सर्वोत्तम शिक्षा क्या है ?

     पू. डॉ. शिवकुमार ओझाजी (आयु ८७ वर्ष) ‘आइआइटी, मुंबई’ के एयरोस्पेस इंजिनीरिंग में पीएचडी प्राप्त प्राध्यापक के रूप में कार्यरत थे । उन्होंने भारतीय संस्कृति, अध्यात्म, संस्कृत भाषा इत्यादि विषयों पर ११ ग्रंथ प्रकाशित किए हैं । उसमें से ‘सर्वोत्तम शिक्षा क्या है ?’ इस हिन्दी ग्रंथ का विषय यहां प्रकाशित कर रहे हैं । विगत लेख में ‘भारतीय संस्कृति’ सर्वोत्तम शिक्षा का आधार होना, भारतीय संस्कृति द्वारा मनुष्य जीवन की वास्तविकता पर प्रकाश डालना और अपूर्ण शिक्षा के कारण मानवीय समस्याएं निर्माण होना के विषय में जानकारी देखी थी । आज उससे आगे का विषय इस लेख में देखेंगे । (भाग २)

पू. डॉ. शिवकुमार ओझा

१. विषय प्रवेश

१ ओ. मनुष्य द्वारा निर्धारित किए गए ध्येय प्राप्त करवानेवाली शिक्षा ही सर्वोत्कृष्ट होना : ‘शिक्षा वही पूर्ण एवं सर्वोत्कृष्ट कहलाएगी जो मनुष्य के कुशलतापूर्वक निर्धारित, ध्येय पदार्थों को प्राप्त कराने का साधन हो । जब तक मनुष्य यह नहीं जानता कि ‘वह क्या है ?’ तथा ‘किसलिए है ?’ और ‘जिस संसार में मनुष्य रहता है वह क्या है ?’ तथा ‘किसलिए है ?’, तब तक मनुष्य द्वारा ध्येयों का यथार्थ निर्धारण कर पाना संभव नहीं और इन ध्येयों को प्राप्त करानेवाली शिक्षा का अनुसंधान कर पाना तो और भी दूभर है । उदा. जब किसी दवाई (Medicine) का निर्माण चिकित्सा के लिए किया जाता है, तब दवाई के स्वरूप एवं गुणों को जानना आवश्यक है और साथ में यह भी जानना आवश्यक है कि जहां यह दवाई रहेगी (जैसे मनुष्य के शरीर में या अन्यत्र किसी स्थल पर) वहां के वातावरण का परस्पर (अर्थात दवाई और वातावरण के मध्य) प्रभाव क्या होगा । इन दोनों प्रकार की वास्तविकताओं का यथार्थ ज्ञान होना आवश्यक है । क्योंकि इनसे अनभिज्ञ रहकर औषधि का प्रयोग करना हानिकारक भी हो सकता है ।

१ औ. मनुष्यरूपी उत्पाद का उचित उपयोग होने की आवश्यकता : किसी भी सांसारिक उत्पाद (प्रोडक्ट) जैसे दवाई, उपकरण, मशीन (यन्त्र) आदि के उपयोग की विधि निर्माणकर्ता डिब्बे, कागज या पुस्तिका में लिखकर देता है, जिससे कि मनुष्य उस उत्पाद का पूर्ण लाभ उठा सके । इसी प्रकार मनुष्य भी एक सांसारिक उत्पाद (प्रोडक्ट) है, इसलिए मनुष्य को यह विचार करना चाहिए कि मनुष्यरूपी उत्पाद के उपयोगी होने की विधि कहां पर विद्यमान है? क्या मनुष्य स्वयं इस विषय में यथार्थरूप से निर्णय लेने में सक्षम है ?

१ अं. ‘अनेक अव्यक्त घटकों के मिश्रण से बनी वस्तु का सबसे महत्त्वपूर्ण घटक कौन-सा है ?’, यह जानना कठिन होना और उसी प्रकार ‘मनुष्य के शरीर का सबसे अधिक प्रमुख घटक कौन-सा है ?, यह बताना कठिन होना : ‘मनुष्य क्या है ?’, इस गंभीर प्रश्‍न का उत्तर शिक्षा से घनिष्ठ और साक्षात संबंध रखनेवाली बातों में निहित है । शास्त्रों में भी यह प्रश्‍न प्रायः पूछा जाता है । इसलिए इस प्रश्‍न के तात्पर्य तथा उत्तर को समझने का यहां प्रयत्न करेंगे ।

     जब भी कोई वस्तु कई पदार्थों के मिश्रण से बनी हुई होती है, तो यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि इस मिश्रण में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पदार्थ कौन सा है ?, यह कठिनाई तब और अधिक बढ जाती है जब उन पदार्थों में कुछ अव्यक्त पदार्थों की भी उपस्थिति हो । उदाहरण के लिए किसी स्थल पर अग्नि जलाने के लिए स्थान, लकडी, घी अथवा तेल, माचिस अथवा अग्नि की चिंगारी, हवा या अन्य कोई अव्यक्त पदार्थ चाहिए । यदि पृथक-पृथक व्यक्तियों से पूछा जाए कि ‘इन सब पदार्थों में कौन सबसे अधिक मुख्य है ?’, तो कोई आश्‍चर्य नहीं कि उत्तर भिन्न-भिन्न प्राप्त हो । इसी प्रकार हड्डी, मांस, रक्त, नसें, मन, बुद्धि, इन्द्रियां अथवा अन्य अव्यक्त पदार्थों आदि की संसृष्टि (मिश्रण) से बने हुए मनुष्य के शरीर में सबसे अधिक मुख्य तत्त्व (पदार्थ) क्या है ?, इसे बताना बहुत कठिन हो जाता है अर्थात जिस पदार्थ को मनुष्य ‘मैं’ कहकर संबोधित कर रहा है, उसे नहीं जानता ।

१ क. ‘आत्मा’ मनुष्य के शरीर में अव्यक्त और इंद्रियातीत रूप में विद्यमान होने का ज्ञान वेदों द्वारा प्राप्त होना : इस तत्त्व का सर्वप्रथम ज्ञान मनुष्य को आप्त प्रमाण (वेद) से प्राप्त हुआ है । यह तत्त्व है आत्मतत्त्व (आत्मा) । यह ‘आत्मा’ मनुष्य शरीर में अव्यक्त एवं इन्द्रियातीत रूप में विद्यमान है, यह आत्मा अन्यत्र सर्वत्र विश्‍व या ब्रह्माण्ड में भी कण-कण (अर्थात सभी स्थलों) में परमात्म (परमात्मा) रूप में विद्यमान है । आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं है, जैसे घडे में भरे हुए समुद्र जल और सागर में व्याप्त समुद्र जल में कोई अन्तर नहीं होता ।

१ ख. आत्मा के अधिष्ठान के कारण समस्त ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होने से मनुष्य को वह अधिष्ठान प्राप्त करने का प्रयास करना आवश्यक : किसी के मन में शंका उठ सकती है कि विद्यार्थियों की शिक्षा का आत्मा से क्या लेना-देना ?, दोनों पृथक-पृथक पदार्थ हैं । परन्तु ऐसा नहीं है, शिक्षा का आत्मा के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि समस्त ज्ञान-विज्ञान जिसकी शिक्षा दी जाती है, उसी आत्मारूपी स्रोत से निकलती एवं प्रवाहित होती है । मनुष्य की बुद्धिमत्ता इसी में है कि जिस अधिष्ठान से समस्त ज्ञान-विज्ञान प्राप्त होता है, उसी अधिष्ठान को प्राप्त करने की चेष्टाएं की जाएं ।

१ ग. भारतीय संस्कृति में परम्परागत रूप से भौतिक विद्या के साथ ही आध्यात्मिक विद्याआें की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान करने की परिपाटी होना : आत्मा चेतन शक्ति है एवं अन्य अनन्त शक्तियों का भण्डार है । इसीलिए भारतीय संस्कृति में शिक्षा का परम लक्ष्य मनुष्य को उसी आत्म-तत्त्व (आत्मा, चेतन शक्ति) के साथ योग कराना है । इससे लाभ यह है कि मनुष्य में असीमित बौद्धिक शक्ति व अन्य शक्तियों का संचार होता है । जिस विद्या के अन्तर्गत यह आता है, उसे ‘अध्यात्म विद्या’ कहा गया है । भारतीय संस्कृति में परम्परागत रूप से भौतिक विद्याओं के साथ-साथ आध्यात्मिक विद्याओं की शिक्षा अनिवार्य रूप से प्रदान करने की परिपाटी रही है । आध्यात्मिक विद्याओं की साधारण शिक्षा से ही मनुष्य में सद्गुणों का विकास होता है तथा सदाचार पालन के प्रति प्रवृत्तियां बढती हैं एवं उस हेतु चेष्टाएं की जाती हैं ।’ (क्रमशः)

– (पू.) डॉ. शिवकुमार ओझा, ज्येष्ठ शोधकर्ता और भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययनकर्ता

(साभार : ‘सर्वोत्तम शिक्षा क्या है ?’)