फेंटा
१. फेटा (पगडी, साफा) अथवा टोपी धारण करने की पद्धति क्यों निर्मित हुई ?
‘कलियुग में मनुष्य देवधर्म से कोसों दूर चला गया है । इसलिए टोपी या फेटा जैसे बाह्य माध्यमों की आवश्यकता लगने लगी, जिससे उसमें अपने कर्म के प्रति भाव तथा गंभीरता व आगे इसी माध्यम से ईश्वरप्राप्ति की रुचि उत्पन्न हो । इसीसे फेटा या टोपी धारण करने की पद्धति निर्मित हुई ।’ – एक विद्वान (श्रीचित्शक्ति [श्रीमती] अंजली गाडगीळजी के माध्यम से, १८.३.२००५, दो. १२.३८ एवं सायं. ६.०९)
२. फेटे का महत्त्व और लाभ
अ. फेटे की रचना के कारण देह में सात्त्विक तरंगों के संवर्धन में सहायता मिलना : ‘उपरने से अथवा धौतवस्त्र से सिर को गोलाकार पद्धति से लपेटना, यह सबसे सरल, सहज एवं सात्त्विक उपाय है । इस लपेटे हुए भाग के मध्य में निर्मित रिक्ति में ब्रह्मांड के सात्त्विक स्पंदन घनीभूत किए जाते हैं । फेटे की इस रचना से देह में सात्त्विक तरंगों के संवर्धन में सहायता मिलती है ।
आ. फेटे के स्पर्श से जीव की प्रज्ञा विकसित होने में सहायता मिलना : सिर पर निर्मित फेटे की रचना सबसे सात्त्विक है; क्योंकि गोल आकार में घनीभूत होनेवाले स्पंदन ज्ञानशक्ति से संबंधित होने से, फेटे के स्पर्श से जीव की प्रज्ञा विकसित होने में सहायता मिलती है । फेटे में आवश्यकता अनुसार मारक एवं तारक तरंगें घनीभूत होने से जीव को उसकी प्रकृति के अनुसार लाभप्राप्ति में सहायता मिलती है ।
इ. फेटे के कारण देह की कार्यशक्ति की धारणा में वृद्धि होना : देह की कार्यशक्ति की धारणा बढानी हो, तो फेटे का छोर पीछे पीठ पर रखते हैं । पीठ के मध्यभाग में, अर्थात रीढ को स्पर्श करनेवाले फेटे के वस्त्र के कारण जीव की सुषुम्ना नाडी जागृत रहने में सहायता मिलती है ।