हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार (धार्मिक पद्धति से) विवाह संस्कार करने के कारण आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त तथा आध्यात्मिक पीडारहित वधू-वरों को मिले हुए आध्यात्मिक स्तर के लाभ

‘हिन्दू धर्म ने जीवन में घटित होनेवाले प्रमुख १६ प्रसंगों के माध्यम से ईश्वर के निकट पहुंचना संभव हो; इसके लिए करने आवश्यक ‘सोलह संस्कार’ बताए हैं । उनमें से सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार है ‘विवाहसंस्कार’ !

प्रतिकात्मक चित्र

विवाह का वास्तविक उद्देश्य है – ‘दो जीवों का भावी जीवन एक-दूसरे के लिए पूरक एवं सुखी बनने के लिए ईश्वर के आशीर्वाद प्राप्त कर लेना !’ इसके लिए धर्मशास्त्र में बताए अनुसार विवाह संस्कार करना आवश्यक होता है । वर्ष २०१८ में रामनाथी, गोवा के सनातन के आश्रम में २ विवाह संपन्न हुए । ये दोनों विवाह हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार (धार्मिक पद्धति से) कराए गए । ‘धार्मिक पद्धति से की गई विवाह विधियों के कारण वधू एवं वर को आध्यात्मिक दृष्टि से कौन से लाभ होते हैं ?’, इसका विज्ञान के द्वारा अध्ययन करने के लिए विवाहस्थल पर ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ द्वारा परीक्षण किया गया । इस परीक्षण के लिए ‘यूएएस’ उपकरण का उपयोग किया गया । इस परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का विवेचन आगे दिया गया है ।

श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे

१. परीक्षण में आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त तथा आध्यात्मिक पीडारहित वधू एवं वर की जानकारी

१ अ. आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वधू तथा आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वर : इस परीक्षण में आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वधू सनातन की साधिका है । वह प्रासंगिक सेवा करती है । आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वर एक संप्रदायानुसार साधना करता है ।

१ आ. आध्यात्मिक पीडारहित वधू एवं आध्यात्मिक पीडारहित वर : इस परीक्षण में आध्यात्मिक पीडारहित वधू तथा आध्यात्मिक पीडारहित वर ये दोनों सनातन के पूर्णकालीन साधक हैं । इन दोनों का आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत से अधिक है । वे सनातन के आश्रम में रहकर साधना करते हैं ।

२. परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का विवेचन

इस परीक्षण में अंतर्भूत दोनों विवाह समारोहों में वधू एवं वर की विवाह संस्कार से पूर्व (एक दिन पूर्व ‘हल्दी लगाना’ विधि से पूर्व) तथा विवाह संस्कार संपन्न होने के उपरांत ‘यूएएस’ उपकरण के द्वारा परीक्षण किए गए ।

२ अ. विवाह संस्कार संपन्न होने पर आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वधू तथा आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वर में निहित नकारात्मक ऊर्जा घट जाना : आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वधू तथा आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वर में सकारात्मक ऊर्जा नहीं दिखाई दी । विवाह संस्कार संपन्न होने पर उन दोनों में निहित नकारात्मक ऊर्जा घट गई, यह नीचे दी सारणी से स्पष्ट होता है ।

२ आ. विवाह संस्कार संपन्न होने पर आध्यात्मिक पीडारहित वधू तथा आध्यात्मिक पीडारहित वर में समाहित सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि होना : आध्यात्मिक पीडारहित वधू तथा आध्यात्मिक पीडारहित वर में नकारात्मक ऊर्जा नहीं दिखाई दी । विवाह संस्कार संपन्न होने पर उन दोनों में समाहित सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि हुई, यह नीचे दी सारणी से स्पष्ट होता है ।

आध्यात्मिक कष्ट : इसका अर्थ है व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन होना । यदि व्यक्ति में नकारात्मक स्पंदन ५० प्रतिशत अथवा उससे अधिक मात्रा में है, तो उसे तीव्र कष्ट कहा जाता है; नकारात्मक स्पंदन ३० से ४९ प्रतिशत होना अर्थात मध्यम कष्ट; तथा नकारात्मक स्पंदन ३० प्रतिशत से अल्प होना, अर्थात मंद आध्यात्मिक कष्ट । आध्यात्मिक कष्ट प्रारब्ध, पितृदोष इत्यादि आध्यात्मिक स्तर के कारणों से होता है । किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक कष्ट को संत अथवा सूक्ष्म स्पंदन समझनेवाले साधक पहचान सकते हैं ।

३. परीक्षण में प्राप्त निरीक्षणों का अध्यात्मशास्त्रीय विश्लेषण

३ अ. धार्मिक पद्धति से विवाह करते समय विवाह के दिन किए जानेवाले कुछ विधि/कृत्य तथा उनका महत्त्व : ‘सेहरा बांधना, अंतःपट-धारण विधि, मंगलाष्टक बोलना, परस्पर-निरीक्षण विधि एवं पुष्पमाला पहनाना, अक्षतारोपण विधि (वधू-वर पर अक्षत समर्पित करना), मंगलसूत्र बंधन, सप्तपदी आदि । इन सभी विधियों के पीछे अध्यात्मशास्त्रीय कारण है । वधू-वर पर उसके सूक्ष्म परिणाम होते हैं । उन्हें देवताओं के आशीर्वाद एवं चैतन्य मिलता है ।

३ आ. धार्मिक पद्धति से किए गए विवाह संस्कार से आध्यात्मिक स्तर के लाभ : हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार किए गए विवाह संस्कार से चैतन्य मिलता है । इस परीक्षण में अंतर्भूत दोनों विवाह धर्मशास्त्र के अनुसार संपन्न हुए हैं, साथ ही विवाह का स्थान, पुरोहित आदि सात्त्विक थे । इन दोनों विवाहों में अंतर्भूत वधू एवं वर साधक होने से विवाह संस्कार के समय वे ईश्वर के आंतरिक सान्निध्य में थे ।

इसके कारण वर-वधू को निम्नानुसार आध्यात्मिक स्तर के लाभ हुए ।

१. आध्यात्मिक पीडा से ग्रस्त वधू तथा पीडा से ग्रस्त वर को विवाह संस्कार में समाहित चैतन्य का लाभ होने से उनमें विद्यमान नकारात्मक ऊर्जा घटी । (उन्हें जो आध्यात्मिक पीडा है, उनसे (नकारात्मक स्पंदनों से) लडने में विवाह संस्कार से प्रक्षेपित सकारात्मक स्पंदनों (चैतन्य) का व्यय होने के कारण उन वर-वधू में सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न नहीं हुई ।)

२. आध्यात्मिक पीडारहित वधू तथा पीडारहित वर में विवाह संस्कार से पूर्व भी सकारात्मक ऊर्जा थी । उसका कारण यह है कि वे दोनों अनेक वर्षाें से साधना कर रहे हैं । इसलिए उनमें समाहित सत्त्वगुणों में वृद्धि हुई है । उनका आध्यात्मिक स्तर ६० प्रतिशत से अधिक है तथा उन्हें आध्यात्मिक कष्ट नहीं है । इसके कारण विवाह संस्कार में समाहित सकारात्मक स्पंदनों का (चैतन्य का) उन्हें संपूर्ण लाभ मिला; इसलिए उनमें समाहित सकारात्मक ऊर्जा में वृद्धि हुई । संक्षेप में कहा जाए, तो विवाह के लिए इच्छुक स्त्री-पुरुष हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार ही विवाह करें; क्योंकि ऐसा विवाह ही व्यक्ति के लिए शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक इन तीनों स्तरों पर लाभप्रद सिद्ध होता है । हिन्दू धर्म में शारीरिक वासनाओं की पूर्ति के लिए विवाह संस्कार का प्रयोजन नहीं है, अपितु चार पुरुषार्थाें में से ‘काम’ के पुरुषार्थ को साध्य कर धीरे-धीरे ‘मोक्ष’ पुरुषार्थ की ओर अग्रसर होना संभव हो; इसके लिए विवाह संस्कार का प्रयोजन है । समाज में सुप्रजा उत्पन्न होकर समाज का उत्कर्ष हो; इसके लिए यह पवित्र विवाह संस्कार है । विवाहसंस्था का जतन करने में संपूर्ण समाज का ही नहीं, अपितु राष्ट्र का संपूर्ण कल्याण है ।’

– श्रीमती मधुरा धनंजय कर्वे, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (९.८.२०१८)

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विवाह समारोह की ओर केवल ‘समारोह’ के रूप में नहीं, अपितु ‘धार्मिक संस्कार’ के रूप में देखें !

सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवले

‘आजकल विवाह समारोह एक मौजमस्ती का कार्यक्रम है, ऐसा हिन्दुओं को लगता है । उसके कारण विवाह के विधि संपन्न होते समय विवाह में उपस्थित लोग गपशप करते रहते हैं, साथ ही उस समय गाना-बजाना भी चलता रहता है तथा बीच-बीच में ‘बैंड’ भी बजता रहता है । इस शोर के कारण धामिक विधियों के कारण उत्पन्न होनेवाली सात्त्विकता बनी नहीं रहती, अपितु घट जाती है । हिन्दू धर्मशास्त्र के अनुसार (धार्मिक पद्धति से) विवाह संस्कार करने के कारण तथा मंत्रोच्चार में विद्यमान सुमधुर नाद के कारण अष्टदिशाएं भारित होती हैं तथा चैतन्य के स्तर पर वधू-वरों को आशीर्वादात्मक बल प्राप्त कर दिया जाता है । ‘महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय’ द्वारा ‘यूएएस (यूनिवर्सल औरा स्कैनर)’ उपकरण के माध्यम से किए गए वैज्ञानिक परीक्षण से भी यह स्पष्ट हुआ है । इसलिए विवाह समारोह की ओर एक ‘मौजमस्ती के कार्यक्रम’ के रूप में न देखकर ‘एक धार्मिक संस्कार’ के रूप में देखने से वधू-वरों को, साथ ही विवाह के लिए आनेवाले लोगों को भी उसका लाभ मिलेगा ।’ – सच्चिदानंद परब्रह्म डॉ. आठवलेजी