भारत के वैचारिक विनाश का एक वस्तुनिष्ठ इतिहास !

विगत १ सहस्र वर्ष में भारत ने स्वत्व गंवाया । पहले इस्लामी लुटेरों तथा उसके उपरांत धूर्त ब्रिटिशों ने भारतीयों का सर्वस्व ही नष्ट कर डाला । १६ से ३१ मई को प्रकाशित इस लेख के पूर्वार्ध में हमने ‘आइडियोलॉजिकल सबवर्जन’ अर्थात सामाजिक व्यवस्था नष्ट करने के लिए बनाए गए वैचारिक स्तर के षड्यंत्र का उपयोग कर हिन्दुओं में किस प्रकार हीनता की भावना उत्पन्न की, यह देखा । इसके कारण अंग्रेजों की वृत्ति लेकर बनी नई भारतीय पीढियों ने ब्रिटिशों की किस प्रकार सहायता की ? तथा वे भारत के रक्तरंजित विभाजन का कारण कैसे बने, यह आज के इस लेख से समझ लेंगे । यह संपूर्ण जानकारी राष्ट्रनिष्ठ यूट्यूब वाहिनी ‘प्राच्यम्’ पर प्रसारित वीडियो ‘साहेब जे कधी गेलेच नाहीत !’, में दी गई है । अभी तक १६ लाख दर्शकों द्वारा देखे गए इस वीडियो में दी गई अध्येतापूर्ण एवं जागृतियोग्य जानकारी हम हमारे पाठकों के लिए आभार सहित प्रकाशित कर रहे हैं ।                     (उत्तरार्ध)

१४. मोहम्मद अली जिन्ना के रूप में भारत के विभाजन को प्रोत्साहन !

स्वतंत्रता संग्राम जब एक निश्चित वास्तविकता में उतरने के संकेत दिखाई देने लगे, उसी समय अंग्रेजों ने लंडन में पुनः ‘इम्पिरियल काउंसिल’ के अन्य गोरे साहब का प्रावधान किया, उसका नाम था मोहम्मद अली जिन्ना ! इसके संदर्भ में संदीप बालकृष्ण बताते हैं, ‘विंस्टन चर्चिल तथा अन्य कुछ ब्रिटिश नेताओं ने जिन्ना का एक विशिष्ट पद्धति से प्रावधान किया । ‘इंडिया हाउस’ जैसे भारतीय संगठनों ने कुछ दिन पूर्व ही जिन्ना एवं चर्चिल के मध्य हुआ पत्राचार सामने लाया है ।’

बेजमेनोव स्वतंत्रता संग्राम के इस मोड के विषय में बताता है, ‘१५ वर्ष पूर्व उसके (जिन्ना के) कृत्यों की अनदेखी की; परंतु अब उसने उसे एक ‘राजनीतिक समस्या’ का स्वरूप दिया । अब वह आधिकारिक रूप से मान्यता, सम्मान एवं मानवाधिकारों की मांग करने लगा, साथ ही उसने उसके लिए बडा लोकसंगठन (मुसलमानों का एकत्रीकरण) किया । उसके कारण उसमें तथा पुलिस के मध्य हिंसा होने लगी । उसके समर्थक (मुसलमान) तथा सर्वसामान्य जनता (हिन्दू एवं सिख) एक-दूसरे के सामने खडे हो गए । इसे ‘डिस्टेबलाइजेशन’ कहते हैं ।’

इतिहास के अध्येता तथा लेखक आभास मलदियार कहते हैं, ‘अब द्राविडी एवं खालिस्तानी आंदोलनों का जन्म हो चुका था । इस्लामी कट्टरतावाद को और अधिक धर्मांधता की ओर मोडा गया । आपको यह ज्ञात होगा कि वर्ष १९२० के काल में मोपला विद्रोह के समय मुसलमानों को खलीफा के लिए लडने को बाध्य किया गया था । वास्तव में देखा जाए, तो खलीफा तुर्की लोगों को भी स्वीकार्य नहीं था । वर्ष १९४० के काल में वामपंथी आंदोलन के माध्यम से मुसलमानबहुल क्षेत्रों का विभाजन करने के संदर्भ में भी आवाज उठ रही थी । संक्षेप में कहा जाए, तो उस अवधि में अनेक विभाजनकारी आंदोलन उफान पर थे ।’

१५. ‘सबवर्जन’ का अंतिम चरण : संकट (क्राइसिस) !

वर्ष १९४५ के आते-आते जिन्ना एवं उसके सहयोगियों ने भारत की धार्मिक स्थिति बडी मात्रा में बिगाडकर रख दी थी । उस समय संपूर्ण देश जल रहा था । कांग्रेस के सभी आंदोलन संपूर्णतया असफल सिद्ध हुए थे । गोरे साहबों ने उचित समय पर अपना पक्ष बदलकर नेताजी सुभाषचंद्र बोस की प्रसिद्धि का लाभ उठाया । ब्रिटिशों ने बडी चूक करते हुए ‘आजाद हिन्द सेना’ के सैन्याधिकारियों पर देशद्रोह के अभियोग प्रविष्ट किए । उस समय आजाद हिन्द सेना के सैनिकों के लिए संपूर्ण देश संगठित हुआ । नेताजी की लोकप्रियता के सामने नागरी युद्ध की अग्नि मद्धिम (फीकी) पड गई । इसके विपरीत अंग्रेजी शासन लोगों के निशाने पर आ गया । इस संकट को पहचानकर अंग्रेजी शासन ने जिन्ना को आगे बढाया । अब समय था ‘सबवर्जन’ के अंतिम चरण का – ‘संकट’ का (‘क्राइसिस’ का) !

बेजमेनोव कहता है, ‘डिस्टेबलाइजेशन’ की प्रक्रिया सामान्य रूप से संकट की प्रक्रिया की ओर अग्रसर होती है । देश को संकट की खाई में ढकेलने के लिए केवल ६ सप्ताह पर्याप्त होते हैं ।’

२९ अप्रैल १९४६ का दिन ! गांधी ने वर्ष १९२८ में की हुई चूक की पुनरावृत्ति की, जो संपूर्ण भारत को महंगी सिद्ध होनेवाली थी । करोडों लोगों के बलिदान के कारण स्वतंत्रता संग्राम अंतिम चरण पर था । उस समय कांग्रेस का अध्यक्ष ही स्वतंत्र भारत का प्रधानमंत्री बननेवाला था । उस समय सभी के प्रिय नेता थे सरदार वल्लभभाई पटेल !

वरिष्ठ लेखक एस.एल. भैरप्पा बताते हैं, ‘उस समय १५ प्रमुख कांग्रेसी नेताओं में से १२ नेताओं ने पटेल को प्रधानमंत्री के पद के लिए चुना था । एक भी नेता ने नेहरू के पक्ष में मत नहीं दिया था ।’ जनता ने भले ही नेताजी बोस अथवा पटेल को चुना हो; परंतु वह नेहरू को ही बार-बार सामने आता हुआ देख रही थी । गोरेसाहब को नेहरू के रूप में ‘द लास्ट इंग्लिश मैन टु रूल इंडिया’ (भारत पर राज्य करनेवाला अंग्रेजों से समरस अंतिम व्यक्ति) बनाना था !

‘आइडियॉलॉजिकल सबवर्जन’ के इस चरण के विषय में विशद करते हुए बेजमेनोव कहता है, ‘जनता को एक तारणहार व्यक्ति की आवश्यकता थी । जनता की स्थिति पहले से ही बीमार एवं थके हुए व्यक्ति जैसी हो चुकी थी । उस समय हार्वर्ड अथवा बर्कले जैसे विश्वविद्यालयों में आंशिक शिक्षित बुद्धिमान मनुष्य सभी का ‘तारनहार’ बनकर आया !’

१६ अगस्त १९४६ ! जिन्ना ने ‘डाइरेक्ट एक्शन डे’ के (हिन्दुओं के विरुद्ध सीधा आक्रमण करने का दिवस) के अंतर्गत हिन्दुओं का खुलेआम नरसंहार करने के लिए कहा । उस समय संपूर्ण देश आंतरिक युद्ध में झुलस गया । गुप्तचर विभाग के निदेशकों ने एक गुप्त लेख के द्वारा लंडन को सूचित किया, ‘गेम सो फार हैज बीन वेल प्लेड !’ (अभी तक का सब खेल अच्छे ढंग से खेला गया ।)

१६. भारत में जहां दंगे भडक गए थे, ऐसे में सिमला में माउंटबेटन के साथ नेहरू का स्नेहभोजन !

२० फरवरी १९४७ ! नेताजी के समर्थन में सशस्त्र सेना का विद्रोह भारत में रहनेवाले सभी अंग्रेजों के प्राणों के लिए संकट बना हुआ था । ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमेट एटली ने भारत छोडने की तिथि सुनिश्चित की ‘जून १९४८’ !

१२ मार्च १९४७ ! अमेरिका ने वामपंथ एवं साम्राज्यवाद का अंत करने के लिए उसकी नई विदेश नीति की घोषणा की । सहस्रों अरब रुपए के ऋण के तले दबे हुए ब्रिटेन के पास ‘बिग डैडी’ अमेरिका की बात मानने के अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं था । अमेरिका एवं ब्रिटेन के एक नए भूराजनीतिक पारी का उदय हुआ तथा वह था ‘भारत का विभाजन’ ! शीघ्रता में डिकी माउंटबेटन को भारत का ‘वाइसराय’ बनाया गया । उसे एक धारिका दी गई, जिस पर लिखा था ‘ऑपरेशन मैड हाउस’ !

९ मई १९४७ ! नेहरू माउंटबेटन से सिमला में मिले । उस समय माउंटबेटन ने नेहरू को विभाजन का पहला ‘प्लैन’ दिखाया – ‘प्रोजेक्ट बैल्कन’ ! भारत के क्रूर विभाजन का ‘प्लैन’ देख नेहरूसाहब बहुत भयभीत हुए; परंतु सिमला की प्राकृतिक सुंदरता में उनकी सखी एडविना ने उन्हें संभाल लिया तथा अंत में उसने नेहरू को मना ही लिया !

बेजमेनोव कहता है, ‘वह स्वदेश लौटा, उस समय उसे लगा कि उसे सभी सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं के समाधान ज्ञात हैं !’

१७. हृदय को विदीर्ण करनेवाला भारत का विभाजन !

३ जून १९४७ ! माउंटबेटन ने अकस्मात ही घोषित किया, ‘सत्ता का हस्तांतरण जून १९४८ के स्थान पर १५ अगस्त १९४७ को अर्थात केवल १० सप्ताह में होगा ।’ इस पर सभी आश्चर्यचकित रह गए । उसी दिन शाम आकाशवाणी से भारत के विभाजन की घोषणा हुई । हिन्दू-मुसलमान में दंगे भडक गए । गोरे साहबों को माध्यम बनाकर स्वतंत्रता संग्राम का ‘सबवर्जन’ अब पूर्ण हो चुका था । बेजमेनोव बताता है, ‘अब हमारे पास दो ही विकल्प शेष हैं – ‘गृहयुद्ध’ या ‘आक्रमण’ !

१४ अगस्त १९४७ की सायंकाल ! वहां गृहयुद्ध आरंभ होने के कुछ घंटे पूर्व लॉर्ड माउंटबेटन ने शैंपेन खोली । भारत के नाम से ‘टोस्ट’ किया । नेहरूसाहब ने शैंपेन के गिलास उठाकर कहा, ‘किंग जॉर्ज सिक्स्थ (राजा जॉर्ज छठा) के नाम से !’

बेजमेनोव बताता है, ‘टाइमबम का एक-एक क्षण निकट आ रहा था । विनाश और अधिक निकट आ रहा था !’

१४ अगस्त १९४७ की मध्यरात्रि ! मध्यरात्रि में देहली में अचानक ढोल-नगाडों की आवाज सुनाई देने लगी । घर में अपनी लडकी को आनंदित होकर नाचते हुए देख वायसराय के सलाहकार वी.पी. मेनन ने कहा, ‘हमारे सबसे भयानक एवं बुरे स्वप्न अब सच होनेवाले हैं ।’ शत्रु राष्ट्र के प्रति निष्ठा तथा हमारे ‘साहब’ की निष्क्रियता भारत के विभाजन का कारण बनीं । उसके कारण ही मनुष्य जीवन के इतिहास से सर्वाधिक रक्तरंजित गृहयुद्धों में से एक भयावह युद्ध हुआ । आनंदित जनता उनके नेताओं को प्रोत्साहित कर रही थी; परंतु उन्हें यह पता नहीं था कि उनके नेता किसे आनंदित कर रहे हैं !
(साभार : ‘प्राच्यम्’ यूट्यूब वाहिनी)