असंस्कृतों का संस्कृतद्वेष

     देश में जब-जब संस्कृत के हित में विषय निकला है, तब तब धर्मांध, कांग्रेसी, आधुनिकतावादी, हिन्दूद्वेषी आदि को अत्यंत पीडा न हुई हो, ऐसा आज तक कभी नहीं हुआ । इसकी ही प्रतीति कर्नाटक राज्य में पुन: एक बार आई । भाजपाशासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई ने कर्नाटक के रामनगर जिले के मगडी में संस्कृत विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए १०० एकड भूमि देने का निर्णय लिया । अपेक्षा के अनुरूप उसी क्षण से इस निर्णय का संस्कृतद्वेषियों द्वारा कडा विरोध आरंभ हो गया है । इन संस्कृतद्वेषियों ने ट्विटर पर ‘से नो टू संस्कृत’ यह ‘हैशटैग ट्रेंड’ द्वारा विरोध को व्यापक रूप देने का प्रयत्न किया । प्रांतीय एवं भाषिक अस्मिता के नाम पर अनेक गुटों ने भी इसमें हाथ धोना आरंभ कर दिया है । कांग्रेस ने तो सरकार के इस निर्णय का कडा विरोध करने का खुला आवाहन ही राज्य के कुछ गुटों को किया है ।

     अर्थात यह विरोध केवल संस्कृतद्वेष ही है । इस विश्वविद्यालय की स्थापना वर्ष २०१० में ही तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा हुई थी । इस विश्वविद्यालय की छत्रछाया में २१ घटक महाविद्यालय एवं ३५० से भी अधिक संस्कृत विद्यालय कार्यरत हैं । ऐसा होते हुए भी इस विश्वविद्यालय के लिए स्थायी परिसर उपलब्ध नहीं था । जो अब विद्यमान राज्य शासन के निर्णय के कारण मिलने के मार्ग पर है ।

     वास्तव में संस्कृत भारतवर्ष की मूल भाषा है । वेद, उपनिषद, प्राचीन ग्रंथ, वेद वाङ्मय आदि सर्व संस्कृत भाषा में ही हैं; परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात स्वयं को ‘पंडित कहलवानेवाले व्यक्ति ने संस्कृत को ‘मृत भाषा’ घोषित कर दिया । सच तो यह है कि संस्कृत भाषा सर्वाधिक शास्त्रीय भाषा है । इसे ‘नासा’ के वैज्ञानिकों ने भी मान्य किया है । मध्य प्रदेश के इंदौर के ‘आइआइटी’ में भी प्राचीन भारतीय विज्ञान का संस्कृत में शिक्षा देने का पाठ्यक्रम रखा जाता है । कुल मिलाकर देश-विदेश के वैज्ञानिक आज संस्कृत भाषा का गौरवगान कर रहे हैं; परंतु भारत के तथाकथित आधुनिकतावादी, विज्ञानवादी, कांग्रेसी आदि संस्कृत विरोधी बेसिरपैर की बातें कर रहे हैं । इनके विरोध को अनदेखा करते हुए विद्यमान कर्नाटक राज्य सरकार को अपने निर्णय पर डटे रहते हुए उस दिशा में शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाही आरंभ करनी चाहिए ।

उर्दू विश्वविद्यालय का विरोध क्यों नहीं ?

     वर्ष २०१८ में कर्नाटक में जनता दल (धर्मनिरपेक्ष) पक्ष के एच.डी. कुमारस्वामी की सरकार की सत्ता में होने पर कलबुर्गी में उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने का निर्णय लिया गया था । विशेष बात यह है कि राज्य सरकार द्वारा चलाए जा रहे अन्य विश्वविद्यालयों की भारी मात्रा में हो रही दयनीय अवस्था होते हुए भी सरकार उर्दू विश्वविद्यालय स्थापित करने चली थी । तब आज के समान संस्कृत विश्वविद्यालय का विरोध करनेवाले धर्मनिरपेक्ष, कांग्रेसी, आधुनिकतावादी आदि ने एक शब्द भी इसके विरोध में कहा हो, यह सुनने में नहीं आया । विरोधकों के मतानुसार, यदि संस्कृृत भाषा के कारण राज्य की भाषिक अस्मिता संकट में पड रही है, तो उर्दू से कर्नाटक राज्य की कौनसी भाषिक अस्मिता संजोई जानेवाली थी ?, यह भी उन्हें स्पष्ट करना चाहिए था । इसलिए इन लोगों का विरोध केवल संस्कृत की आड में हिन्दू धर्म को विरोध है, यही बात प्रमुख रूप से ध्यान में रखना चाहिए । संस्कृत ही ऐसी एकमेव भाषा है, जो भारतवर्ष के एक कोने से दूसरे कोने तक लोगों को एक साथ बांध सकती है । इससे देश के नागरिकों में जाने-अनजाने में ही एकता निर्माण होती है, जो गत ७४ वर्षाें में किसी भी शासनकर्ता के लिए संभव नहीं हुआ ।

संस्कृत भाषा को राजाश्रय चाहिए !

     संस्कृत, यह सर्व भाषाओं की जननी है । उसकी श्रेष्ठता एवं महत्त्व निर्विवाद है । कर्नाटक के जो संस्कृतद्वेषी संस्कृत विश्वविद्यालय का विरोध कर रहे हैं, उन्हें यह समझ लेना आवश्यक है कि इसी कर्नाटक राज्य के मैसूरु के राजा ने विशेष ध्यान देकर संस्कृत भाषा को समय-समय पर प्रोत्साहन दिया था । यह करते समय उन्हें कभी संस्कृत भाषा अपनी मातृभाषा की अस्मिता की अडचन नहीं लगी । फिर कांग्रेस को ही वह क्यों लगती है ? इतना ही क्यों; हाल ही में ५० वर्ष पूर्ण किए ‘सुधर्म’ नामक जगत का एकमेव संस्कृत समाचार-पत्र भी इसी मैैसूरु से प्रकाशित किया जाता है । आज के इन अत्यंत ही अल्प कांग्रेसियों को ज्ञात होगा कि कांग्रेस की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में, अर्थात वर्ष १९७० में संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना हुई और वर्ष १९७४ में आकाशवाणी द्वारा संस्कृत समाचार आरंभ हुआ । वर्ष १९९४ में इसी कांग्रेस के तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंहराव के कार्यकाल में दूरदर्शन द्वारा संस्कृत समाचार आरंभ हुआ । संस्कृत के उत्कर्ष के लिए स्थापित हुए पहले दो आयोग भी कांग्रेस के कार्यकाल में स्थापित हुए थे । कांग्रेस ने यह निर्णय यदि लिया है, तब भी उनके काल में संस्कृत को उपेक्षा ही मिली, यह भी उतना ही सत्य है । यह चूक सुधारकर, अब विद्यमान सरकार को तो संस्कृत को राजाश्रय देना चाहिए । वही खरे अर्थ में आत्मनिर्भर होने की दृष्टि में उठा कदम होगा !