प्रा. भरत गुप्त देहली विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्राध्यापक हैं । वे प्राचीन भारतीय शास्त्रीय तत्त्वज्ञ, संगीत विशेषज्ञ, स्तंभ लेखक एवं लेखक हैं । यू ट्यूब वाहिनी ‘मानुषी इंडिया’ की संपादक मधुपूर्णिमा किश्वर ने उनसे संवाद किया । इस संवाद में उन्होंने ‘रामराज्य एवं आधुनिक लोकतंत्र’ के विषय पर जो विवेचन किया है, वह हम पाठकों के लिए दे रहे हैं ।
१. ‘आनेवाले समय में लोकतंत्र धनवान लोगों के नियंत्रण में जाएगा’, प्लेटो का यह कहना सत्य सिद्ध होना
‘संपूर्ण विश्व में विभिन्न बातों का अभाव है तथा भयंकर युद्ध किए जा रहे हैं । इन सभी बातों को देखते हुए ऐसा कहना साहसपूर्ण होगा कि ‘आधुनिक लोकतंत्र अब अधिक समय तक चल पाएगा ।’ प्लेटो ने बहुत समय पूर्व ही कहा था, ‘कालांतर में लोकतंत्र धनवान लोगों के हाथ में जाएगा !’ आज के समय में हम उसके लक्षण देख रहे हैं । अमेजन, गूगल जैसे बडे-बडे प्रतिष्ठान चलानेवाले लोग आधुनिक राजा ही हैं । उनमें से कुछ लोगों में तो ‘महासत्ता अमेरिका का राष्ट्रपति कौन होना चाहिए ?’, यह सुनिश्चित करने की क्षमता है । अब ऐसे ही धनवान लोगों के हाथों में सामर्थ्य आ गया है । प्लेटो ने कहा था, ‘लोकतंत्र का पतन होकर धनवान लोगों का धनतंत्र आएगा तथा जिनके पास संपत्ति है, संपूर्ण सत्ता उन्हीं के हाथों में चली जाएगी ।’ यह वाक्य सत्य होता हुआ दिखाई दे रहा है । उसने जो कहा था, उसके अनुसार हम तानाशाही की ओर अग्रसर हैं । भारत का लोकतंत्र देखा जाए, तो पहले भी इसी प्रकार का लोकतंत्र होगा, ऐसा ही लोगों को लगता है । पश्चिमी लोगों में प्राचीन ग्रीस के लोकतंत्र के प्रति प्रशंसा की भावना है । उन्हें यह ज्ञात नहीं है कि पहले यूनान एवं ग्रीस में आज के जैसा लोकतंत्र नहीं था । उस समय शहर के केवल २५ से ३० प्रतिशत लोग ही मतदान करते थे, उनमें भी कुलीन लोगों का समावेश था । उस समय मतदान में महिलाएं एवं नौकरी करनेवाले लोगों का सहभाग नहीं होता था । वह लोकतंत्र बिल्कुल भिन्न था तथा वहां कुछ ही लोगों का राज्य था ।
२. भारत में श्रीराम को आदर्श राजा समझे जाने का कारण
पहले भारत में जिसका अस्तित्व था, उस वर्णव्यवस्था की आलोचना की जाती है; परंतु उस समय क्षत्रिय राजाओं के हाथ में सत्ता थी, उस समय वे स्वयं कानून नहीं बनाते थे, अपितु उस समय धर्मशास्त्र एवं लोकशास्त्र था । लोकशास्त्र समाज के सामान्य लोगों एवं कुछ विशेष लोगों की इच्छा से बनता था । राजा लोगों (जनता) के मतों का सम्मान करता था । वह लोगों की इच्छा टालकर राज नहीं कर सकता था । वाल्मीकि ऋषि द्वारा बताए अनुसार ‘प्रभु श्रीराम जनप्रेमी थे’ इसका अर्थ लोगों को क्या चाहिए क्या नहीं चाहिए, इसकी जानकारी लेकर वे राजतंत्र चलाते थे । भारत में आदर्श राज्य की संकल्पना कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दी गई है; परंतु ‘आदर्श राजा प्रभु श्रीराम जैसा होना चाहिए’, ऐसा ही कहा जाता है ।
स्मरतां हृदि विन्यस्य विद्धं दण्डककण्टकै: ।
स्वपादपल्लवं राम आत्मज्योतिरगात् तत: ॥
– श्रीमद्भागवतपुराण, स्कंध ९, अध्याय ११, श्लोक १९
अर्थ : उनका स्मरण करनेवाले भक्तों के हृदय में तथा दंडकारण्य में जिनके चरणों में कांटे चुभे थे, उन कोमल चरणों को पीछे छोडकर श्रीराम ज्योतिर्मय आत्मरूप में अदृश्य हो गए । यह श्लोक हमारे सामने प्रभु श्रीराम का चरित्र रखता है । श्रीराम अन्यों के लिए परिश्रम उठाते हैं । उन्हें केवल अपनी प्रजा का कैसे कल्याण हो, इसी की चिंता होती है; इसलिए उन्हें श्रेष्ठ राजा माना जाता है ।
३. राजा एवं प्रजा का संबंध
भारत में राजा एवं प्रजा का संबंध एक प्रकार से पिता एवं पुत्र की भांति है । जिस प्रकार पिता अपने पुत्रों को सर्वाेपरि रखता है, उस प्रकार राजा उसके प्रजा की चिंता का वहन करता है । प्रभु श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे । ‘मुझे प्रजा के हित से दूर नहीं जाना है’, यह श्रीराम की मर्यादा थी । प्रजा में केवल मनुष्य नहीं होते, अपितु उसमें पशु-पक्षी, जीव-जंतु, वृक्ष, भूमि, वनसंपदा एवं भूमि अंतर्भूत होते हैं तथा इस प्रजा का दायित्व लेकर उनकी रक्षा करना, उनका संवर्धन करना तथा उनकी देखभाल करना राजा का कर्तव्य है । यह करते समय राजा अपना हित नहीं देखता । श्रीराम का जीवन तो केवल उनके सुख-दुख तक ही सीमित नहीं था । संत तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘श्रीराम कौन हैं ?, जिसे उसके राज्याभिषेक का समाचार मिलने पर हर्ष नहीं हुआ तथा वनवास मिलने पर दुख भी नहीं हुआ । जो राजा स्वहित की अपेक्षा उसका धर्म किसमें है तथा उसे क्या करना है, इतना ही देखता है; उसी में समता आ सकती है ।’
४. रामराज्य की संकल्पना !
प्रभु श्रीराम ने जिस प्रकार राज्याभिषेक को स्वीकार किया, उसी प्रकार वनवास भी स्वीकार किया । उसके कारण ही वाल्मीकि ऋषि ने कहा कि ‘श्रीराम धर्मशरीर अर्थात धर्म की मूर्ति हैं ।’ साक्षात ईश्वरीय अवतार लेकर धर्माचरण करते हैं तथा वे यह अवतार भी स्वयं के लिए नहीं लेते, अपितु अन्यों के लिए लेते हैं । श्रीराम में भावना है कि ‘भले ही मैं राजा हूं; परंतु यह राज्य मेरे लिए, मेरे परिजनों के लिए अथवा कुल के लिए नहीं, अपितु प्रजा के लिए है ।’ यही रामराज्य की संकल्पना है । रामराज्य एक आदर्श उदाहरण है । रामराज्य में प्रजा को प्रत्येक प्रकार का सुख मिलता था ।
५. श्रीकृष्ण के राज्य की अपेक्षा रामराज्य अधिक श्रेष्ठ समझे जाने का कारण
एक श्रेष्ठ राजा के रूप में प्रभु श्रीराम ही आदर्श हो सकते हैं । वह भगवान श्रीकृष्ण को आदर्श नहीं मान सकता; क्योंकि श्रीकृष्ण के समय युग एवं परिस्थिति भिन्न थी । उस परिस्थिति के अनुरूप उनकी लीलाएं थीं; इसलिए आदर्श राज्य को ‘रामराज्य’ कहा जाता है; परंतु ‘कृष्णराज्य’ नहीं कहा जाता । महाभारत द्वापर युग के अंत तथा कलियुग के आरंभ में हुआ है; इसलिए महाभारत के चरित्रों में वह उत्कृष्टता नहीं आती । रामायण एवं महाभारत में केवल एक ही भेद है कि रामायण में भाई अपने भाई के लिए वियोग सहन करता है तथा महाभारत में भाई ही भाई के साथ विद्रोह करता है । रामायण में रावण को दुष्ट नहीं माना गया है । श्रीराम के हाथों मारे जाने पर रावण का उद्धार होता है तथा उसे सद्गति प्राप्त होती है, जो अन्यों को भी प्राप्त होती है । जिस प्रकार अग्नि के सान्निध्य में आनेवाली वस्तु भी अग्निस्वरूप होती है, उसी प्रकार पतित व्यक्ति भी जब ईश्वर के सान्निध्य में आता है, तब उसे भी परमगति प्राप्त होती है । रावण की विरोधी-भक्ति होने के कारण उसे मोक्ष की प्राप्ति हुई ।
६. रामराज्य में समाज की स्थिति लोभ रहित होने से संघर्ष न होना
मध्ययुगीन काल के आरंभ में मंदिरों के विध्वंस के कारण उन पर निर्भर अर्थव्यवस्था नष्ट हो गई । राजा भले ही शासनकर्ता होता था; परंतु वह हस्तक्षेप नहीं करता था । लोग उसकी इच्छा के अनुसार जीवनयापन करते थे तथा अपने धर्म का पालन करते थे । वाल्मीकि ऋषि के कहे अनुसार प्रजा अपने कर्म एवं धर्म में संलिप्त थी । प्रजा को उसी में आनंद मिलने के कारण वह संतुष्ट थी । राजा भले दंड देता था; परंतु प्रजा स्वयं ही उचित आचरण करती थी । यह आचरण उस राज्य के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, इन चारों वर्णाें के लोग करते थे । वे सभी लोभ विरहित थे । किसी को किसी से कुछ छीनना नहीं था । इसे वाल्मीकि ऋषि ने ‘लोभविवर्जिता’ कहा है । जहां दूसरों की संपत्ति हडपने की इच्छा नहीं है, वहां समाज में संघर्ष होगा ही नहीं ! यह रामराज्य का परिणाम था ।
७. प्राचीन काल में यज्ञ दानधर्म करने का माध्यम होना
यज्ञ के उपलक्ष्य में निर्धन से लेकर विद्वान तक सभी को संपत्ति दान की जाती थी । राजपुत्र एवं राजपुत्रियों के विवाह के समय भी इसी प्रकार का दानधर्म किया जाता था । इतना ही नहीं, विवाह में नाच-गाना करनेवालों को भी धन का वितरण किया जाता था । वास्तव में यज्ञ दानधर्म करने का माध्यम था । अश्वमेध यज्ञ अन्यों पर राज करने के लिए नहीं, अपितु संपत्ति का वितरण करने के लिए किया जाता था । दान केवल राजा ही नहीं देता था, समाज के अन्य लोग भी कुछ विशेष समारोह के उपलक्ष्य में दानधर्म करते थे । हिन्दू धर्मशास्त्र में बताया गया है कि लोभी होने के कारण उसका निवारण करने के लिए मनुष्य को सदैव दान करना चाहिए । भारत के इतिहास में महादानी के रूप में राजा शिबी, कर्ण, राजा हरिश्चंद्र आदि अनेक श्रेष्ठ पुरुषों की गणना की जाती है । दान का यह धर्म आज के लोकतंत्र से पूर्णरूप से विपरीत है ।
८. प्राचीन काल में हिन्दू राजाओं से पराजित राज्य की प्रजा के साथ धर्मशास्त्र के अनुसार व्यवहार किया जाना
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य आदि ग्रंथों में राजा के आचरण के विषय में बताया गया है, जिसका पालन संपूर्ण भारत में किया जाता था । उसके अनुसार विजयी राजा जब शत्रु की राजधानी में प्रवेश करेगा, तब वह सर्वप्रथम वहां के लोगों को अभयदान देगा । वह बालक, स्त्री, कलाकार, श्रमिक, धनी वर्ग एवं व्यापारियों को किसी प्रकार से आहत नहीं कर सकेगा । उसे राजधानी में केवल राजकोष को अपने नियंत्रण में लेने का अधिकार है; परंतु राजकुमारियों को हाथ लगाने का अधिकार नहीं है । उसे यदि राजधानी के प्रमुख मंदिर में स्थित मूर्ति ले जानी हो, तो उसे अपने राज्य में पुराने मंदिर से भी भव्य मंदिर बनाना पडेगा । विजयी राजा पराजित राज्य के बडे-बडे कलाकारों अथवा विद्वानों को बलपूर्वक नहीं, अपितु आदरपूर्वक निमंत्रण देता था तथा उसके उपरांत यदि उनकी इच्छा हो, तो वे उस राज्य की राजधानी में जाते थे । उदाहरणार्थ ७ वीं शताब्दी में अनेक बडे-बडे विद्वान कश्मीर गए । वे सभी उत्तर प्रदेश से गए थे । यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही थी । उस समय पराजित राजा की संपत्ति को ‘हाल ए गनीमत’ नहीं समझा जाता था । हिन्दू संस्कृति में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता । कुछ छिटपुट उदाहरण मिलते हैं; परंतु ऐसे राजाओं को दुष्ट माना जाता था तथा उनका संहार किया जाता था ।’
– प्रा. भरत गुप्त (२३.१०.२०२२)
आधुनिक लोकतंत्र की अपेक्षा भारत का प्राचीन राजतंत्र अधिक श्रेष्ठ ! – मधुपूर्णिमा किश्वर, संपादक, ‘मानुषी इंडिया’ यू ट्यूब वाहिनी
समाज सुचारु न हो, तो रामराज्य नहीं आ सकता । प्रजा का पालन करना, बाह्य-शत्रुओं से समाज की रक्षा करना तथा शांति एवं समृद्धि को बनाए रखना राजा का प्रमुख कर्तव्य है । प्राचीन काल में प्रतिवर्ष बडे-बडे यज्ञ कर राज्य का कोष खाली कराया जाता था । उनके पास से कोई भी याचक निराश होकर वापस नहीं जाता था । दानधर्म को राजा का धर्म माना जाता था । उसके विपरीत पश्चिमी देशों के राजाओं की स्थिति थी । भारतीय राजा स्वयं के लिए भव्य महलों का निर्माण नहीं करते थे; अपितु वे भव्य मंदिरों का निर्माण करते थे ।
हिन्दू धर्म में संतुष्टि को सबसे बडा धन माना जाता है । लोकतंत्र को प्रत्येक व्यक्ति को पराजित कर आगे बढना है । रामराज्य में राजा राज करता हैै; परंतु वह जनता के काम में हस्तक्षेप नहीं करता । तथाकथित लोकतंत्र में चुना गया प्रत्याशी चुनाव में वह जो व्यय करता है, उसे वापस अर्जित करने का प्रयास करता है । उसके कारण ऐसा समझा जाता है कि ‘सत्ता मिलने से लूट की अनुज्ञप्ति मिली ।’ आज के समय में लोकतंत्र में जाति, भाषा एवं प्रदेश के नाम पर चुनाव लडे जाते हैं । लोकतंत्र में निरंतर गिरोहयुद्ध (गैंगवॉर) जैसी स्थिति होती है । प्राचीन काल में विशेष रूप से महाभारत काल में छल-कपट थे; वो भी एक सीमा तक थे । आज के समय में सब कुछ मर्यादाओं के परे पहुंच चुका है । सर्वत्र समाज को तोडने का काम चल रहा है ।
आधुनिक लोकतंत्र के समर्थक भारतीय लोगों को मानवाधिकार, मानवता आदि सिखाने का प्रयास करते हैं । हिन्दू धर्म में प्राचीन काल से ही मानवता है तथा मानवाधिकारों की रक्षा होती आई है । प्राचीन काल में नियम के अनुसार ही युद्ध लडे जाते थे; किंतु आज के आधुनिक काल में शहर जलाए जाते हैं । उससे मानवता की बहुत बडी हानि होती है । लोकतंत्र की आड में धर्मांतरण, ‘सर तन से जुदा’ (सिर शरीर से अलग), वोटबैंक बनाकर ‘ब्लैकमेल’ करना आदि घटनाएं खुलेआम चल रही है; इसलिए लोकतंत्र ‘हमारे गले का पत्थर बन गई है’, ऐसा ही कहना पडता है ।