मधुर वाणी की दैवी प्रतिभा प्राप्त और गायन के प्रति भाव रखनेवाली स्वरसम्राज्ञी भारतरत्न स्व. लता मंगेशकर (आयु ९२ वर्ष) !

सुश्री तेजल पात्रीकर
श्रीमती अनघा जोशी

     ‘गाना’ शब्द सुनते ही गानसम्राज्ञी लता मंगेशकर का रूप आंखों के सामने आता है । ‘लतादीदी का अर्थ है गाना !’, संगीत के साथ उनका ऐसा समीकरण जुडा हुआ था’, ऐसा कहना अनुचित नहीं होगा । अपनी मधुर वाणी से संपूर्ण विश्व को मोहित करनेवालीं स्वरसम्राज्ञी लता मंगेशकर (लतादीदी) का जीवन और उनकी संगीतयात्रा भी उतनी ही चुनौतीपूर्ण थी । उन्होंने कठिन प्रसंगों का सामना कर, साथ ही घर संभालकर संगीत की इमारत खडी की थी । उन्होंने मराठी और हिन्दी सहित विविध भाषाओं में गायन किया है । उन्हें ‘फिल्मफेयर’, पद्मभूषण, पद्मविभूषण आदि पुरस्कारों सहित ‘भारतरत्न’ जैसे सर्वाेच्च नागरी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था । केवल इतना ही नहीं, अपितु वर्ष १९८९ में भारत सरकार ने उन्हें भारतीय फिल्मजगत के सर्वाेच्च पुरस्कार ‘दादासाहेब फाळके’ पुरस्कार से सम्मानित किया । वे ऐसे अनेक उच्च पुरस्कारों से गौरवान्वित थीं । दैवी वाणी की प्रतिभा प्राप्त लतादीदी का ६ फरवरी २०२२ को निधन हुआ । लतादीदी की इस संगीतमय यात्रा के विविध पहलुओं को उजागर करनेवाले इस लेख के माध्यम से महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय स्व. लता मंगेशकरजी को भावभीनी श्रद्धांजलि समर्पित कर रहा है ।

१. २० वीं शताब्दी में लडकियों को घर से बाहर निकालकर मास्टर दीनानाथ मंगेशकर द्वारा लतादीदी को संगीत की शिक्षा देना और लतादीदी द्वारा भी ‘मंगेशकर‘ घराने का नाम उज्ज्वल करना

     लतादीदी को अपने पिता से बचपन में ही संगीत की शिक्षा मिली । बचपन से ही उनके पिता उन्हें स्वरों की जानकारी देते थे । एक बार उनके पिता अपने शिष्य को संगीत का रियाज (अभ्यास) करने के लिए कहकर बाहर गए । छोटी लता बाहर खेल रही थीं । पिता जब अपने शिष्यों को शास्त्रीय संगीत सिखाते, उसे उन्होंने खेलते-खेलते ही सुना था । तब बाहर खेल रही लता को ‘वह शिष्य रियाज करते समय चूक कर रहा है’, यह ध्यान में आया, तो उन्होंने उस शिष्य को वह राग अचूकता से गाकर सुनाया । उसी समय बाहर आए मास्टर दीनानाथ ने लता का वह गायन सुना । दूसरे दिन सवेरे छोटी लता को जगाकर मास्टर दीनानाथ ने उन्हें शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देना आरंभ किया । वर्ष १९३८-३९ में ९ वर्ष की लतादीदी ने अपने पिता के साथ थिएटर में शास्त्रीय गायन के कार्यक्रम प्रस्तुत किए ।

     ‘लतादीदी तो संगीत क्षेत्र का एक अद्भुत चमत्कार हैं’, इसका भान उनके पिता को उनके बचपन में ही हो गया था । २० वीं शताब्दी में लडकियों के लिए घर से बाहर निकलना कठिन था । उस स्थिति में भी लतादीदी के पिता ने उन्हें संगीत की शिक्षा दी और लतादीदी ने भी ‘मंगेशकर’ घराने का नाम उज्ज्वल कर दिखाया ।

२. लतादीदी को युवावस्था में एक स्वप्न आना और उसका अर्थ ‘तुम्हें ईश्वर के आशीर्वाद प्राप्त हैं और एक दिन तुम बहुत बडी बनोगी’, उनकी मां और दादी का ऐसा बताना

     लतादीदी जब लगभग २० वर्ष की थीं, तब उन्हें सदैव एक स्वप्न आता था । उसमें उन्हें ‘वे मंदिर की सीढियों पर बैठी हैं और नीचे से समुद्र की लहरें आकर उनके पैरों को स्पर्श कर रही हैं’, ऐसा दिखाई देता था । उस समय दीदी की मां और दादी ने दीदी को बताया था, ‘इसका अर्थ हुआ, तुम्हें ईश्वर के आशीर्वाद प्राप्त हैं और एक दिन तुम बहुत बडी बनोगी !’

३. लतादीदी के दैवी स्वर की विशेषताएं

३ अ. उनमें अपनी अलौकिक स्वर से संगीत के सभी प्रकार के अलंकारों को प्रकट करने की अद्भुत क्षमता थी ।

३ आ. उनकी ग्रहणशक्ति असामान्य थी ।

३ इ. ‘लता के गले में गंधार है’, ऐसा लतादीदी के पिता मास्टर दीनानाथ मंगेशकर कहते थे ।

भारतरत्न लता मंगेशकरजी को दैनिक ‘सनातन प्रभात’ के विषय में जानकारी देते हुए श्री. अजय संभूस (वर्ष २०१७)

३ ई. एक लेखक के द्वारा लतादीदी की वाणी का किया गया वर्णन : ‘शब्दार्थ से परे तरल संवेदन के भावविश्व में ले जानेवाला अलौकिक स्वर, उस संबंधित भाषा की विशेषता एवं प्रकृति के अनुसार किए जानेवाले स्वच्छ, स्पष्ट और अर्थपूर्ण शब्दोच्चारण, लय की गहरी एवं परिपक्व समझ, सुर, ताल और लय पर अलौकिक प्रभुता’ जैसे उत्तम गुणों का अद्भुत संगम लतादीदी के गायन में दिखाई देता है ।

३ उ. कोई अलग प्रयास किए बिना संगीत में विद्यमान सभी श्रुतियां अचूकता से लगना : लतादीदी के संगीत में सभी (२२) श्रुतियां (नाद का सूक्ष्मतम आविष्कार) अचूक लगती थीं । एक बार एक भेंटवार्ता में उनसे अचूक श्रुतियां लगने के विषय में प्रश्न पूछा गया । तब वे कहने लगीं, ‘‘मेरे गले से वे अपनेआप ही निकलती हैं, उसके लिए मुझे अलग से प्रयास नहीं करने पडते ।’’ (‘इससे उनका स्वर दैवी होने की बात ध्यान में आती है ।’ – संकलनकर्ता)

४. संगीत क्षेत्र के बडे कलाकारों द्वारा लतादीदी के गायन के संबंध में व्यक्त गौरवोद्गार

४ अ. एक चित्रीकरण के समय प्रसिद्ध अभिनेत्री नूरजहां की भेंट लतादीदी से हुई, तब उन्होंने दीदी को आशीर्वाद दिया, ‘तुम आगे जाकर बहुत बडी गायिका बनोगी ।’

४ आ. एक रात उस्ताद बडे अली खान आकाशवाणी पर लतादीदी द्वारा गाया हुआ फिल्मी गीत सुन रहे थे । तब उन्होंने ‘यह लडकी कभी बेसुरी नहीं होती ।’, ऐसे गौरवोद्गार व्यक्त किए ।

५. लतादीदी की वाणी के विषय में अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा किया गया शोधकार्य

     अमेरिकी शोधकर्ताओं ने लतादीदी की वाणी पर शोधकार्य किया है । उन्होंने कहा है, ‘इससे पूर्व लता मंगेशकर की वाणी की भांति सुरीली वाणी नहीं थी और आनेवाले समय में भी उसके होने की संभावना बहुत ही अल्प है ।’ इससे लतादीदी की वाणी की दिव्यता ध्यान में आती है ।

६. लता मंगेशकर की गुणविशेषताएं

६ अ. आत्मविश्वास : बचपन में वे अपने पिता के साथ नाटकों में काम करती थीं । एक नाटक में उनके पिता के गाने के उपरांत लतादीदी का गाना था । गाने के लिए जाते समय वे अपने पिता से कहने लगीं, ‘‘पिताजी, देखिए मैं इस गाने को ‘वन्स मोर’ (एक बार पुन: गाइए ।) लेकर आऊंगी ।’’ और वास्तव में दर्शकों ने उस गाने को ‘वन्स मोर’ दिया ।

६ आ. अपनी सफलता का श्रेय भगवान और पिता को देना : एक बार लतादीदी से पूछा गया, ‘‘आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देंगी ?’’ तब उन्होंने कहा, ‘‘भगवान और पिताजी को !’’

७. गायन के प्रति लतादीदी का भाव

७ अ. ‘मैं मेरे अंतर में विद्यमान भगवान को संतुष्ट करने के लिए गाती हूं’, यह उनका भाव रहता था । उन्हें ऐसा लगता था कि ‘पहले भगवान को संतुष्ट किया, तो विश्व को अपनेआप ही उस गाने का आनंद मिलेगा ।’

आ. अध्यात्म की बैठक के बिना संगीत हो ही नहीं सकता; क्योंकि सुर ही एक ‘ॐ’कार है । वह जहां नहीं होगा, वहां संगीत अधिक समय तक टिका नहीं रह सकता । आप संगीत का कोई भी प्रकार ले लीजिए, उदा. भाव गीत और सुगम गीत, उसके लिए भी ईश्वर का अधिष्ठान आवश्यक है; क्योंकि संगीत की देवी तो ‘सरस्वतीदेवी’ हैं ।

८. लतादीदी को गायन करते समय प्राप्त अनुभूति

     एक बार लतादीदी को बुखार होते हुए भी उन्होंने संत मीराबाई का गीत गाया था । उस समय उन्हें इसका भी भान नहीं था कि ‘मुझे बुखार है ।’ तब उन्हें ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ‘मैं मीराबाई के आसपास हूं ।’

– सुश्री (कु.) तेजल पात्रीकर एवं श्रीमती अनघा शशांक जोशी, महर्षि अध्यात्म विश्वविद्यालय, गोवा. (६.२.२०२२)

लतादीदी को अश्‍लील गीत गाने की अपेक्षा सादगीपूर्ण और आध्यात्मिक बैठक प्राप्त गाने गाना प्रिय होना

     लतादीदी ने संत तुकाराम महाराज के अभंग (भक्तिरचनाएं), श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय, मीराबाई के भजन इत्यादि का गायन किया है । लतादीदी को संतों की रचनाएं गाना बहुत प्रिय था ।

     एक कार्यक्रम में आप सादगीपूर्ण गाने ही क्यों गाती हैं ?, ऐसा पूछा गया । तब उन्होंने कहा, मुझे अंदर से ही अश्‍लील गीत गाने की इच्छा नहीं होती ।

     एक बार एक भेंटवार्ता में उन्होंने कहा, अन्य गानों की अपेक्षा ज्ञानेश्‍वरी के श्‍लोक, गीता के श्‍लोक और संत मीराबाई की रचनाएं गाने से मेरे मन को एक अलग ही आत्मिक आनंद मिलता है । मुझे आध्यात्मिक बैठकवाले गाने गाना बहुत प्रिय है । मैं केवल व्यवसाय के रूप में अन्य गाने गाती हूं ।

– कु. तेजल पात्रीकर एवं श्रीमती अनघा शशांक जोशी, महर्षि अध्यात्म विश्‍वविद्यालय, गोवा. (६.२.२०२२)