न्यायपालिका का भारतीयकरण होना चाहिए ! – मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा

अभी तक शासन करने वाले सर्वपक्षीय लोगों के लिए यह लज्जास्पद तथ्य है, कि स्वतंत्रता के ७४ वर्षों के उपरांत भी भारतीय न्यायपालिका का भारतीयकरण नहीं हुआ है ! – संपादक

मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा

नई दिल्ली : ‘न्यायपालिका का भारतीयकरण करना, संपत काल की मांग है । न्यायपालिका को अधिक प्रभावी होना चाहिए । साथ ही, न्याय दान सभी के लिए सहज सुलभ होना चाहिए’, मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमणा ने कहा । वे सर्वोच्च न्यायालय के दिवंगत न्यायाधीश मोहन एम. शांतानागौदर को श्रद्धांजलि देने के लिए आयोजित एक कार्यक्रम में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे ।

मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तुत सूत्र :

प्राय:, हमारी न्याय व्यवस्था आम आदमी के लिए रोडा बन जाती है !

देश की न्यायपालिका को, वादी को केंद्र में रखना चाहिए । उसी प्रकार, न्याय दान में सहजता अनिवार्य है । प्राय:, हमारी न्याय व्यवस्था सामान्य नागरिकों के लिए रोडा बन जाती है ।

हमारी न्याय दान पद्धति व नियम, अभी भी उपनिवेश काल के हैं !

न्याय दान में वर्तमान में उपयोग की जाने वाली पद्धतियां हमारे अनुकूल नहीं हैं । हमारे तरीके, नियम आज भी उपनिवेश काल के हैं। यह भारतीय नागरिकों की आवश्यकताओं का समाधान नहीं करते । वास्तव में, इसके कारण अधिक बाधाएं उत्पन्न होती हैं ।

न्यायालय का सारा काम चूंकि अंग्रेजी में होता है, वह लोगों को समझ नहीं आता !

जब हम भारतीयकरण की बात करते हैं, तो इसका अर्थ उन पद्धतियों का उपयोग करना है, जो समाज को व्यावहारिक रूप से उपयुक्त हों । न्यायपालिका के स्थानीयकरण की आवश्यकता है । मान लीजिए, कोई ग्रामीण क्षेत्र है और वहां का पारिवारिक विवाद न्यायालय के समक्ष आता है, तो संबंधित को युक्तिवाद समझ में नहीं आता, क्योंकि, न्यायालय का सारा काम अंग्रेजी में होता है ।

न्यायिक व्यवस्था पारदर्शी और प्रभावी हो !

आजकल, निर्णय पत्र लंबे होते जा रहे हैं । इससे पक्षकारों की स्थिति विकट हो जाती है । निर्णय के परिणामों को समझने के लिए पैसा खर्च करना पडता है, इसलिए, न्यायालयों को पक्षकार या दावेदार के अनुकूल होना चाहिए । न्यायपालिका को पारदर्शी और प्रभावी होना चाहिए ।

न्यायालय में जाते समय न्यायाधीशों से न डरें !

प्रक्रियात्मक बाधाएं प्राय: न्याय प्राप्त करना कठिन बना देती हैं । साधारण व्यक्ति को न्यायालय में जाने पर न्यायाधीशों से डरना नहीं चाहिए ।

नागरिकों में सत्य व्यक्त करने का साहस होना चाहिए !

नागरिकों में सत्य बोलने का साहस होना चाहिए । अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों को पक्षकारों के लिए अनुकूल वातावरण निर्माण करना चाहिए । जो लोग न्याय पाना चाहते हैं व जो पक्षकार हैं, उन्हें व्यवस्था के केंद्र में रखना चाहिए । मध्यस्थता और सुलह जैसे वैकल्पिक पद्धियों के माध्यम से न्याय प्राप्त के प्रयत्न होने चाहिए । इससे प्रलंबित प्रकरणों की संख्या द्वारा निर्मित तनाव कम होगा । इससे संसाधनों की बचत भी होगी ।