गुरु-शिष्य परंपरा का संवर्धन करें !

गुरुपूर्णिमा के दिन सदा की तुलना में गुरुतत्त्व (ईश्वरीय तत्त्व) १ सहस्र गुना कार्यरत होता है । इसलिए गुरुपूर्णिमा के उपलक्ष्य में की गई सेवा एवं त्याग (सत् के लिए अर्पण) का अन्य दिनों की तुलना में १ सहस्र गुना लाभ होता है । अतः गुरुपूर्णिमा ईश्वरीय कृपा का एक अनमोल स्वर्णिम अवसर है । गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन अर्थात गुरुपूर्णिमा । ऐसे गुरुजनों के प्रति अपनी कृतज्ञतापूर्ण भक्ति समर्पित करने हेतु ही ‘गुरुपूर्णिमा’ उत्सव का महत्त्व अनन्य है ! इस दिन मनोभाव से श्री गुरुदेव के दर्शन, पूजन, सेवा तथा गुरुकार्य हेतु अर्पण (त्याग) करने से गुरुकृपा का अधिकाधिक लाभ मिलता है । श्रद्धालु भक्तों को यह लाभ लेने का स्वर्णिम अवसर गुरुपूर्णिमा के कार्यक्रम से मिलता है; परंतु काल के प्रवाह में रज-तमप्रधान संस्कृति के प्रभाव के कारण इस महान गुरु-शिष्य परंपरा की उपेक्षा हो रही है । इस परंपरा का संवर्धन करने का सुयोग गुरुपूर्णिमा से प्राप्त होता है । (संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘गुरु का आचरण, कार्य एवं गुरुपरंपरा’)

गुरुने ईश्वरप्राप्ति का मार्ग दर्शाने हेतु ईश्वर पर श्रद्धा एवं भक्ति होनी चाहिए !

भक्त एवं गुरु दो दीपक के समान हैं । ईश्वर की अनुभूति लेने हेतु दोनों की अवस्था उत्तम ही होनी चाहिए । यद्यपि दीपक स्वयं जलता है, तब भी वह बिना बाती एवं तेल के दूसरा दीपक नहीं जला सकता । उसी प्रकार किसी व्यक्ति की ईश्वर के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति रहे बिना गुरु उसे ईश्वरप्राप्ति का मार्ग नहीं दिखा सकते ।

गुरु की महिमा

जीवन में मनःशांति एवं आनंद पाने के लिए कौन-सी साधना एवं निश्चित रूप से कैसे करनी है, इसका यथार्थ ज्ञान गुरु ही देते हैं । संत तुकाराम महाराज कहते हैं – आज समाज गुरु का महत्त्व भूलता जा रहा है । गुरु की महिमा का अध्ययन करने से जिज्ञासु एवं साधक की गुरु के प्रति श्रद्धा निर्माण होती है । शिष्य के जीवन में गुरु का विशेष महत्त्व है । इसका कारण यह है कि गुरु के बिना उसे ईश्वरप्राप्ति हो ही नहीं सकती । गुरु का भक्तवत्सल रूप, शिष्य पर कृपा करने के माध्यम आदि विविध पहलुओं द्वारा शिष्य को गुरु के अंतरंग के खरे दर्शन होते हैं । इससे शिष्य की गुरु के प्रति भक्ति दृढ होती है एवं वह गुरु के अस्तित्व का अधिक लाभ ले पाता है । शिष्य को गुरु का महत्त्व स्वीकार होता है; क्योंकि उसे गुरु के आध्यात्मिक सामर्थ्य की प्रतीति हो गई होती है । वर्तमान जन्म की अत्यंत छोटी-छोटी बातों के लिए भी प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक, डॉक्टर, वकील इत्यादि अन्य किसी व्यक्ति का मार्गदर्शन लेता है । फिर ‘जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति देनेवाले गुरुदेव का कितना महत्त्व होगा’, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । (संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ ‘गुरुका आचरण, कार्य एवं गुरुपरंपरा’) 

गुरु की आवश्यकता

१. ‘बाल्यावस्था से ही बालक को अक्षर की पहचान और आगे चलकर सभी विषयों के ज्ञानार्जन के लिए गुरु की आवश्यकता होती है । भौतिक ज्ञान का विषय पढानेवाले शिक्षक उस विषय की भौतिक जानकारी देकर अपना कर्तव्य निभा सकते हैं, किंतु अध्यात्म के मार्ग में गुरु के बिना ईश्वरप्राप्ति सहजता से नहीं हो सकती ।

२. गुरु ही मनुष्य को उसके उद्धार का मार्ग दिखाते हैं और उससे साधना करवाते हैं । इससे मनुष्य अपना कल्याण कर अपने जीवन में ‘ईश्वरप्राप्ति’ का ध्येय साध्य कर सकता है ।

३. गुरु के बिना कोई भी ज्ञान प्राप्त नहीं होता । जिस प्रकार रोगनिवारण के लिए उचित वैद्य की आवश्यकता रहती है, उसी प्रकार इस भवसागर से पार लगने के लिए जीव के स्वभावदोष, दुर्गुण, मनोभूमिका, आत्मिक स्तर और प्रगति के जानकार गुरु की आवश्यकता होती है ।

४. उचित गुरु शिष्य को केवल आत्मकल्याण का मार्ग ही नहीं बताते; अपितु उसके लिए उसे उचित साहस, बल एवं उत्साह भी देते हैं ।

५. गुरुकृपायोग के अनुसार साधना करते समय केवल शिक्षा ही विकल्प नहीं रहता, यहां गुरु द्वारा शिष्य को प्रसादरूप में आत्मबल प्राप्त हो सकता है । इसके लिए तपस्वी गुरु की आवश्यकता होती है । ऐसे गुरु के पास साधना, तपस्या, विद्या एवं आत्मबल का सामर्थ्य होना आवश्यक है । – (परात्पर गुरु) परशराम पांडे महाराज, (२.७.२०१८)