अध्यात्मविषयक बोधप्रद ज्ञानामृत…
।। श्रीकृष्णाय नमः ।।
इंद्रियां, पञ्चतन्मात्रा आदिमें व्यक्त होनेवाले चैतन्यके अंशको भी देवता कहनेका प्रघात है; यथा वाणीकी देवता अग्नि, कानोंमें दिक देवता, आंखोंकी सूर्य, त्वचाकी वायु, चरणोंकी उपेन्द्र, हाथोंकी इन्द्र आदि ।
अब, अपरिहार्य न रहते हुवे भी हम किसीसे कठोरतासे बोले, दूसरेको चुभने जैसे शब्द बोले, वाणीसे कर्कश स्वर निकाले, तो हमारे मुखकी वाणीकी देवता अप्रसन्न होती है, क्यों कि यह वाणीका दुरुपयोग है । साथ ही जिसके कानोंपर हमारा कटु वचन पडेगा, वहांकी दिक देवता भी अपमानित होती है । अर्थात् हमारे एक अप्रिय वाक्य बोलनेसे हम दो देवताओंको दुखी करते हैं, अप्रसन्न करते हैं; इसलिये ऐसा करनेसे बचना चाहिये । इसी प्रकार अन्य इंद्रियोंके विषयमें भी होता है ।
ऐसा विचार कर प्रत्येक इंद्रियसे अयोग्य कृति न होनेकी सावधानी बरती, तो ‘दम’ अर्थात् इंद्रियनिग्रह सधेगा । आगे चलकर यह अंगीकृत हो गया, तो अयोग्य कृति करनेका विचार मनमें आते ही वह अनुचित होनेका भान होगा । इससे अगला स्तर ‘शम’ अर्थात् मनोनिग्रह सधेगा । अर्थात् देवताओंका सम्मान रखनेके लिए भक्तिमार्गके आचरणसे एक और लाभ यह होगा कि ज्ञानमार्गका दम एवं शम भी साध्य होगा । यथासमय यह सहजस्वभाव बन जायेगा । ऐसी विचारप्रक्रियासे भी चित्तशुद्धि की जा सकती है ।
चित्तशुद्धि होना, यह साधनामें बहुत महत्वका, अत्यावश्यक और अपरिहार्य होता है । वह इस पद्धतिसे साध्य होगा ।
– अनंत आठवले (२१.६.२०२१)
।। श्रीकृष्णार्पणमस्तु ।।
लेखक पू. अनंत आठवलेजी के लेखन की पद्धति, भाषा एवं व्याकरण का चैतन्य न्यून न हो; इसलिए उनका लेख बिना किसी परिवर्तन के प्रकाशित किया है । – संकलनकर्ता |