मेजर ध्यानचंद ने १५ अगस्त १९३६ में तानाशाह हिटलर के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए उत्तर दिया – ‘भारत बिक्री के लिए नहीं है’

१५ अगस्त २०२१ को ‘स्वतंत्रता दिवस’ के उपलक्ष्य में

     स्वतंत्रता के पूर्व ही प्रत्येक भारतीय को गर्व प्रतीत हो, ऐसी घटना १५ अगस्त १९३६ को हुई थी । इस दिन ‘हॉकी के जादूगर’ नाम से पहचाने जानेवाले भारतीय हॉकी खिलाडी मेजर ध्यानचंद ने जर्मनी के तानाशाह हिटलर का एक प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था । भारतीय हॉकी संघ के पूर्व प्रशिक्षक सय्यद अली सिब्ते नकवी ने यह कहानी बताई ।

     बर्लिन ओलंपिक में १५ अगस्त १९३६ को बर्लिन में ही भारत एवं जर्मनी के मध्य हॉकी का अंतिम मैच होनेवाला था । इस मैच को देखने के लिए मैदान दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था; परंतु मैदान में एक तनाव भी था; क्योंकि यह मैच देखने के लिए जर्मनी का तानाशाह स्वयं हिटलर आनेवाला था । भारतीय संघ फ्रांस पर बडी विजय प्राप्त कर अंतिम चरण में पहुंचा था । फ्रांस के विरुद्ध मैच में अच्छा प्रदर्शन करनेवाले मेजर ध्यानचंद ने जर्मनी के विरुद्ध अंतिम मैच में भी अपना जादू दिखाया । इस मैच में ध्यानचंद ने जर्मनी के विरुद्ध खेलते हुए ६ गोल किए थे । भारत ने जर्मनी को ८ विरुद्ध १ से हराकर स्वर्णपदक जीता । उसके उपरांत जो हुआ, वह भारत के लिए स्वर्णपदक से भी गौरवास्पद था । यह मैच देखने के लिए उपस्थित हिटलर ने ध्यानचंद के प्रदर्शन की प्रशंसा की । हिटलर ने पुरस्कार वितरण समारोह में मेजर ध्यानचंद को जर्मनी की सेना में सहभागी होने का और जर्मनी की नागरिकता लेने का प्रस्ताव दिया । उस पर ध्यानचंद ने ‘भारत बिक्री के लिए नहीं है’, दृढतापूर्ण यह उत्तर दिया । उसके उपरांत मैदान में कुछ समय तक शांति फैलकर रह गई थी ।

मेजर ध्यानचंद कौन थे ?

     ध्यानचंद का जन्म इलाहाबाद (वर्तमान का प्रयागराज) में २९ अगस्त १९०५ को राजपूत वंश में हुआ था । वास्तव में सेना में भर्ती होने के उपरांत ही हॉकी खेलना आरंभ किया । उससे पूर्व उन्हें हॉकी का कोई अनुभव नहीं था । उसके उपरांत ध्यानचंद के भाई रूप सिंह ने भी ध्यानचंद के कदम पर कदम रखकर हॉकी में रुचि लेना आरंभ किया । मेजर ध्यानचंद का वास्तविक नाम ‘ध्यान सिंह’ था; परंतु वे सदैव रात में चंद्रमा के प्रकाश में हॉकी का अभ्यास करते थे; इसलिए कालांतर में उनके निकटतम मित्रों ने उनके नाम के सामने ‘चंद’ शब्द जोड दिया । तभी से वे ‘ध्यानचंद’ नाम से पहचाने जाने लगे ।

(संदर्भ : दैनिक ‘लोकसत्ता’ का जालस्थल)