझौता कर वे सदैव अध्यक्ष पद पर बने रहे । वंशवाद की इस राजनीति के कारण दलों में विद्रोह पनपता है । एकनाथ शिंदे, अजित पवार, चंद्राबाबू नायडू अथवा ऐसे अनेक लोगों ने ऐसा किया; कारण उनको ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्ति द्वारा पार्टी नियंत्रित की गई है, जो बढती उम्र में भी पार्टी छोडने का नाम नहीं लेता । ‘आयु के ८३ वर्ष पूर्ण होने के पश्चात भी आप (शरद पवार) कुर्सी नहीं छोडते हैं’, ऐसा अजित पवार ने खुलेआम कहा है । अंत में अगली पीढी कितने दिनों तक प्रतीक्षा करे ?

४. वंशवाद की राजनीति समाप्त करने के उपाय

अ. ‘वंशवाद की राजनीति कैसे समाप्त करें ?’, इसका विचार एवं आचरण करना आवश्यक है । भारतीय लोकतंत्र में ऐसे प्रकरणों को रोकने के लिए कानून बनाना आवश्यक है । प्रथम भारतीय चुनाव आयोग के प्रतिनिधियों की देखभाल में प्रत्येक ३ वर्ष के उपरांत पार्टी के चुनाव लेना अनिवार्य करना चाहिए । यदि राजनीतिक पार्टी वैसा नहीं करती है, तो उसकी मान्यता रद्द कर, उसका चुनाव चिन्ह नियंत्रण में लेकर कानून के अनुसार आंतरिक चुनाव होने तक उन्हें चुनाव लडने से वंचित कर देना चाहिए ।

आ. किसी भी व्यक्ति को पंजीकृत अथवा मान्यता प्राप्त राजनीतिक पार्टी के संगठनात्मक पद पर (विशेषकर अध्यक्ष, महासचिव, कोषाध्यक्ष ऐसे बडे पदों पर) ३ कार्यकाल अथवा १० वर्ष से अधिक काल के लिए अनुमति न दी जाए । कार्यकाल समाप्त होने के पश्चात चुनाव कराने में विफल रहने पर भारतीय चुनाव आयोग द्वारा पार्टी का पंजीयन रद्द किया जा सकता है, अर्थात उसका चुनाव चिन्ह नियंत्रण में लेकर चुनाव लडने से वंचित किया जाए ।

इ. जिनके परिजन पहले से ही संगठनात्मक पदों पर नियुक्त हैं, ऐसे व्यक्ति को पदाधिकारी का चुनाव लडने के लिए नामांकित नहीं किया जाना चाहिए । दूसरे शब्दों में कहें, तो कार्यालय अथवा संगठनात्मक पदों का नियंत्रण सीधे निकट संबंधियों के हाथ में नहीं सौंपा जा सकता । जैसे पत्नी, पुत्र, पुत्री, पौत्र, भतीजी, भांजी, ससुर इत्यादि । ये पद नियमित रूप से परिवर्तित किए जाए एवं ‘आंतरिक लोकतंत्र’ बनाए रखें ।

५. पार्टी के अंतर्गत विद्रोह के समाचार से परे जा कर सोचना आवश्यक !

जबतक वंशवाद समाप्त नहीं होता, तबतक कार्यकर्ताओं में निराशा एवं विद्रोह की भावना तीव्र गति से बढती ही रहेगी, विभाजन होता रहेगा एवं राजनीतिक पार्टियों की संख्या बढती ही जाएगी । अंत में यही बहुपार्टियां लोकसभा एवं विधानसभा में मतों के विभाजन का कारण बनकर लोकतंत्र को दुर्बल बनाती हैं । इसी कारण अब पार्टियों में विद्रोह के समाचार से परे जा कर सोचने की आवश्यकता है ।’

– मेजर सरस त्रिपाठी (सेवा-निवृत्त), गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश