पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’ नामक हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का दृढ आधार होना, भारतीय संस्कृति द्वारा मनुष्य के जीवन की वास्तविकता पर प्रकाश डालना एवं ‘आत्मा’ मनुष्य के शरीर में अव्यक्त और इंद्रिय के रूप में विद्यमान होने का ज्ञान वेदों से प्राप्त होना, इस विषय में जानकारी देखी थी । आज उससे आगे का विषय इस लेख में देखेंगे । (भाग ३)
१. विषय प्रवेश
१ घ. अंतःकरण शुद्ध करनेवाली शिक्षा की आवश्यकता !
१ घ १. मनुष्य का आत्मा के विषय में अनभिज्ञ होना, अनेक प्रमाण, तर्क, उदाहरण इत्यादि द्वारा आत्मा के अस्तित्व सप्रमाण सिद्ध कर पाना संभव एवं भारतीय संस्कृति में अंतर्भूत आध्यात्मिक विद्याओं में आत्मतत्त्व की स्थूल से अनुभूति होने हेतु अनेक उपाय होना : ‘आधुनिक युग की सबसे बडी समस्या यह है कि अधिकांश समाज आत्मा को जानता नहीं (या ठीक से नहीं जानता) और न ही इसे जानने की इच्छा रखता है । यह उसी प्रकार है जैसे नेत्र मनुष्य के अत्यंत निकट हैं, अत्यंत आवश्यक एवं उपयोगी हैं, किंतु मनुष्य का ध्यान अपने नेत्रों की ओर तब ही जाता है जब नेत्र में कोई कष्ट होने लगे, अन्यथा अनेक सप्ताह अथवा अनेक मास तक नहीं जाता । आत्मा को तो मनुष्य ने कभी देखा नहीं, इसलिए उस ओर ध्यान न जाए, तो आश्चर्य नहीं । शास्त्रों ने इसी ‘आश्चर्य नहीं’ को सबसे बडा आश्चर्य बतलाया है । मनुष्य ने किसी पदार्थ को यदि नहीं देखा या जाना, तो इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता है कि उस पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं है । आत्मा के अस्तित्व के अनेक प्रमाण हैं, तर्क हैं, युक्तियां हैं । भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विद्याओं में आत्मतत्त्व का व्यावहारिक रूप से अनुभव कराने के विभिन्न उपाय हैं, जिसका संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत ग्रंथ में दिया है ।
१ घ २. मनुष्य की बुद्धि में योग्य प्रकार जानकारी डाली जाना एवं इसी जानकारी के आधार पर मनुष्य के तर्क-वितर्क द्वारा शोधन कर ज्ञान प्राप्त करना : एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह भी विचारणीय है कि मनुष्य की बुद्धि को शिक्षा कैसे प्राप्त होती है अर्थात बुद्धि द्वारा शिक्षा ग्रहण करने की प्रक्रिया क्या है ? इसके लिए भौतिक शिक्षाविदों का उत्तर है कि जैसे रिक्त बरतन में पानी भरा जाता है, उसी प्रकार मनुष्य की बुद्धि में व्यवस्थित ढंग से सूचनाएं भरी जाती हैं (प्रदान की जाती हैं) जिसे शिक्षा प्राप्त करना कहा जाता है । इन सूचनाओं के आधार पर मनुष्य तर्क-वितर्क करता है, अनुसंधान करता है और अन्य सूचनाएं एकत्र करता है ।
१ घ ३. भारतीय संस्कृति अंतःकरण शुद्ध करनेवाली शिक्षा पर बल देती है ! : उक्त प्रश्न का उत्तर भारतीय संस्कृति बिलकुल भिन्न एवं विलक्षण प्रकार से देती है । भारतीय संस्कृति के अनुसार बुद्धि में ज्ञानेंद्रियों (आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) द्वारा प्राप्त पदार्थ की वृत्तियां बुद्धि में बनती हैं, तत्पश्चात इन वृत्तियों पर आत्मा का बिंब (प्रकाश, प्रभाव पडता है जो ज्ञान होने का साक्षात कारण होता है । इसीलिए समस्त बौद्धिक ज्ञान आत्मा का प्रकाश है जो बुद्धि द्वारा प्रतिबिंबित हो रहा है, जिसे मनुष्य शिक्षा प्राप्त करना कहता है । प्रकृति के सत्त्व गुण का अंश अंतःकरण (बुद्धि) में अधिक होने से बुद्धि में वृत्तियां बनने की क्षमता आई है, अन्य किसी पदार्थ में यह क्षमता नहीं होती । यह उसी प्रकार है जैसे चमकदार साफ शीशे (Mirror) में ही सूर्य के प्रकाश को प्रतिबिंबित करने की क्षमता होती है । जितना अधिक अंतःकरण शुद्ध होगा, उतना ही अधिक आत्मतत्त्व (चेतन शक्ति का प्रभाव उस पर अधिक होने के कारण बुद्धि की क्षमता बढेगी, बुद्धि की दिव्य शक्तियां जाग्रत होंगी एवं अपरोक्ष ज्ञान के अनेक सामर्थ्य उदित होंगे । इसीलिए भारतीय संस्कृति में अंतःकरण शुद्धि की शिक्षाओं पर अधिक ध्यान दिया जाता है, इसके लिए विभिन्न उपाय बताए गए हैं ।
१ च. शिक्षा का व्यापक दृष्टिकोण
१ च १. मानवी बुद्धि के दोष न्यून कर गुण बढानेवाली शिक्षा चाहिए ! : शिक्षा सार्थक, भव्य, रुचिकर एवं श्रेष्ठ तभी हो सकती है जब हमारा दृष्टिकोण जीवन के प्रति व्यापक हो एवं शिक्षा में यह व्यापकता स्पष्ट रूप से झलकती हो । व्यापक दृष्टिकोण के अंतर्गत विभिन्न विचारों का समावेश है । ज्ञान केवल प्रत्यक्ष (ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त) एवं परोक्ष (पुस्तक) पढकर या सुनकर प्राप्त) ही होता है या अन्य प्रकार से भी होता है, शिक्षा के लिए इसे जानना आवश्यक है । मनुष्य प्रकृतिप्रदत्त जीव कहा जाता है । उसका तात्पर्य है कि यह जानना आवश्यक है कि प्रकृति क्या है, प्रकृति के गुण क्या हैं तथा वे किस प्रकार मनुष्य को प्रभावित करते हैं; फिर तदनुसार शिक्षा देनी चाहिए । पुनर्जन्म होता है या नहीं यह जानना आवश्यक है, इसलिए कि पुनर्जन्म की वास्तविकता मानने में शिक्षा का रूप बदल जाएगा । सुख-दुःख का विस्तृत विश्लेषण होना चाहिए तथा यह जानना चाहिए कि सुख-दुःख स्वाभाविक हैं या अस्वाभाविक ? यदि सुख-दुःख अस्वाभाविक हैं तो किस शिक्षा द्वारा दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो सकती है, यह जानना आवश्यक हो जाता है । मानव बुद्धि के गुण-दोष क्या हैं और किस प्रकार की शिक्षा द्वारा बुद्धि के दोषों को क्षीण किया जा सकता है तथा गुणों की वृद्धि की जा सकती है, इस महत्त्वपूर्ण तथ्य का ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है । मनुष्य शरीर में अथवा संसार में अव्यक्त एवं अतीन्द्रिय शक्तियों की विद्यमानता है या नहीं, यदि है तो किस प्रकार की शिक्षा से उनकी उपादेयता (उपयोगिता) सिद्ध की जा सकती है, इसका ज्ञान होना आवश्यक है । मानव जीवन के बंधन क्या हैं, इन बंधनों का ज्ञान होने पर उनसे मुक्ति पाने की शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए । संसार में भिन्न-भिन्न गुणोंवाले मनुष्य होते हैं, कोई विद्वान व शूरवीर होता है और कोई मंदबुद्धि व निर्बल है । अतः शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो इसके वास्तविक कारणों से अवगत करा सके और मनुष्य को यथार्थ रूप से विद्वान व शूरवीर बना सके । ये सभी विचार व्यापक दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं । व्यापक दृष्टिकोण अपनाने से शिक्षा का रूप बदल जाता है, जिसका दिग्दर्शन प्रस्तुत ग्रंथ में किया गया है ।
१ छ. आधुनिक शिक्षापद्धति के गुण-दोष समझकर शिक्षा में सुधार करना आवश्यक !
यात्रा वहां से प्रारंभ की जाती है जहां हम हैं, उस मंजिल से यात्रा प्रारंभ नहीं होती जहां हमें पहुंचना है । इसलिए शिक्षा में सुधार लाने के लिए सर्वप्रथम आधुनिक शिक्षा के गुण-दोषों को समझना होगा । इन गुण-दोषों की सीमाएं एवं उनके कारणों को भी जानना होगा । प्रस्तुत पुस्तक में हमने प्रश्न किया है कि क्या मनुष्य की बुद्धि निर्णय कर सकती है कि शिक्षा क्या होनी चाहिए ? यह प्रश्न आधुनिक भौतिकवादियों को अटपटा भी लग सकता है । इस प्रश्न का उत्तर भी प्रस्तुत ग्रंथ में दिया गया है । शिक्षा का निर्धारण प्रमाणों सहित होना चाहिए तथा शिक्षा के उद्देश्यों और उनकी प्राप्ति के उपायों की स्पष्ट व्याख्या होनी चाहिए । प्रस्तुत पुस्तक में आधुनिकता से ग्रस्त युवकों के कुछ प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं तथा पुस्तक के अंतिम खंड में आधुनिक विद्यार्थियों की कुछ अज्ञानताओं का निवारण किया गया है ।
१ ज. ग्रंथ के प्रकरणों का चयन
प्रस्तुत ग्रंथ के शीर्षक को सार्थक करते हुए विभिन्न अध्यायों का चयन इस प्रकार है – आधुनिक शिक्षा के दोषों का कारण आधुनिक सामाज की मान्यताएं हैं जिनका वर्णन अगले अध्याय २ में किया गया है । शिक्षा के दोषों का वर्णन मुख्य रूप से अध्याय ३ में किया गया है । सांसारिक बुद्धि को ही शिक्षा के लिए प्रधान समझ लेना (अध्याय ४ और ५) भी आधुनिक शिक्षा का दोष ही कहलाएगा । सर्वोत्तम शिक्षा वही कहलाएगी जिसमें प्रमाणों का आश्रय हो (अध्याय ६) व्यापक दृष्टिकोण हो (अध्याय ७) शिक्षा के उद्देश्यों का यथार्थ एवं स्पष्ट निर्धारण हो (अध्याय ८) तथा उन उद्देश्यों की पूर्ति के व्यावहारिक उपाय बताए गए हों (अध्याय ९) जिससे सामाजिक एवं व्यक्तिगत लाभ हों (अध्याय १०) । सर्वोत्तम शिक्षा का गुण यह भी होना चाहिए जो आधुनिकता से ग्रस्त युवकों के प्रश्नों का समीचीन (यथार्थ) उत्तर प्रदान करे (अध्याय ११) तथा स्वार्थी तत्वों द्वारा उन्हें (विद्यार्थियों को) प्रदान की गई अज्ञानताओं का निवारण करे (अध्याय १२ ) । (क्रमशः)
– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, वरिष्ठ संशोधक एवं भारतीय संस्कृति के अभ्यासक (साभार : ‘सर्वाेत्तम शिक्षा क्या है ?’)