इस्लामी कार्यकाल में रामनाम का उपयोग

श्रीराम संपूर्ण हिन्दू समाज के इष्टदेवता हैं; इसलिए वीर सावरकर कहते हैं, ‘‘जिस दिन हिन्दू समाज प्रभु श्रीराम को भूल जाएगा, उस दिन हिन्दुस्थान को ‘राम’ कहना पडेगा ।’’ इसका अर्थ यह है कि जिस दिन हिन्दू समाज को प्रभु श्रीराम का विस्मरण होगा, उस दिन इस भूतल पर हिन्दुस्थान का अस्तित्व ‘राष्ट्र’ के रूप में नहीं रह जाएगा । रामराज्य तो केवल हमारे देश में ही नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व के ‘आदर्श राजतंत्रवाले राज’ के रूप में मान्यता प्राप्त है । इस राज्य का मानव समाज स्वयंशासित समाज था । श्रीराम न्यायनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, संस्कृति निष्ठ एवं नीतिमान मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में सभी के लिए वंदनीय हैं । नैतिकता का उदय होने पर विकृति का अस्त होकर संस्कृति की दीपावली का आरंभ होता है । इसीलिए प्रभु श्रीराम का स्मरण रहेगा, तब हिन्दू समाज चाहे राजनीतिक परतंत्रता में भी चला जाए, तब भी वह ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में जीवित रहता है । श्रीराम के पराक्रम की विरासत को संजोते हुए शक्तिशाली एवं प्रतिकार-निष्ठ समाज उस परवशता के अंधकार में अपना अस्तित्व बनाए रख सकता है । इस दृष्टि से देखा जाए, तो हिन्दू समाज के राष्ट्रीय जीवन में प्रभु श्रीराम का महत्त्व अनन्य है ।

हमारे देश की संस्कृति शांति, सहिष्णुता एवं मानवता को आगे बढानेवाली है । मनुष्य का जीवन उन्नत बने, इसके लिए हमारे देश के ऋषि-मुनियों एवं पुण्यश्लोक राजाओं ने अपना संपूर्ण जीवन व्यतीत किया । उस काल में आसुरी प्रवृत्ति ने संपूर्ण मानव समाज को त्रस्त कर रखा था । अनैतिकता एवं अत्याचार की कोई सीमा नहीं रह गई थी । ऐसे समय में अनेक राजाओं ने हाथ में शस्त्र उठाकर आसुरी प्रवृत्ति को नष्ट करने के लिए अपने पराक्रम की पराकाष्ठा की । उन सभी के आदर्श थे श्रीराम !

श्री. दुर्गेश परुळकर

१. इस्लाम का अर्थ अरबी साम्राज्य की अतृप्त प्यास का अतिरेकपूर्ण स्वरूप !

हमारे देश पर पहला इस्लामी आक्रमण किया मोहम्मद बिन कासिम ने ! उस काल के लोगों में यह धारणा थी कि ‘हमारे यहां के साधु-संतों के पंथ की भांति ही इस्लाम भी एक धार्मिक पंथ है ।’ हमारे उस समय समाज की यह दृढ श्रद्धा थी कि संतों तथा उनके अनुयायी हत्याएं, बलात्कार, अत्याचार, छल, धर्मांतरण, आगजनी, लूटमार आदि अप्रिय कृत्य नहीं करते; परंतु इस्लाम के आक्रमण ने इस श्रद्धा को तोड-मरोड दिया । आर्य एवं ब्रह्म समाज को भी मूर्तिपूजा स्वीकार्य नहीं थी; परंतु इन दोनों समाजों ने कभी भी मंदिरों पर हथौडी चलाकर मूर्तियां नहीं तोडीं, न ही मंदिरों को ध्वस्त किया; परंतु इस्लाम ने मूर्तिपूजा का विरोध करते हुए हिन्दुओं के अनगिनत मंदिरों को ध्वस्त किया । हिन्दुओं के देवी-देवताओं की मूर्तियां तोडने में इस्लामियों को पौरुष का आभास होता था । वास्तव में देखा जाए, तो इस्लाम कोई धर्म अथवा पंथ न होकर वह अरबी साम्राज्य की अतृप्त प्यास के अतिरेक का स्वरूप था ।

२. प्रभु श्रीराम के कारण हिन्दुस्थान का इस्लामी राष्ट्र में रूपांतरण न होना

इस्लामी आक्रांताओं ने विश्व के अल्जीरिया, मोरोक्को, सूदान, इजिप्त, जॉर्डन, इरान, इराक, अफगानिस्तान, मलेशिया, इंडोनेशिया, इन देशों पर आक्रमण कर उन देशों को इस्लामी राष्ट्रों में रूपांतरण किया । हमारे देश पर भी इस्लाम के अनुयायियों ने आक्रमण कर अपनी सत्ता स्थापित की । उन्होंने हमारे देश के अनेक मंदिर नष्ट किए; परंतु हमारे हिन्दुस्थान का इस्लामी राष्ट्र में रूपांतरण करना उन्हें संभव नहीं हुआ; क्योंकि यहां के समाज एवं राजकर्ताओं के हृदय में प्रभु श्रीराम के प्रति श्रद्धा जागृत थी । रामायण के संस्कारों के कारण जागृति लडाकू वृत्ति तथा प्रतिकार निष्ठा सहजता से नष्ट होनेवाली नहीं थी । आज भी वह प्रखर निष्ठा जनता के हृदय में जैसी थी, वैसी है ।

३. हिन्दू प्रभु श्रीराम का इतिहास भूल जाएं; इसके लिए रचा जा रहा षड्यंत्र !

हमारे सहस्रों वर्षों की पराजय की परंपरा को नष्ट कर विजय की परंपरा आरंभ करनेवाले छत्रपति शिवाजी महाराज को उनकी माता जीजाबाई ने रामायण एवं महाभारत के संस्कार दिए थे, इसकी हम अनदेखी नहीं कर सकते । श्रीराम के नाम की महिमा इतनी बडी है कि सीता माता का अपहरण करनेवाले रावण के भाई बिभीषण प्रभु श्रीराम के भक्त थे । रावण के विरुद्ध श्रीराम के पक्ष में खडे रहनेवाले बिभीषण सात्त्विकता, सत्य एवं न्याय का समर्थन करनेवाले संस्कृतिनिष्ठ हैं । बिभीषण प्रतिकूल स्थिति में भी श्रीराम के बताए पथ पर अग्रसर रहे । आज वही विरासत आगे बढाई जा रही है ।

‘हिन्दू समाज श्रीराम की इस विरासत को जब तक नहीं भूल जाता, तब तक इस देश में इस्लामी राज्य स्थापित नहीं किया जा सकता’, हिन्दुस्थान का इतिहास संपूर्ण विश्व को यह संदेश देता है तथा उस कारण ही श्रीराम के चरित्र को कलंकित करने का प्रयास किया जा रहा है । ‘श्रीराम कभी नहीं जन्मे, रामायण काल्पनिक है तथा वह इतिहास नहीं है’, ऐसा जो कहा जाता है; वह केवल इसलिए कि हिन्दू समाज को श्रीराम का विस्मरण हो जाए !

४. हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र को जीवित रखने के लिए समर्थ रामदासस्वामीजी द्वारा ‘दासबोध’ से दिया गया मार्गदर्शन

प्रभु श्रीराम के स्मरण को छत्रपति शिवाजी महाराज के काल में अधिक प्रकाशमान किया समर्थ रामदासस्वामीजी ने ! उसी समय समर्थ रामदासस्वामीजी ने हमारे संपूर्ण समाज को प्रभु श्रीराम का विस्मरण न हो, इसकी ओर ध्यान दिया । उन्होंने ‘दासबोध’ के ११ वें दशक में समाहित ५ वें अध्याय एवं १९ वें दशक में समाहित ९ वें अध्याय से न्यायनिष्ठ एवं बुद्धिनिष्ठ भूमिका में दिए गए बोध को स्थलकाल की मर्यादाएं नहीं हैं । विदेशी आक्रांताओं के, मानवीय अत्याचारों एवं राजसत्ताओं के काल में अपना अस्तित्व, अपनी संस्कृति, अपने धर्म एवं अपने राष्ट्र को जीवित रखने के लिए क्या करना चाहिए ?, इस विषय में समर्थ रामदासस्वामीजी ने ‘दासबोध’ ग्रंथ से अत्यंत प्रभावी शब्दों में मार्गदर्शन किया है ।

देव मस्तकीं धरावा । अवघा हलकल्लोळ करावा ।
मुलुख बडवावा की बुडवावा । धर्मसंस्थापनेसाठीं ।।

अर्थ : धर्म की रक्षा तथा धर्म की पुनर्स्थापना करने के लिए भगवान को श्रेष्ठ मानकर उनकी जयजयकार करें तथा संपूर्ण प्रांत घूमें ।

मारितां मारितां मरावें । तेणें गतीस पावावें ।
फिरोन येतां भोगावें । महद्भाग्य ।।

अर्थ : दुष्टों का संहार करते-करते मृत्यु मिली, तो उससे सद्गति प्राप्त होगी तथा जीवित रहने पर स्वराज्य भोगने का महासौभाग्य प्राप्त होगा ।

धटासी आणावा धट । उद्धटासी पाहिजे उद्धट ।।
खटनटासी खटनट । अगत्य करी ।।

– दासबोध, दशक १९, समास ९, श्लोक ३०

अर्थ : उद्दंड व्यक्ति के लिए अन्य उद्दंड व्यक्ति को ही ढूढें । धूर्त व्यक्ति के लिए अन्य धूर्त व्यक्ति को खडा करें । इस प्रकार ‘जैसे को तैसा’ की नीति अपनाएं ।

राजकारणाची द्वारे । ती काय जाणती गव्हारे ।
समरांगणी रांडा पोरे । काय करिती ।।

– श्रीसमर्थांची गाथा, पद १५३०

अर्थ : सामान्य लोग राजनीति की बातों को समझ नहीं पाएंगे । रणभूमि पर स्त्रियों तथा बच्चों का कोई काम नहीं है ।

मराठा तितुका मेळवावा । महाराष्ट्र धर्म वाढवावा ।
येविषयीं न करितां तकवा । पूर्वज हांसती ।।

अर्थ : सभी मराठाओं को एकत्रित करें तथा सर्वत्र मराठा धर्म बढाएं । यह कार्य करने के लिए परिश्रम नहीं उठाया, तो हमारे पूर्वज हमारा उपहास करेंगे ।

बहुत लोक मेळवावे । एक विचारें भरावे ।
कष्ट करोनी घसरावें । म्लेंच्छावरी ।।

अर्थ : अनेक लोगों का संगठन करें । उन्हें एक ही (धर्मसंस्थापना) विचार से प्रेरित करें । उसके लिए अथक परिश्रम उठाएं तथा उसके उपरांत शत्रु पर टूट पडें ।

५. समर्थ रामदासस्वामीजी का तत्कालीन भयभीत समाज को रामनाम का महत्त्व बताकर आश्वस्त करना !

मुसलमानों के कार्यकाल में मंदिरों का विध्वंस किया जा रहा था, देवताओं की मूर्तियां तोडी जा रही थीं तथा देवालय ध्वस्त किए जा रहे थे । तो ऐसे समय में हमारा धर्म एवं संस्कृति टिकी रहे, साथ ही समाज भयभीत न हो; इसके लिए समर्थ रामदासस्वामीजी ने जानबूझकर ११ स्थानों पर हनुमानजी के मंदिरों की स्थापना की । ये सभी ११ मंदिर प्रभु श्रीराम के दास वीर हनुमानजी के थे । समर्थ रामदासस्वामीजी ने भयभीत समाज को १३ अक्षरोंवाला ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ महामंत्र
दिया । इसी को ‘त्रयोदशाक्षरी मंत्र’ कहते हैं ।

६. हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना होने पर समर्थ रामदासस्वामीजी का उद्घोष राजमाता जीजाबाई के पुत्र छत्रपति शिवाजी महाराज ने रोहिडेश्वर के मंदिर में हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना की शपथ ली ।

( उन्होंने तत्कालीन सभी इस्लामी सत्ताओं को अपनी एडियों के नीचे कुचलकर ‘हिन्दवी स्वराज्य’ की स्थापना की । उस समय समर्थ रामदासस्वामीजी ने कहा, …

‘‘बुडाला औरंग्या पापी । म्लेंचसंव्हार जाहाला ।
मोडलीं मांडली छेत्रें । आनंदवनभुवनीं ।।

अर्थ : पापी औरंगजेब का नाश हुआ । म्लेच्छ का संहार हुआ । उनके द्वारा भग्न किए गए सभी क्षेत्रों का पुनर्निर्माण हुआ । इस भूमि पर पुनः ‘आनंदवन’ का निर्माण हुआ ।

बुडाले भेदवाही ते । नष्ट चांडाळ पातकी ।
ताडिले पाडिले देवें । आनंदवनभुवनीं ।।

अर्थ : नीच, पापी, भेद उत्पन्न करनेवाले, देवताओं की मूर्तियां तोडनेवाले लोग नष्ट हुए । इस भूमि पर पुनः ‘आनंदवन’ का निर्माण हुआ ।

गळाले पळाले मेले । जाले देशधडी पुढें ।
निर्मळ जाहाली पृथ्वी । आनंदवनभुवनीं ।।

अर्थ : इस देश को कष्ट पहुंचानेवाले लोग नष्ट हुए तथा मानो यह पृथ्वी निर्मल बन गई । उसके कारण इस भूमि पर पुनः ‘आनंदवन’ का निर्माण हुआ ।

उदंड जाहालें पाणी । स्नान संध्या करावया ।
जप तप अनुष्ठाने । आनंदवनभुवनीं ।।

अर्थ : स्नान संध्या, जप-तप आदि अनुष्ठान करने के लिए अब अनुकूल वातावरण बन गया है । इस भूमि पर पुनः ‘आनंदवन’ का निर्माण हुआ है ।

बंड पाषांड उडालें । शुध आध्यात्म वाढलें ।
राम कर्ता राम भोक्ता । आनंदवनभुवनीं ।।’’

अर्थ : विद्रोही, पाखंडी वृत्ति नष्ट होकर शुद्ध अध्यात्म बढा । उससे सभी को ‘श्रीराम ही कर्ता-धर्ता तथा श्रीराम ही भोक्ता हैं’, इसका भान होने लगा । इस भूमि पर पुनः ‘आनंदवन’ का निर्माण हुआ ।

७. जनता में श्रीराम के नाम एवं चरित्र का आकर्षण उत्पन्न करने के लिए संत तुलसीदासजी का कार्य

अकबर ने अनेक हिन्दुओं को अपना गुलाम बनाकर असंख्य स्त्रियों से अपने स्त्री कक्ष (जनानखाने) भर दिए । उसके इस अत्याचार से हिन्दुओं की प्रतिकार क्षमता नष्ट न हो, उनकी संस्कृति निष्ठा दुर्बल न हो तथा हिन्दू धर्म एवं राष्ट्र इस परतंत्रता की गुलामी में विलुप्त न हों; इसके लिए उस काल के संत ‘हम प्रभु श्रीराम के उत्तराधिकारी हैं तथा हमारी संस्कृति, हमारे राष्ट्र एवं हमारे धर्म की रक्षा करने के लिए हमें अपनी माानसिक एवं भावनिक शक्ति बढानी चाहिए’, यह सीख देने के लिए दिन-रात परिश्रम उठा रहे थे । उसी के लिए वे लोगों के सामने प्रभु श्रीराम का जीवन चरित्र रख रहे थे । अकबर के समकालीन संत तुलसीदासजी ने समाज में श्रीराम का नाम एवं उनके चरित्र के प्रति जनता के मन में आकर्षण उत्पन्न करने के लिए दोहे एवं चौपाईयों जैसे साहित्य के प्रकारों का उपयोग किया । प्रभु श्रीराम का चरित्र ही मनुष्य को प्रतिकूलता पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है । उसके साथ ही परिस्थिति का सामना कर दुष्टों के सामने न झुकने की सीख देता है । इसे ध्यान में रखकर ही संत तुलसीदासजी ने रामनाम की महिमा गाते हुए जनता को श्रीराम के पराक्रम का स्मरण दिलाया ।

८. प्रभु श्रीराम ने आसुरी वृत्ति की अनदेखी न कर उसके लिए स्थापित किया परिपाठ

प्रभु श्रीराम ने, इंद्र के पुत्र जयंत को कौवे के रूप में आकर तथा उसके साथ छलकपट कर उसे पाठ पढाया । वह इंद्र का पुत्र था, इसलिए उन्होंने उसे नहीं छोडा । शूर्पणखा स्त्री थी; इसलिए प्रभु श्रीराम ने उसकी राक्षसी वृत्ति की अनदेखी नहीं की । विश्वामित्रजी ने भी श्रीराम को, ‘ताडका स्त्री है; इसलिए उसकी राक्षसी वृत्ति की अनदेखी नहीं की जा सकती’, यह सीख दी थी । इस सीख को ध्यान में रखकर ही श्रीराम ने शूर्पणखा को किसी प्रकार की छूट नहीं दी । उसका हृदय परिवर्तन नहीं किया । इस प्रकार श्रीराम ने खर, दूषण, त्रिशिरा जैसे अनेक राक्षसों का वध कर सामान्य जनता, सज्जनों, ऋषिगणों एवं साधुजनों को भयमुक्त कर वे सुरक्षित जीवन व्यतीत कर पाएं, इस प्रकार की अनुकूल स्थिति बना दी । ऐसे प्रभु श्रीराम की भूमि को परतंत्रता में रखना तथा उस धर्म का नाश हो, इस प्रकार से आचरण करना महापाप है । इसके लिए संत तुलसीदासजी ने लेखनी लेकर ‘रामचरितमानस’ जैसा ग्रंथ लिखकर श्रीराम की महिमा गाई है ।

९. हिन्दू राष्ट्र को जीवित रखने के लिए संतों के प्रयास

महाराणा प्रताप जैसे वीर पुरुषों की यह भूमि थी । संतों की भांति ही ये वीर राजा श्रीराम एवं श्रीकृष्ण की विरासत को आगे बढा रहे थे । उन्होंने कभी भी शत्रु के सामने अपनी गर्दन नहीं झुकाई । देश में विदेशी सत्ता स्थापित हुर्ई; परंतु तब भी तत्कालीन संतों ने हिन्दू समाज को श्रीराम के चरित्र का विस्मरण नहीं होने दिया । राजनीतिक दृष्टि से ‘हिन्दुओं के राष्ट्र’ का भले ही अस्तित्व न हो; परंतु सांस्कृतिक एवं धार्मिक दृष्टि से हिन्दू राष्ट्र को जीवित रखने के लिए सभी संत महंतों ने कठोर परिश्रम उठाए । उसके लिए उन्होंने प्रभु श्रीराम के चरित्र अर्थात रामायण को आधार बनाया ।

१०. ‘हिन्दू राष्ट्र का पहला दिन’, इस विषय में वीर सावरकर का विवेचन

इस देश पर जब अंग्रेजी सत्ता राज कर रही थी, उस समय वीर सावरकर ने भी हिन्दू समाज को अपने स्वत्व का भान हो; इसके लिए ‘हिन्दुत्व’ ग्रंथ लिखा । उसके साथ ही उन्होंने मुसलमानों की आक्रामकता एवं धर्मांतरण के राष्ट्रघातक दुष्कृत्य पर लगाम लगाने के लिए शुद्धीकरण अभियान आरंभ किया । ‘हमें यदि प्रभु श्रीराम की विरासत अक्षुण्ण रखनी है, तो उसके लिए हिन्दुओं का संख्याबल टिका रहना चाहिए, अपितु वह रत्ती भर भी घटना नहीं चाहिए’, इसके लिए वीर सावरकर ने कठोर परिश्रम उठाए । उन्होंने अपने ‘हिन्दुत्व’ नामक ग्रंथ में ‘हिन्दू राष्ट्र का पहला दिन कौन सा है ?’, यह बताते हुए लिखा, ‘‘अयोध्या के महाप्रतापी राजा रामचंद्र ने जब लंका में अपना विजयी कदम रखा तथा उत्तर हिमालय से लेकर दक्षिणी समुद्र तक की संपूर्ण भूमि एक छत्र के नीचे ला दी ।

उसी दिन हिन्दुओं ने स्वराष्ट्र एवं स्वदेश निर्मिति का जो महान कार्य अपनाया था, उस कार्य की परिपूर्ति हुई । भौगोलिक मर्यादाओं की दृष्टि से भी उन्होंने अंतिम सीमा प्राप्त की । जिस दिन अश्वमेध का विजयी अश्व बिना किसी प्रतिरोध से अजेय होकर अयोध्या लौटा, जिस दिन उस अप्रमेय प्रभु रामचंद्र के तथा उस लोकाभिराम राजभद्र के साम्राज्य के सिंहासन पर सम्राट के चक्रवर्तीत्व का प्रतीक श्वेत वस्त्र पकडा गया; उसी दिन केवल स्वयं को आर्य कहलानेवाले नृपश्रेष्ठों ने ही नहीं, अपितु हनुमान, सुग्रीव, बिभीषण ने भी उस सिंहासन के समक्ष अपनी भक्तिपूर्ण राजनिष्ठा प्रस्तुत की । वही दिन हमारे सचमुच के ‘हिन्दू राष्ट्र का’, ‘हिन्दू जाति का जन्मदिवस सिद्ध हुआ । वही हमारा सच्चा राष्ट्रदिवस ! क्योंकि उस दिन आर्य एवं अनार्याें ने एक-दूसरे में पूर्णतया विलीन होकर एक नए संगठित राष्ट्र को जन्म दिया ।

यहां की प्रत्येक गुफा, प्रत्येक टिहरी महर्षि व्यासजी, आद्य शंकराचार्यजी, समर्थ रामदासस्वामीजी, जगद्गुरु संत तुकाराम महाराजजी का स्मरण दिलाती है । यहां भगीरथ ने राज्य किया । यहीं श्रीराम ने वनवास भोगा तथा श्रीकृष्ण ने इसी भूमि पर अपनी मधुर मुरली से आकाश भर दिया । वही भूमि हमारे हुतात्माओं की वीरभूमि एवं योगियों की कर्मभूमि है ।’’

११. कृतज्ञता

‘इस प्राणप्रिय मातृभूमि की रक्षा के लिए भावी पीढी को कठोर प्रयास करनेवाली तथा शत्रु को कडी टक्कर देनेवाली प्रबल इच्छाशक्ति की विरासत एवं प्रेरणा अनंत काल तक मिले’, यह प्रभु श्रीरामचंद्र के चरणों में प्रार्थना एवं सभी पूर्वजों को कृतज्ञतापूर्वक वंदन !

– श्री. दुर्गेश जयवंत परुळकर, हिन्दुत्वनिष्ठ व्याख्याता एवं लेखक, डोंबिवली, महाराष्ट्र. (१.२.२०२३)