‘हे न्यायदेवता, मैं आपको पुनः पत्र लिख रहा हूं । उसे देखकर आप क्षुब्ध नहीं होंगे, ऐसी यदि मैंने अपेक्षा रखी, तब भी पत्र पढकर आप कुछ करेंगे नहीं, ऐसा मुझे लगने न दें; क्योंकि देखा जाए, तो विषय थोडा गंभीर है और कहा जाए, तो व्यंगात्मक भी ! किसी ने पहले ही कह डाला था कि इतिहास की पुनरावृत्ति होती है । पहले वह शोकांतिका होती है तथा उसके पश्चात वह व्यंग होता है ।
तो अब यह शोकांतिका की ओर जा रहा है अथवा व्यंग की ओर ? हे न्यायदेवता यह आपको ही ज्ञात है ! ऊपर क्या चल रहा है ? वह मैं आपको बताता हूं; क्योंकि आपकी आंखों पर तो पट्टी है, यह चित्र में दिखाई देता है; परंतु आपको सुनाई देता है या नहीं ?, यह हमारी समझ में नहीं आता । तब भी मैं आपको बताता हूं ।
हे न्यायदेवता, ‘संविधान ने ही जनता के ३ सेवकों की निर्मिति की’, ऐसा कहा जाता है । ये सेवक हैं न्यायपालिका, विधिपालिका (संसद) एवं नौकरशाही ! नौकरशाही के थाटबाट के विषय में हम क्या लिखें; परंतु आज विषय है विधिपालिका एवं न्यायपालिका के मध्य विवाद का ! देखा जाए, तो यह विवाद प्राचीन है । राघोबादादा पेशवे को देहदंड देनेवाले रामशास्त्री प्रभुणे विख्यात हुए । इतिहास में उनका नाम रहा । कदाचित वे ब्राह्मण थे; इसलिए कोई उनका नाम नहीं लेता होगा अथवा वे ब्राह्मण थे, इसलिए लेता होगा । रहने दीजिए ! विधिपालिका अर्थात संसद (लोगों ने चुने हुए सांसद) तथा न्यायपालिका अर्थात न्यायाधिशों का समूह ! इनमें महत्त्वपूर्ण कौन ? अंतिम शब्द किसका ? यह विवाद है ।
एक समय था । हमें कुछ दिन पूर्व ही स्वतंत्रता मिली थी । ‘संविधान के अनुसार सभी बातें होंगी । हम बहुत शीघ्र स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता का राज्य लाएंगे’, ऐसे सपने सभी को आ रहे थे । सभी लोग इन मीठे सपनों में खो गए थे । उन सपनों से ही आरक्षण आया, सभी के लिए मौलिक अधिकार प्राप्त हुए ।
१. अधिकारों का बंटवारा तथा संसद के द्वारा न्यायालय के अधिकारों पर लाई गई मर्यादाएं
संविधान ने जब लोगों में मौलिक अधिकार बांट दिए, उसका पर्याप्त ढिंढोरा पीटने के उपरांत नेहरू आदि शासनकर्ताओं के यह ध्यान में आया, ‘अरे ! जमीनदारों की भूमि को भूमिहीनों में बांटना तो रह ही गया !’ हमने समाजवाद के चावल संविधान में तो डाल दिए; परंतु अभी वह पका नहीं । तो अब उसे लोगों को परोंसे कैसे ? उस पर वोट कैसे प्राप्त करें ?; क्योंकि गडबड यह हुई की जमीनदारों को जो अधिकार था, वह भूमिहीनों को भी मिला । तो कैसे करना चाहिए ? उसमें भी इस प्रकार के समाजवादी स्वरूपवाले कानून न्यायालयों ने शीघ्रता से रद्द किए थे । उससे नींदें उड गईं । संविधान को बदलने की भाषा आ गई । संसद में ‘अधिवक्ताओं ने संविधान को भगाया’, ऐसे भाषण हुए । संविधान का एक भाग ही उसी के दूसरे भाग के आडे आ रहा था । संविधान का वस्त्र शरीर पर धारण करने तक उसमें पहला पैबंद (संशोधन) आया । जिसे पहला संशोधन कहा जाता है । इस पहले संशोधन में संविधान में निम्न अनुच्छेद डाला गया, ‘‘कुछ विषयों पर कानून बन गए, तो उन कानूनों तथा कुछ कानून ऐसे होंगे, जिन्हें न्यायालय में चुनौती ही नहीं दी जा सकेगी । (आरंभ में इन कानूनों की संख्या १३ थी, जो अब लगभग २५० है ।)’ न्यायदेवता, आपको इसका स्मरण होता होगा । स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुता के गप्पे, आपके कानों तक भी पहुंचे होंगे । संविधान के द्वारा न्यायालयों को प्रदान किए गए असीमित अधिकारों पर संसद ने डाली हुई वह पहली मर्यादा थी । वास्तव में यह बडा एवं स्वतंत्र विषय है ।
इस लेख में ‘न्यायदेवता’ के रूप में जो उल्लेख है, वह हिन्दू धर्म के न्याय से संबंधित देवताओं का उदा. यमदेव का नहीं है, अपितु विदेश से आयात की गई न्यायसंकल्पनाओं के अनुसार अंधी, हाथ में तराजू एवं तलवार लेकर खडी काल्पनिक देवी ‘जस्टिसिया (लेडी जस्टीस)’ का है । किसी का अनादर करना, इस लेख का उद्देश्य नहीं है । – अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर |
२. संविधान में कितने बदलाव संभव ? तथा सर्वाेच्च न्यायालय एवं संसद के मध्य गुप्त लडाई का आरंभ
न्यायदेवता, क्या आपको इसका स्मरण है ? उसके उपरांत अर्थात ही १९६० के दशक में जो निर्णय आए, उनमें ‘संविधान में परिवर्तन लाने का अधिकार किसका ?’, इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसा निर्विवाद उत्तर दिया, ‘‘संसद को वह अधिकार है ।’’ यदि संविधान में परिवर्तन लाना है, तो संसद संविधान के अनुच्छेद ३६८ के अनुसार उसमें परिवर्तन ला सकती है । (सज्जन सिंह विरुद्ध राजस्थान राज्य)
परंतु ! हे न्यायदेवता, यहां भी एक ‘परंतु’ आया और रुकावट आई । संभवतः न्यायाधीशों के ध्यान में यह आने लगा कि संसद को यदि असीमित अधिकार दिए गए, तो उससे देश में कुछ अनुचित घटित होगा तथा उसके कारण वर्ष १९६७ में गोलकनाथ (यह भले ही ‘नाथ’ हो; परंतु था ईसाई) तथा उसके उपरांत वर्ष १९७३ में ‘केशवानंद भारती विरुद्ध केरल राज्य’ इस भारत के इतिहास में विख्यात निर्णय में सर्वाेच्च न्यायालय ने कहा, ‘‘भले ही संसद सार्वभौम हो, तब भी संविधान के ‘मूलभूत रूप’, जिसे अंग्रेजी में ‘बेसिक स्ट्रक्चर’ शब्द का उपयोग किया गया, उसमें संसद परिवर्तन नहीं कर सकती । आज भी यह भूमिका वैसी ही है ।
गोलकनाथ प्रकरण में (वर्ष १९६७) यह निर्णय आया; इसलिए कहा जाता है कि इंदिरा गांधी ने सर्वाेच्च न्यायालय में ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रयास किया, जो गोलकनाथ प्रकरण को पलट देंगे तथा ‘संसद संविधान में इच्छित परिवर्तन कर सकती है’, ऐसा निर्णय देंगे; परंतु केशवानंद भारती (वर्ष १९७३) प्रकरण में इंदिरा गांधी को अथवा कांग्रेस को अर्थात ही तत्कालीन संसद को ऐसा करना संभव नहीं हुआ । इंदिरा गांधी ने इस निर्णय के प्रतिशोध के रूप में यह निर्णय देनेवाले ३ वरिष्ठ न्यायाधीशों की अपेक्षा कनिष्ठ न्यायाधीश को ‘मुख्य न्यायाधीश’ बनाया । इसकी प्रतिक्रिया के रूप में उन तीनों न्यायाधीशों ने त्यागपत्र दिया । उस समय देश में बहुत आंदोलन हुए । अपना योगक्षेम चलाने के चक्कर में लोग इसे पुनः भूल गए, पीडाएं पिघल गईं तथा भावनाएं कागद तक ही सीमित रह गईं । वही से न्यायपालिका तथा विधिपालिका के मध्य अप्रत्यक्ष गुप्त लडाई आरंभ हुई ।
३. संविधान में परिवर्तन : जिसका समाधान नहीं करना है, ऐसे प्रश्नों की शृंखला?
न्यायदेवता, यह लडाई अभी भी चल रही है । इसमें अब दुर्भाग्यपूर्ण व्यंग यह है कि इसमें निश्चित रूप से सत्य क्या है ?, यह सामान्य मनुष्य की समझ में नहीं आता । कोई सामान्य मनुष्य, जिसका कानून एवं विश्व के समाजवादी लोकतंत्र की अच्छाई में विश्वास है, वह मुझ जैसे विधिज्ञ से प्रश्न पूछता है; परंतु मैं उसके उत्तर नहीं दे सकता; क्योंकि उसके उत्तर सामान्य एवं सीधे नहीं हैं । न्यायदेवता, मैं ऐसे प्रश्नों के कुछ उदाहरण यहां देता हूं ।
अ. यदि संविधान यह प्रावधान करता है कि उसमें परिवर्तन किया जा सकता है; तो सर्वाेच्च न्यायालय उसका भिन्न अर्थ क्यों निकालता है ?
आ. सर्वोच्च न्यायालय पहले तो कहता है कि परिवर्तन किया जा सकता है तथा जैसे चाहिए, वैसे परिवर्तन किए जा सकते हैं । तो उसके उपरांत यही न्यायालय कहता है, ‘मनगढंत पद्धति से परिवर्तन नहीं किए जा सकते तथा संविधान के ‘मूलभूत स्वरूप’ (बेसिक स्ट्रक्चर) में परिवर्तन नहीं किए जा सकते ।’ सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश इस प्रकार से परस्पर विरोधी भूमिकाएं कैसे लेते हैं ? वे ऐसी भूमिका लेते हैं, इसके लिए आप उन्हें दंडित भी नहीं करते । नौकरशाही में अथवा सरकार ने यदि उल्टे-सीधे निर्णय लिए, तो उन्हें डंडे दिखाए जाते हैं । न्यूनतम उसका नाटक तो होता है । आप न्यायाधीशों के विषय में भी कुछ क्यों नहीं करते ?
इ. यदि संविधान के मूलभूत ढांचे में परिवर्तन करना संभव न हो, तो वह मूलभूत ढांचा कौनसा है ?अर्थात उसकी दीवार कौनसी है ? उसकी छत कौनसी है ? छतपर के टीन कहां के ? धरन कौनसी ?, यह कौन सुनिश्चित करेगा ? तो इस पर सर्वोच्च न्यायालय कहता है, ‘‘उसे हम उस समय पर सुनिश्चित करेंगे’’; परंतु क्या यह लोगों को अपेक्षित ऐसा है ? इसका अर्थ संविधान लिखा लोगों ने; परंतु उसमें निहित ‘मूलभूत क्या है’, यह न्यायाधीश सुनिश्चित कैसे कर सकेंगे ?
ई. यदि सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह परिवर्तन राजनीतिक कारणों से होता है, तो क्या उन राजनीतिक कारणों का आज अस्तित्व है ? वह भिन्न संदर्भ में है, यह कौन देखेगा ? न्यायाधीशों को राजनीति कैसे देखनी है ? यह संविधान में है अथवा कानून में ? कहां है ?
उ. इसमें एक विवाद ऐसा भी है कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत का संविधान लिखा । शासनकर्ता, न्यायाधीश आदि सभी कहते हैं कि आंबेडकर महान विधिज्ञ थे; तो उन्होंने यह मूलभूत ढांचा संविधान में ही लिखकर क्यों नहीं रखा ? उन्होंने अपने संसद के भाषण से यह स्पष्ट क्यों नहीं किया ? यदि संविधान में ही मूलभूत रूप लिखा जाता, तो वह सभी के लिए ही सरल हो जाता न ?
ऊ. यदि उन्होंने नहीं लिखा, तो उसकी आवश्यकता नहीं थी, इसीलिए लिखा नहीं होगा, तो आंबेडकर का दृष्टिकोण एक ओर रखकर सर्वोच्च न्यायालय ने यह शोध कैसे किया ? तथा अन्यों ने उसे स्वीकार क्यों किया ?
ए. आंबेडकरवादी नेता इस पर आपत्ति क्यों नहीं दर्शाते ? वास्तव में उन्हें आंबेडकर द्वारा किए गए प्रावधानों में किया जा रहा परिवर्तन स्वीकार नहीं करना चाहिए था । तो वे इस विषय में मौन क्यों रहते हैं ? आंबेडकर, नेहरू बडे हैं या उनके उपरांत आए न्यायमूर्ति ?
ऐ. सबसे अंतिम तथा महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि संविधान यदि इतना अच्छा है, साथ ही विश्व के सभी संविधानों का अच्छा अंश उसमें लिया गया है, तो उसमें संशोधन क्यों करने पडते हैं ? भगवद्गीता में तो कोई परिवर्तन नहीं हुए हैं, तो ऐसा क्यों ?
– अधिवक्ता वीरेंद्र इचलकरंजीकर, राष्ट्रीय अध्यक्ष, हिन्दू विधिज्ञ परिषद (२६.१.२०२३)