सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी के ओजस्वी विचार

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले

हिन्दू धर्म में सहस्रों ग्रंथ होने का शास्त्र !

‘अनंत कोटि ब्रह्मांडनायक का अन्य धर्मों की भांति केवल एक पुस्तक में वर्णन किया जा सकता है क्या ? इसीलिए हिन्दू धर्म में सहस्रों ग्रंथ हैं । उनसे पूर्ण जानकारी मिलती है ।’

नित्य बना रहनेवाला धर्म और निरंतर परिवर्तित होनेवाला बुद्धिप्रमाणवाद !

‘धर्म में चिरंतन सत्य बताया जाता है । इसलिए आगे की पीढी के लिए पहले की पीढी मूर्ख नहीं रहती । इसके विपरीत जैसे-जैसे बुद्धि की सीमाएं बढती जाती हैं, वैसे-वैसे पूर्व की पीढी के बुद्धिमान ‘मूर्ख’ अथवा ‘सनातनी’ माने जाने लगते हैं !’

आज के काल में ‘जैसी प्रजा, वैसा राजा’ !

‘यथा राजा तथा प्रजा । अर्थात ‘जैसा राजा, वैसी प्रजा’, उदा. रामराज्य में प्रभु श्रीराम की भांति प्रजा भी सात्त्विक थी । अब स्थिति बन गई है ‘यथा प्रजा तथा राजा ।’ अर्थात ‘जैसी प्रजा, वैसा राजा’ । राष्ट्रप्रेम एवं धर्मप्रेम रहित प्रजा द्वारा चुने गए शासनकर्ता भी वैसे ही हैं ।’

इसे वास्तविक बुद्धिप्रमाणवादी का लक्षण माना जा सकता है क्या?

‘हमें जिस विषय की जानकारी नहीं है, जिस विषय का हमने अध्ययन नहीं किया, उस विषय पर समाज में संदेह निर्माण हो, इस प्रकार की बातें और काम करना, क्या इसे वास्तविक बुद्धिप्रमाणवादी का लक्षण माना जा सकता है ?’

– सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. जयंत आठवले